मोदी सरकार का कोयला नीति उलटफेर: जनस्वास्थ्य और पर्यावरण पर मंडराता संकट

स्वास्थ्य जोखिम, पर्यावरणीय नुकसान, कानूनी और सामाजिक कदम

मीडिया स्वराज डेस्क

11 जुलाई है। सरकार ने चुपके से एक गजट नोटिफिकेशन जारी किया, जिसने भारत के पर्यावरण और जनस्वास्थ्य के भविष्य को खतरे में डाल दिया। इस फैसले ने कोयला आधारित 79% बिजली संयंत्रों को फ्लू गैस डीसल्फराइजेशन (FGD) सिस्टम लगाने की अनिवार्यता से छूट दे दी। यह निर्णय, जो लागत बचत और भारतीय कोयले की कथित कम सल्फर सामग्री के तर्क पर आधारित है, न केवल भारत के स्वच्छ हवा के लक्ष्यों को कमजोर करता है, बल्कि लाखों लोगों की सेहत और पर्यावरण को गंभीर जोखिम में डालता है। जैसा कि एक ट्वीट में सटीक रूप से कहा गया, “राजनीति आपको घनघोर बीमारी दे सकती है,” और यह फैसला इसका जीता-जागता सबूत है। मीडिया स्वराज, जो जनता की आवाज और सच्चाई को सामने लाने के लिए प्रतिबद्ध है, इस जनविरोधी नीति की गहराई से पड़ताल करता है और इसके पीछे की मंशा, प्रभाव, और आवश्यक प्रतिक्रिया पर प्रकाश डालता है।

FGD सिस्टम: स्वच्छ हवा की रीढ़

फ्लू गैस डीसल्फराइजेशन (FGD) सिस्टम एक ऐसी तकनीक है जो कोयला आधारित बिजली संयंत्रों से निकलने वाली सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) गैस को हटाती है। कोयले में मौजूद सल्फर जलने पर SO₂ में बदल जाता है, जो एक प्रमुख वायु प्रदूषक है। SO₂ वायुमंडल में पानी के साथ प्रतिक्रिया कर सल्फ्यूरिक एसिड (H₂SO₄) बनाता है, जिससे अम्लीय वर्षा होती है। यह वर्षा मिट्टी की उर्वरता को नष्ट करती है, नदियों और झीलों में जलीय जीवन को प्रभावित करती है, और ताजमहल जैसी संगमरमर की इमारतों को नुकसान पहुंचाती है। इसके अलावा, SO₂ द्वितीयक पार्टिकुलेट मैटर (PM2.5) के निर्माण में योगदान देता है—ये महीन कण रक्तप्रवाह में प्रवेश कर अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, और हृदय रोग जैसी गंभीर बीमारियां पैदा करते हैं, खासकर बच्चों और बुजुर्गों में।

2015 में, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने कोयला संयंत्रों के लिए सख्त उत्सर्जन मानक लागू किए थे, जिसमें SO₂ की सीमाएं शामिल थीं। ये नियम राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) और पेरिस समझौते के तहत भारत की प्रतिबद्धताओं का हिस्सा थे। FGD सिस्टम, जो चूना पत्थर जैसे क्षारीय अभिकर्मकों का उपयोग कर SO₂ को 95% तक कम कर सकता है, इन मानकों को पूरा करने के लिए अनिवार्य था। लेकिन जुलाई 2025 का यह नया फैसला इन प्रयासों को पलट देता है, जिससे पर्यावरण और जनस्वास्थ्य पर गंभीर सवाल उठते हैं।

