जब मैं अपने पुराने छात्र से मिलने गढ़वाल के बग्याली गाँव जा पहुँचा
दिनेश कुमार गर्ग
एक शिक्षक अपने छात्रों को जीवन भर कैसे याद रखते हैं और उनसे मिलने को कितने उत्सुक – यह पता चलता है दिनेश कुमार गर्ग के हिमालय की गोद में बसे एक गाँव के इस रोमांचक यात्रा वृत्तांत से।
पिछली चार अप्रैल की रात। मैं अपने एक पुरातन छात्र से मिलने की ललक में रात आठ बजे गढवाल के एक पर्वत शिखर पर बसे जब मैं अपने पुराने छात्र से मिलने गढ़वाल के बग्याली गाँव जा पहुँचा जब मैं अपने पुराने छात्र से मिलने गढ़वाल के बग्याली गाँव जा पहुँचा गांव पहुँचा था।घर में मिली एक अधेड़ विधवा महिला। महिला कह रही थीं कि मुकेश धस्माणा आपके छात्र हो ही नहीं सकते क्योंकि वे केवल हाईस्कूल तक पढे थे ।मैं कह रहा था कि मुकेश इण्टरमीडियेट में अंग्रेजी की मेरी क्लास में थे और मैं उससे मिलने लखनऊ से चलकर आया हूँ।
एक शिक्षक के लिए अपने पुराने छात्रों से मिलना एक सुखद अनुभव होता है, अस्तु मैं अपने प्रिय छात्र मुकेश की तलाश में यहाँ तक पहुँचा था।
मैं 700 किलोमीटर की यात्रा पूरी करके मुकेश से मिलने के लिए गढवाल में 1600 मीटर ऊंचे पर्वत शिखर पर जब मैं अपने पुराने छात्र से मिलने गढ़वाल के बग्याली गाँव जा पहुँचा था । पर अब इतनी रात जब उसके दरवाजे पहुंचा तो उसके घर के लोग कह रहे थे कि वह आपसे कभी पढे ही नहीं थे । मेरे लिए सबसे दुःखद यह था कि मुकेश अब इस दुनिया में हैं नहीं । मैं विकट स्थिति में था । झूठे और मक्कार सिद्ध हो जाने की घबराहट में मेरे दिमाग में 31 साल पूर्व का वह समय घूम गया जब मैं पहली बार मुकेश धस्माणा के घर पहुंचा था । अब मैं समझ नहीं पा रहा था कि इतनी रात मैं जहां इतनी मशक्कत के बाद पहुंचा हूँ तो अब क्या करूँ? कहाँ जाऊँ?
शायद आपको मालूम न हो कि उत्तर प्रदेश सूचना विभाग में काम करने से पहले में एक शिक्षक था और उससे पहले पत्रकार।
अब से 31 वर्ष पूर्व मैं लखनऊ का सर्वप्रमुख अखबार अमृत प्रभात में उप सम्पादक था । परन्तु वर्ष 1991 तक अमृत प्रभात अखबार पूरी तरह निष्प्राण हो गया था जिसकी वजह से हम पत्रकार जिसकी सींग जहां समाए वहां जाये में लग गये थे ।
मैंने गुवाहाटी में पूर्वांचल प्रहरी नामक अखबार में जाकर काम शुरू किया पर वहां मन न लगा जिससे लखनऊ लौट आया और फिर से जीआईसी का अंग्रेजी लेक्चरर बन गया। माध्यमिक शिक्षा विभाग ने मेरी पोस्टिंग पौड़ी गढवाल के 1800 मीटर ऊंचे पर्वत शिखर एकेश्वर पर कर दिया, जहां मैंने नवम्बर 1991 में ज्वाइन किया । नवंबर में ही वहां इतनी ठंड मिली जितनी कि लखनऊ में जनवरी की कड़कती ठंड में भी नहीं होती । वहां मेरा प्रतिदिन का स्नान बन्द हो गया, शौच के बाद शुद्धि और मार्जन करते करते ही हाथ की अंगुलियां अकड़ने लगतीं ।प्रचण्ड ठंड से या कुपोषण से वहां मुझे विटामिन बी की कमी हो गयी जिससे मैं सीधे तभी खडा हो पाता जब आप्टीन्यूरॉन का एक इंजेक्शन पुट्ठे पर डाक्टर आकर लगा जाता। इस कारण वहां कुल आठ महीने ही रहा फिर मैंने अपना ट्रांसफर नैनीताल की तहसील काशीपुर में करवा लिया और मेरी पोस्टिंग वहां के दलित बहुल जंगली क्षेत्र मालधन चौड़ में हो गयी । वर्ष 1994 जुलाई तक वहां रहा और फिर लोक सेवा आयोग यूपी से चयनित होकर अगस्त 1994 में सूचना निदेशालय लखनऊ में सूचना अधिकारी के पद पर आसीन गया। अक्टूबर 1994 तक यहां सेवाकर आजीविका अर्जित की । यहां मित्रों की सूची रोज लम्बी होती जाती तो वहीं पीठ पर खंजर भी खूब गिरते पर ” मोर भरोसेमंद एक हनुमन्तो, ” ऐसा लगता कि हनुमान जी सारे घाव अपने ऊपर लेते और मैं नौकरी मैं सुरक्षित बच निकलता रहा ।
