सत्यता की अनुभूति और स्वीकृति का समय: अभी नहीं, तो कभी नहीं
वर्ण –रंग, भाषा –बोलियाँ, वेशभूषा, खान-पान –आहार, व्यवहार –रीतियाँ आदि पृथक-पृथक होने के बाद भी मानव जाति एक हैI प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष एवं दृश्य-अदृश्य, लेकिन अनिवार्यतः परस्पर-निर्भरता प्राणिमात्र और अतिविशेष रूप से मानव जाति से जुड़ी एक सत्यता हैI एक-दूसरे पर निर्भरता प्रत्येक की सृष्टि में उपयोगिता, उद्देश्य एवं महत्ता की सूचक हैI प्रत्येक जन –महिला अथवा पुरुष की हर रूप में सृष्टि-रचयिता, पालक और उद्धारक की ओर से निर्धारित समानता की द्योतक हैI
सम्पूर्ण मानव जाति एक ही घर में सुरक्षित, प्रसन्न और जीवन की निरन्तरता की आशा और कामना के साथ एक ही छत के नीचे हैI यही मानव-जीवन से सम्बद्ध वह सबसे बड़ी सत्यता है, जिसकी निरन्तर अनुभूति प्रत्येक –स्त्री एवं पुरुष से वांछित हैI प्रत्येक का जीवन सुरक्षित और प्रसन्नमय रहे, इस हेतु हर एक मनुष्य से, इसे अपने परम कर्त्तव्य के रूप में लेते हुए तथा इसकी सुनिश्चितता के लिए, व्यवहार-संलग्नता की अनिवार्य और अपरिहार्य अपेक्षा हैI
प्रकृति और सम्बद्ध स्रोतों के साथ ही अन्य प्राणी भी जीवन की सुरक्षित वातावरण में निरन्तरता, सुरक्षा एवं प्रसन्नता के लिए परमसत्ता –शाश्वत व सनातन सार्वभौमिक नियम के नियन्ता द्वारा ही उत्पन्न या रचित हैंI इस वास्तविकता की अनुभूति –प्रकृति व अन्य जीव-संरक्षण तथा किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना समान रूप से इनके सदुपयोग एवं, साथ ही,वातावरण की शुद्धता बनाए रखना भी प्रत्येक मानव, महिला अथवा पुरुष से, उसके परम उत्तरदायित्व के रूप में सदा और निरन्तर ही वांछित और अपेक्षित हैI
लेकिन, वास्तविकता यह है कि मानव ने स्वयं उसके भले और कल्याण के लिए उससे आवश्यक रूप से वांछित-अपेक्षित से निरन्तर मुँह मोड़ा हैI व्यक्तिगत, समूह और क्षेत्रीय हित को आगे रखते हुए देते हुए पर्यावरण-संतुलन को ही नहीं बिगाड़ा, केवल प्रकृति से ही, इसका अन्यायपूर्ण और बर्बरतापूर्वक दोहन करते हुए खिलवाड़ नहीं किया, अपितु प्राणिजगत के साथ ही सजातीयों के जीवन को भी निरन्तर दाँव पर लगाया हैIपरिणामस्वरूप आज स्वयं मानव के भविष्य के ही नहीं, अपितु उसके अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लग गया हैI
प्रगति या विकास और आधुनिकता के नाम पर प्रकृति का जो शोषण हुआ है, उसके कारण, जैसा कि मैंने एक लेख में अभी-अभी पढ़ा है (यद्यपिलेख में दिए गए आंकड़ों की पूर्ण सत्यता की पुष्टि मैं नहीं करता हूँ) एक समय पृथ्वी के सत्तर प्रतिशत भू-भाग पर विद्यमान वन (लगभग बारह अरब अस्सी करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल) अब सिमटकर केवल सोलह प्रतिशत (लगभग दो अरब हेक्टेयर क्षेत्रफल) ही रह गए हैंI इतना ही नहीं, वनों का निर्ममतापूर्वक कटान अभी भी चलता हैI इसका बहुत ही बुरा प्रभाव हुआ हैI वनों का वातावरण –पर्यावरण-संतुलन और शुद्धता बनाए रखने के साथ हीप्राकृतिक आपदाओं को रोकने, भू-संरक्षण और जलस्तर के नियंत्रण में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान होता हैंI वन्य-जीवों, जन्तुओं और पशुओं का जीवन वनों पर ही निर्भर होता हैI वन, हम सभी जानते हैं, मानव की अनेकानेक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैंI मानव-आजीविका के स्रोत भी हैंI इसके विस्तार में जाने की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं हैI लेकिन, मानव के व्यक्तिगत, समूहगत और क्षेत्रीय स्वार्थ ने परिस्थितियों को इतना बिगाड़ दिया है कि वातावरण अशुद्ध हो गया हैI पर्यावरण-संतुलन बुरी तरह बिगड़ गया हैI वायुमण्डल में वायु-स्थिति चिन्ताजनक हैI ध्रुवों और पर्वतों पर बर्फ निरन्तर पिघल रही हैI ग्लेशियर विलुप्त होते जा रहे हैंI समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि हो रही है; परिणामस्वरूप, आने वाले वर्षों में पृथ्वी के अनेक भाग, विशेषकर तटवर्ती महानगर-नगर जलमग्न हो जाएँगेI
