अमेरिका में कैसे बना दम घोंटूं वातावरण
अनुपम तिवारी , लखनऊ
हाल ही में अमेरिका के विभिन्न राज्यों से पुलिस पर प्रतिबंध लगाने की आवाज़ें बड़ी ज़ोर से उठने लगी हैं. मिनियापोलिस,जहाँ कुछ दिनों पहले एक अश्वेत व्यक्ति की पुलिस के हाथों हत्या हुई थी, की शहरी कौंसिल ने तो पूरी पुलिस व्यवस्था को हटा कर उसकी जगह “पब्लिक सेफ्टी” नामक एक नई व्यवस्था को अपनाने की घोषणा कर दी है. उग्र जन प्रदर्शनों के बाद कई अन्य राज्य, विशेष कर जिनमे वर्तमान विपक्ष यानी डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकारें हैं, ने भी पुलिस के अधिकारों की विवेचना करने का निर्णय लिया है.
अमेरिका में कैसे बना दम घोंटूं वातावरण
‘I can’t breathe’….. मृत्यु के तुरंत पहले बोले गए अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉएड के इन आखिरी शब्दों ने अमेरिकी समाज को झकझोर कर रख दिया है. इस वाक्य का प्रयोग करते हुए, लोग वर्षों से दबे हुए मनोभावों को बाहर ला रहे हैं यह वाक्य कोरोना वायरस के खिलाफ चल रही वैश्विक लड़ाई को भी दर्शाता है, कि कैसे एक वायरस लोगों की सांसें रोके दे रहा है. साथ ही उस दमघोंटू वातावरण का भी प्रतीक बन गया है जिसमे शक्तिशाली और सत्ता में बैठे लोग हाशिये पर पड़े लोगो का दम घोंटने पर आमादा हैं.
प्रसिद्ध उपन्यासकार बेन ओकरी का मानना है कि “उक्त वाक्य शोषण के खिलाफ यह एक मंत्र जैसा है. जब भी कोई पुलिस वाला आपको सिर्फ इस लिए रोक ले या तंग करे कि आपकी चमड़ी का रंग उसके जैसा नहीं है तो आपको जरूर बोलना चाहिए कि मेरा दम घुट रहा है, I can’t breathe.”
द गार्डियन अख़बार की खबर के अनुसार, जॉर्ज की हत्या के बाद से उपजे नस्लवाद विरोधी प्रदर्शनों में शामिल करीब 10 हजार लोगों को संयुक्त राज्य अमेरिका की पुलिस ने गिरफ्तार किया है. कुछ एक घटनाओं को छोड़कर प्रायः ये प्रदर्शन शांतिपूर्ण और अहिंसात्मक थे. इन गिरफ्तारियों के बाद प्रदर्शन और ज्यादा उग्र हो गए हैं और अमेरिका से इतर कई अन्य देशों तक फैल चुके हैं.
अमेरिकी मीडिया नाराज
इन सभी खबरों ने अमेरिकी मीडिया का ध्यान खींचा है. वह राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के उस निर्णय के खिलाफ बोल रहा है, जिसमे उन्होंने प्रदर्शनकारियों से सख्ती से निपटने की वकालत की थी. ट्रम्प ने इन सारे आंदोलनों को वामपंथ द्वारा प्रायोजित बताया था और यह भी कहा था कि मीडिया उनकी पुलिस को बदनाम कर रही है.
जनता पर पुलिस की ज्यादतियां अमेरिका के लिए नई नहीं हैं. अमरीकी पुलिस की संरचना ऐसी है कि उनमें यूरोपियन मूल के श्वेतों का वर्चस्व है. पुलिस, आवश्यकता से अधिक हथियारों से सुसज्जित होती है. इसके मूल में अमेरिका का युद्धों से जुड़ा रहना बताया जाता है. सेना युद्धों में बचे खुचे हथियार पुलिस को सौंप देती है. अमेरिकी सैनिक भी सेवानिवृत्ति के बाद ज्यादातर पुलिस विभाग में जाना पसंद करते हैं, जहां सुरक्षित भविष्य इनका स्वागत करता है. सेना के ये जवान अपने साथ सेना का अनुशासन और सेना वाली सख्ती भी ले कर जाते हैं जो संभवतः सिविल समाज की जरूरत से ज्यादा कठोर होती है.