इस तरह 1991 से 2022 का लम्बा कालखण्ड बीत गया। लेकिन स्मृति के रूप में एकेश्वर की भयंकर ठंड, स्वयंभू शिवलिंग भगवान एकेश्वर , ग्राम जब मैं अपने पुराने छात्र से मिलने गढ़वाल के बग्याली गाँव जा पहुँचा और इंटरमीडिएट का एक शिष्य मुकेश धस्माणा ही याद रह गये ।
संयोग से इस वर्ष 2022 में मुझे ऋषिकेश जाना पड़ा । मेरे पास अपना कोई प्रयोजन वहां जाने का नहीं था यानी बिना काम जाना पड़ा । अस्तु समय बिताने के लिए मेरे पास एक ही काम रहा स्वच्छ धवल पापनाशिनी मां गंगा को निहारना , स्नान करना, पूर्वजों का तर्पण करना ,गंगा आरती के सम्मोहक दृश्य और लोकोत्सव का भागीदार बनना , ऋषि जयराम आश्रम में गूंजते सस्वर वेद पाठ का श्रवण करना । ।मैं वहां एक अप्रैल को पहुंचा था और इस सब में तीन अप्रैल तक आनन्दमग्न रहा परंतु 4 अप्रैल की सुबह मुझे प्रेरणा हुई कि मैं क्यों न एकेश्वर भगवान के दर्शन कर आऊं ।
अस्तु 4 अप्रैल को 11 बजे एकेश्वर के लिए सबसे छोटा और आसान रास्ता लिया हरिद्वार, लालढांग, कोटद्वार, गुमखाल और सतपुली का । हरिद्वार तक आटो से, कोटद्वार तक बस से और फिर सतपुली तक मैक्सी कैब से । वहां पहुंचते- पहुंचते सायं के छह बज गये । मजबूरी थी वहां रुकने की जो मुझे स्वीकार्य नहीं हुआ।मैंने सामान्य से 13 गुने किराये पर टैक्सी की और रात के साढ़े आठ बजे बग्याली पहुंच गया।
यहां पहुंचने के बाद दो सदस्याएँ सामने आईं – पर्वत शिखर (समुद्रतल से ऊंचाई 1600मीटर यानी 5-6 हजार फुट) पर बसे गांव में घरों की संरचना हम सबके गांव से अलग थी । हमारे गांव के घरों में सब कमरे भूतल पर होते हैं जबकि वहां सब कमरे यानी लिविंग रूम प्रथम तल पर होते हैं । वहां भूतल का निर्माण केवल मवेशियों और भूसा-चारा भण्डार के लिए होता है । प्रथम तल के लिए बनी अनगढ सीढियों पर पहाड़ी लोग पेड़ों पर रहने वाले शाखामृगों को मात करते हुए सुरक्षित आवागमन करते है , पर यह कार्य हम मैदानी लोगों के बस का नहीं होता जब तक पर्याप्त रोशनी और सहारा न हो । हम लोग तो यहां मैदान में अच्छी बनी सीढियों पर भरभराकर फिसल जाते हैं ।
दूसरी दिक्कत गढ़वाली समझने और बोलने की हुई। गांव है तो ग॔वईं लोगों से उनकी मदरलैंग्वेज मिश्रित राष्ट्रभाषा में संवाद करना हर जगह एक चुनौती होती है । आवाज लगने पर जब कोई महिला बुजुर्ग या कन्या बाहर आती तो कहती” तुमि ब्ला ब्ला ब्ला छे ? तुमि और छे समझ में आया पर बीच का महत्वपूर्ण अंश ऊपर ही ऊपर उड़ जाता रहा ।
हार कर अपने गढ़वाली टैक्सी ड्राइवर की मदद ली तब अंधेरे और पर्वतीय ऊबड-खाबड़ में मुझे अब तक याद रहे मुकेश धस्माणा के गढ़वाली शैली के मकान तक पहुंचने में सफलता मिली।
यहां एक युवक और एक प्रौढा अपने आवास के भूतल के गौसारे में एकाग्र चक्कर खाती गतिशील फिरकी की तरह गायों के चारे-पानी , सहेज-संभार में लगी दिखीं , उस कार्य में इतनी एकाग्रता कि रात के नौ बजे दरवाजे पर खडे दो लोगों का उन्हें कोई संज्ञान नहीं हो रहा था । ड्राइवर रावत जी ने गढवाली में ही युवक और महिला को सम्बोधित कर कुछ पूछा तो फिर पांच मिनट के इंतजार के बाद जब सहेज-संभार का समापन सन्निकट रह गया तो युवक ने हमारा संज्ञान लिया और संवाद शुरू किया ।
अब मेरी हताशा का चरम बिन्दु आ गया । इतने उत्साह , इतने कष्ट, इतने व्यय और इतनी असुविधा के बाद जहां मैं पहुंचा वह मेरी मंजिल नहीं थी ।