सरकार का तर्क: लागत बनाम जीवन

सरकार का दावा है कि भारतीय कोयले में सल्फर की मात्रा 0.3-0.5% से कम है, जो आयातित कोयले (0.5% से अधिक) की तुलना में कम है। सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (CPCB), IIT दिल्ली, और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज जैसे संस्थानों के अध्ययनों के आधार पर, सरकार का कहना है कि भारतीय कोयले से SO₂ उत्सर्जन राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानकों (80 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) के भीतर रहता है। इसके अलावा, FGD सिस्टम लगाने की लागत—लगभग ₹2.5 लाख करोड़, या प्रति मेगावाट ₹1.2 करोड़—और इसके संचालन से बिजली की कीमत में ₹0.25-0.30 प्रति यूनिट की वृद्धि को सरकार अनुचित मानती है। सरकार का यह भी तर्क है कि FGD सिस्टम ऊर्जा-गहन हैं और चूना पत्थर खनन से 2025-2030 तक 69 मिलियन टन अतिरिक्त CO₂ उत्सर्जन होगा, जो भारत के जलवायु लक्ष्यों के विपरीत है।

नई नीति के तहत, केवल 11% संयंत्र—जो 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों या अत्यधिक प्रदूषित क्षेत्रों के 10 किमी के दायरे में हैं—को 2027 तक FGD लगाना होगा। बाकी 79% संयंत्रों को छूट दी गई है, और 2030 के बाद गैर-अनुपालन पर मात्र ₹0.40 प्रति यूनिट का जुर्माना लगेगा। सरकार का दावा है कि इससे प्रति वर्ष ₹19,000-24,000 करोड़ की बचत होगी, जिससे बिजली सस्ती होगी और उपभोक्ताओं को राहत मिलेगी।

भ्रामक तर्क का पर्दाफाश

सरकार का यह तर्क सतही और भ्रामक है। भारतीय कोयले में सल्फर की मात्रा कम होने के बावजूद, SO₂ उत्सर्जन शून्य नहीं है। एक पावर इंजीनियर के साथ आपकी चर्चा में यह गलतफहमी सामने आई कि भारतीय कोयला FGD “उत्पादन” नहीं करता—यह तकनीकी रूप से गलत है, क्योंकि FGD एक तकनीक है, न कि कोई उत्पाद। भारतीय कोयला, अपने 0.3-0.5% सल्फर के साथ, SO₂ तो पैदा करता ही है, और यह उत्सर्जन PM2.5 में बदलकर 200 किमी तक के क्षेत्रों को प्रभावित करता है। 2020 की लैंसेट स्टडी के अनुसार, भारत में वायु प्रदूषण से 16.7 लाख लोगों की समयपूर्व मृत्यु होती है, जिसमें कोयला संयंत्रों से SO₂ और PM2.5 का योगदान 15% है। ऊंची चिमनियां, जिन्हें सरकार प्रदूषण नियंत्रण का उपाय मानती है, केवल SO₂ को वायुमंडल में ऊंचाई पर फैलाती हैं, जो PM2.5 में बदलकर स्वास्थ्य और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है।

FGD सिस्टम की लागत निश्चित रूप से अधिक है, लेकिन इसके दीर्घकालिक लाभ—स्वच्छ हवा, कम स्वास्थ्य व्यय, और पर्यावरण संरक्षण—इस लागत को उचित ठहराते हैं। सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (CREA) के अनुसार, वायु प्रदूषण से भारत को प्रतिवर्ष $95 बिलियन का आर्थिक नुकसान होता है। FGD से होने वाली ₹19,000-24,000 करोड़ की बचत इस नुकसान की तुलना में नगण्य है। सरकार का CO₂ उत्सर्जन का तर्क भी कमजोर है, क्योंकि IPCC के अनुसार, SO₂ का अल्पकालिक शीतलन प्रभाव इसके स्वास्थ्य और पर्यावरणीय नुकसानों को संतुलित नहीं करता।

कॉरपोरेट हितों का खेल?