भारत की पुलिस की खस्ता हालत
हम भारत के लोग भी पुलिसिया ज्यादती से अनजान नहीं हैं. नस्लवादी टिप्पणियां यहां इतनी आम हैं कि लोगों ने उन पर ध्यान देना तक बंद कर दिया है. ऐसा देखा जाता है कि निष्पक्ष होने के बजाय, पुलिस विभिन्न कारणों से किसी एक पक्ष के साथ खड़ी हो जाती है. जिससे स्थिति बिगड़ जाती है. हाँ, अंतर सिर्फ यह है कि अमेरिका की तरह यहां की पुलिस अति हथियारबंद नहीं है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने भारतीय पुलिस पर एक रिपोर्ट में बताया था कि 2019 तक 20 प्रदेशों के 70 थानों में वायरलेस तक नही था, और 214 थानों में टेलीफोन और 240 थानों में वाहनों का अभाव था.
आंतरिक सुरक्षा के मामले में भारत बहुत पीछे है. वर्तमान प्रणाली पुरानी हो चुकी है. पुलिस संगठन भ्रष्टाचार, हथियारों की कमी, इंटेलिजेंस व नई तकनीकी के अभाव के साथ साथ संख्याबल की कमी से भी जूझ रहा है. पहले से व्याप्त आपराधिक समस्याओं के साथ अब तकनीकी संबंधी अपराध, जैसे साइबर क्राइम, बैंक फ्रॉड इत्यादि भी पुलिस के सामने एक बड़ी चुनौती है. एनएसए अजीत डोवाल पुलिस वालों के लिए इसे चौथी पीढ़ी के युद्ध की संज्ञा देते हैं.
पुलिसबल और जनता के बीच अनुपात में जबर्दस्त कमी है. इसी कारण भारत की पुलिस हमेशा काम की अधिकता से परेशान रहती है. सदियों पुराना ढर्रा ही बना हुआ है चाहे वो भर्ती की प्रक्रिया में हो, ट्रेनिंग में हो, या फिर कार्य स्थल का वातावरण। आवासों, वाहनों आदि की समस्या जोड़ लीजिए तो स्थिति और भयानक है. समय समय पर पुलिस रिफ़ॉर्म की बात उठती रहती है पर आज तक ज़मीन पर ज्यादा कुछ नही उतरा.
चर्चित प्रकाश सिंह केस और पुलिस सुधार
1971 के बाद से तमाम कमेटियां बनीं, परंतु स्थिति जस की तस ही रही. सुप्रीम कोर्ट ने प्रकाश सिंह केस के 2006 के अपने एक ऐतिहासिक निर्णय में केंद्र और राज्य सरकारों को 7 सूत्रीय निर्देश दिए थे, वह भी आज तक फाइलों में ही दबे हैं. कारण स्पष्ट है न तो राजनेता और न ही नौकरशाह पुलिस सुधार को ले कर गंभीर हैं. शायद उनको डर है कि पुलिस के ऊपर उनका नियंत्रण कमजोर न हो जाये.
भारत की समस्या अमेरिका से अलग है, पुलिस बल की जरूरत ही नहीं हो, यहाँ ऐसी स्थिति अभी तो नहीं आयी है. अपितु वर्षों से लंबित पुलिस रिफ़ॉर्म पर अब गंभीर होने समय गया है. 2020 की आवश्यकताओं अनुसार 1861 में बने पुलिस एक्ट में बदलावों जरूरत है. राजनीति और नौकरशाही के चंगुल से छुड़ाए बिना ये संभव नहीं है. पुलिस विभाग को संविधान की समवर्ती सूची में डालना, सुधारों की ओर पहला कदम हो सकता है. इससे पुलिस केंद्र या राज्यों के अनावश्यक दबाव से बाहर निकल आएगी. लम्बे समय से इसकी मांग है. पुलिस की कार्यप्रणाली कैसे आधुनिक बनायीं जाये, इस पर महकमे के उच्च अधिकारी एक रूपरेखा बनाएँ. साथ ही पुलिस को प्रोफ़ेशनल के साथ साथ मानवीय मूल्यों के अनुसार भी ट्रेंड किया जाये, ताकि कभी भी अमेरिका जैसी घटनाएँ भारत की पुलिस के हाथों न दोहराई जाएं.
पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट तक पुलिस सुधार के लिए लड़ाई लड़ी थी, वह भारतीय पुलिस के मानवीय स्वभाव को दुनिया के सामने पेश करना चाहते थे, उनका एक प्रसिद्ध वाक्य है, “पुलिस को शासकों की नही, जनता की पुलिस बनना चाहिए”.
(लेखक भारतीय वायु सेना के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं.)