था तो वह मुकेश धस्माणा का घर पर पता चला कि वह साल भर पहले एक नेपाली मजदूर की कोरोना इलाज में सहायता करते करते अकाल काल-कवलित हो चुके हैं । महिला उन्हीं की विधवा है और युवक उनका पुत्र।
मेरी हताशा का पारावार नहीं था , जिससे मिलने आये वह नहीं रहा , पर ठहरिये , अभी क्लाईमेक्स बाकी है ।
मैं उस चालीस वर्षीय युवक की पितृ विहीनता पर अफसोस और दुःख के सागर में डूब ही रहा था कि उसकी मां भी फुर्सत होकर आ गयी और उन्होंने एक बुद्धिमान गृहणी की भांति मेरे शिक्षक होने , मुकेश का शिक्षा गुरू होने के मेरे दावे का परीक्षण शुरू किया और पता चला कि मैं झूठ बोल रहा हूं क्योंकि मैं इंटरमीडिएट स्तर का प्रवक्ता था और मुकेश ने हाईस्कूल से पढ़ाई बन्द कर दी थी । गांव में वह भी गढवाल में रात के सवा नौ बजे मुकेश की विधवा, बच्चे और ड्राइवर के सामने मुझ झूठे सिद्ध हो रहे आदमी को चक्कर खाकर गिर जाने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा दीखता था। ड्राइवर रावत ने हैरानी से कहा कि आपको गलत याद है, यह गांव नहीं कोई और हैं। खीझकर पूछा कि कहां चलें आये, वापस चलना हो तो बताइये नहीं तो मैं जाता हूं ।
मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसकती नजर आयी ,तब तक स्व मुकेश के बेटे ने कहा कि जिस मुकेश को आपने पढ़ाया था वह कैसे थे ? मैंने कहा कि 16-17 साल को गोरा चिट्टा लम्बा पतला सा लडका था, हिम्मत, हौसला, समझ सबमें आगे था । ओऽऽ जी लगता है आप मुक्की चाचा को पढ़ाये होंगे उनने एकेश्वर से इंटर पास किया था । वह तो पौड़ी में रहने लगे हैं वहीं टीचर हैं ।
उसने कहीं से नम्बर लेकर मोबाइल पर काल लगाया और फिर मुकेश से बात हुई, तब जाकर मेरी समस्या का समाधान हुआ।
मुकेश ने मेरी आवाज सुनते ही बडे उत्साह से ,मेरा परिचय लिए बिना मुझे पहचान लिया और बताने लगा कि मैं कब बग्याली आया, कहां रुका, ज्वाल्पा देवी दर्शन आदि भ्रमण सहित सभी उपाख्यान बता डाले। फिर उसने रिश्ते की भाभी और भतीजे को मेरे आतिथ्य के निर्देश दिये । दिव्य आतिथ्य यानी सुस्वादु शाकाहारी भोजन और धूप में सुखाये ताजगी भरा स्वच्छ गद्दा और नई रजाई में सुबह कब हुई इसका पता गौरैय्यों के सामूहिक गलाफाड़ चोंचों के साथ हुई।
फिर सुबह दिवंगत मुकेश के बेटे और वर्तमान मुकेश के भतीजे ने सुबह मुझे एकेश्वर में भूगोल के प्रवक्ता रहे पण्डित गणेश प्रसाद धस्माणा जी से मिलाया , मैं चकित रह गया वयोवृद्ध 92 वर्षीय गणेश जी से मिल कर , वह अभी जीवित मिले जिनको मैंने मान लिया था कि अब कहां बचे होंगे इस क्षणभंगुर जीवन चक्र के संसार में। पर दाद देनी पड़ेगी पहाड़ की जलवायु को जहां की हवा व पानी में प्राण ही प्राण है ।
एक घंटे तक हम दोनों सहकर्मी विस्मय अविश्वास के साथ एक दूसरे से बतियाते रहे स्मरण करते रहे बायोलोजी वाले अग्रवाल को, केमिस्ट्री वाले गिरीश चन्द्र यादव गंज डुंडवारा निवासी को ,मैथ्स वाले आई बी सिंह को , प्रिंसिपल देवेन्द्र सहाय शर्मा को , बडोला बडे बाबू को , पुरुषोत्तम धस्माणा कपड़े वाले को । मेरे और उनके लिए भी , कल्पनातीत था जो अब प्रत्यक्ष हो रहा था, सुसुप्त स्मृतियां स्वरूपायित हो चुकीं थी , हम डूबे थे इस अशोच्य अकल्पनीय भेंट पर । फिर मुझे याद आया कि आज ही ऋषिकेश पहुंचना है तो अभी आठ बजे सुबह ही यहां से निकलना होगा, सो, सबको छोड़ वहां से चल निकला और शाम को ऋषिकेश में गंगा आरती में शामिल हो गया।
* लेखक दिनेश कुमार गर्ग, सूचना विभाग उत्तर प्रदेश के उप निदेशक रहे हैं ।
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