इस फैसले की टाइमिंग और गोपनीयता संदेह पैदा करती है। रातोंरात जारी नोटिफिकेशन और सरकार के अध्ययनों की पारदर्शिता की कमी कॉरपोरेट लॉबिंग की ओर इशारा करती है। NTPC जैसी बिजली कंपनियां, जिन्होंने पहले ही 11% संयंत्रों के लिए $4 बिलियन FGD पर खर्च किए हैं, शेष संयंत्रों को छूट से लाभान्वित होंगी। X पर @cleanAirBharat और @PKakkar_ जैसे उपयोगकर्ताओं ने इस फैसले को कॉरपोरेट हितों को प्राथमिकता देने वाला बताया है। यह संदेह और गहराता है कि सरकार ने स्वतंत्र वैज्ञानिक अध्ययनों के बजाय अपने नियंत्रण वाले संस्थानों के डेटा पर भरोसा किया।

राजनीतिक रूप से, यह फैसला सस्ती बिजली का वादा कर मतदाताओं को लुभाने का प्रयास हो सकता है। लेकिन यह जनता के साथ विश्वासघात है, क्योंकि प्रदूषण के स्वास्थ्य और पर्यावरणीय लागत को उपभोक्ताओं और पर्यावरण पर डाल दिया गया है। केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में, जहां पर्यावरणीय जागरूकता ने सामाजिक और मनोवैज्ञानिक परिवेश को मजबूत किया है, ऐसे नीतिगत फैसलों का कड़ा विरोध होता है। यह पूरे देश के लिए एक सबक है।

स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रभाव

  • स्वास्थ्य जोखिम: SO₂ और PM2.5 श्वसन और हृदय रोगों को बढ़ाते हैं। कोयला संयंत्रों से निकलने वाला PM2.5 भारत में वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों का 15% हिस्सा है। FGD की अनुपस्थिति इन जोखिमों को बढ़ाएगी, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां संयंत्रों के पास रहने वाले समुदाय कमजोर हैं।
  • पर्यावरणीय नुकसान: अम्लीय वर्षा मिट्टी, जल स्रोतों, और धरोहरों को नष्ट करती है। यह NCAP के 20-30% प्रदूषण कमी के लक्ष्य को और दूर ले जाता है, जो पहले ही 2024 की समय सीमा से चूक चुका है।
  • वैश्विक प्रतिबद्धताएं: यह फैसला पेरिस समझौते के तहत भारत के जलवायु लक्ष्यों और स्वच्छ हवा के वादों को कमजोर करता है, जिससे वैश्विक मंच पर भारत की साख को ठेस पहुंच सकती है।

हम क्या कर सकते हैं?

नागरिक, पर्यावरण संगठन, और मीडिया एकजुट होकर निम्नलिखित कदम उठा सकते हैं :

  1. नीति को पलटने की मांग: सरकार से FGD अनिवार्यता को बहाल करने और सभी संयंत्रों पर सख्त उत्सर्जन नियम लागू करने की मांग।
  2. पारदर्शी अनुसंधान: स्वतंत्र वैज्ञानिक अध्ययनों को प्रोत्साहन देना, जो SO₂ और PM2.5 के प्रभावों का निष्पक्ष मूल्यांकन करें।
  3. नवीकरणीय ऊर्जा पर जोर: 2030 तक 500 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्य को तेज करना और कोयला निर्भरता कम करना।
  4. जन जागरूकता: X पर #CleanAirNow और #StopPollutionPolitics जैसे अभियानों के माध्यम से जागरूकता फैलाना। केरल और पश्चिम बंगाल की तरह, हर नागरिक को राजनीतिक फैसलों की जांच करनी होगी।
  5. कानूनी कार्रवाई: सुप्रीम कोर्ट और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) में जनहित याचिकाओं के जरिए जवाबदेही सुनिश्चित करना।

जानकारों का कहना है कि FGD छूट का फैसला एक खतरनाक नीतिगत भटकाव है, जो जनता की सेहत और पर्यावरण को कॉरपोरेट हितों के लिए बलिदान करता है। यह न केवल NCAP और पेरिस समझौते के वादों का उल्लंघन है, बल्कि लाखों लोगों के जीवन को खतरे में डालता है। जैसा कि ट्वीट में कहा गया, “पर्यावरण को खतरे में डालना तबाही को दावत देने जैसा है।

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