वर्तमान मानव-सभ्यता के अनेकानेक जीव-जन्तु व पशु भी प्रमुख रूप से मानव द्वारा उत्पन्न की गई इसी स्थिति के कारण विलुप्त हो गए हैंI ऐसे विलुप्त हो चुके जीवों के पूरे आंकड़े जुटा पाना तो असम्भव है, लेकिन हाल के वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ द्वारा जारी की गई एक सूचि, जिसमें यह उल्लेख है कि पाँच हजार पाँच सौ तिरासी जीवों-पशुओं की प्रजातियाँ विलुप्त होने को हैं, स्थिति की गम्भीरता को प्रकट करती हैI यह विलुप्तता मुख्यतः मानव के परस्पर जीव-निर्भरता के सार्वभौमिक सिद्धान्त के उल्लंघन के कारण हैI पर्यावरण, प्रकृति और जलवायु आदि पर विपरीत प्रभाव डालने वाली स्थिति हैI स्वयं मानव जाति इससे सर्वाधिक प्रभावित हुई है; निरन्तर हो रही हैI
संक्षेप में यह सब कहने का तात्पर्य है कि व्यक्तिगत, व्यक्ति-समूह और क्षेत्रीय स्वार्थ-सिद्धि के लिए मानव ने पर्यावरण और प्रकृति-सन्तुलन को बिगाड़ा हैI जीव-जन्तुओं व पशुओं के दुरुपयोग एवं प्राकृतिक संसाधनों के अन्यायपूर्ण व मनमाने दोहन से स्थिति को भयावह बना दिया हैI प्राकृतिक आपदाएँ, प्रकोप और महामारियाँ इससे जुड़ी हुई हैंI यहाँ तक कि इन्हीं का दुरुपयोग करके मानव ने, जैसा कि वर्तमान महामारी की स्थिति से प्रकट होता है, मानवता को विनाश की ओर धकेला हैI परस्पर-निर्भरता के शाश्वत सिद्धान्त और“सर्वकल्याण में ही व्यक्ति, व्यक्ति-समूह और क्षेत्र अथवा राष्ट्र का कल्याण निहित होता है”, की सत्यता से मुख मोड़ा हैI शाश्वत-सनातन वेद-वाणी का, जो अविभाज्य समग्रता एवं सार्वभौमिक एकता की वास्तविकता को केन्द्र में रखकर सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी, मनुष्य का, देवपुरुषों के मार्ग का अनुसरण करते हुए एकबद्ध होकर सर्वकल्याण की दिशा में सोचने और कार्य करने का आह्वान करती है, अनादर किया है। ऋग्वेद (10:192:02) का मानवाह्वान है:
“संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्/
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते//”
अर्थात्,“हम सब एक साथ चलें; एक साथ बोलें; हमारे मन एक होंIप्रााचीन समय में देवताओं का ऐसा ही आचरण रहा; इसी कारण वे सदा वन्दनीय हैंI”
प्राकृतिक आपदाएँ, प्रकोप और महामारियाँ मानव जाति को समय-समय पर सत्यता का बोध कराती रही हैंI अविभाज्य समग्रता और सार्वभौमिक एकता के साथ ही प्राणिमात्र, अतिविशेष रूप से मानव की परस्पर-निर्भरता की वास्तविकता का बोध कराकर, प्रत्येक जन को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसके कर्त्तव्यों का स्मरण कराती रही हैं। वर्तमान महामारी, वह एक मानव-समूह अथवा एक विशेष क्षेत्र द्वारा संसार में अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के उद्देश्य से उत्पन्न किए जाने की स्थिति में भी, भयभीत और अन्धकार की चपेट में आ गई मानव जाति को सत्यता का बोध करती हैIमनुष्य को उसकी सीमाओं का दर्पण दिखाती है; कर्त्तव्यविमुख होकर असत्यमय आचरणों के परिणामों हेतु सचेत करती हैI
कोई भी व्यक्ति, व्यक्ति-समूह या देश, बारम्बार कहा जा सकता है, परस्पर-निर्भरता की वास्तविकता का अपवाद नहीं हो सकताI वर्तमान महामारी से उत्पन्न स्थिति में अन्ततः वैश्विक सहयोग की ओर बढ़ते कदम, जिसमें अपवाद स्वरूप कुछ को छोड़ भी दें तो, स्वयं इसी सत्यता की पुष्टि हैI इसीलिए, अपने-अपने निजी, समूहगत और राष्ट्रीय हितों के लिए प्राथमिकता के बाद भी विश्वभर में महामारी के विरुद्ध एक-दूसरे के सहयोग के साथ ही सामंजस्य का वातावरण किसी-न-किसी रूप में निर्मित हो रहा हैI
परस्पर-निर्भरता शाश्वत सत्यता हैI सर्वकल्याण की सोच, तदनुसार कार्य ही अन्ततः वास्तविक उन्नति और समृद्धि का मार्ग और माध्यम हैंIइसके विपरीत जो कुछ भी है, वह अवास्तविक, अल्पकालिक और विनाशकारी हैI मानव जाति को वर्तमान स्थिति में इस वास्तविकता की अनुभूति करनी होगीI“वसुधैव कुटुम्बकम” के सत्य को स्वीकार करना होगाI“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया” को केवल एक श्रेष्ठ प्रार्थना के रूप में ही स्वीकार नहीं करके, अपितु इसकी मूल भावना के अनुरूप समर्पित होकर कार्य भी करना होगा, अन्यथा बहुत देर हो जाएगी।
वातावरण –पर्यावरण-सन्तुलन, प्रकृति-संरक्षण और सृष्टि में प्रत्येक की महत्ता को स्वीकार करते हुए प्राणिमात्र के प्रति सद्भावना, और ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा एवं दूसरों पर नियंत्रण जैसी प्रवृत्तियों को नियंत्रित करते हुए, मानवमात्र के प्रति, किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना सक्रिय सौहार्द रखना ही होगाIदूसरी स्थिति में, काश, कहीं “अभी नहीं, तो कभी नहीं” जैसी स्थिति न आ जाएI
*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैंI
कृपया इसे भी देखें