भारत में आजादी के पहले से ही होते रहे हैं किसान आंदोलन
किसान आंदोलन का इतिहास
देश में पिछले साल से चल रहा किसान आंदोलन धीरे-धीरे बड़ा रूप लेता जा रहा है. तीन नए कृषि कानूनों का विरोध करने से शुरू हुआ किसानों का यह आंदोलन अब चुनावी राजनीति में दबाव गुट या प्रेशर ग्रुप की तरह भूमिका निभाता दिख रहा है. यही नहीं, इन दिनों उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार के लिए तो मानो यह गले की हड्डी बन चुका है. संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले देश भर के किसान अपने आंदोलन के बल पर अब विपक्ष की भूमिका में नजर आ रहे हैं. लखीमपुर खीरी हत्या मामले के बाद तो इन्हें जनता का साथ भी मिलने लगा है.
-सुषमाश्री
तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन करते किसानों को पिछले साल से ही हम बारीकी से देख रहे हैं. किसानों के इस आंदोलन में उन्हें एसी कमरों में रहते और बड़ी-बड़ी गाड़ियों के साथ यहां से वहां जाते देखा गया. बडे बडे पतीलों में उन्हें एक से एक चीजें पकाते और खाते पीते भी देखा गया. लेकिन किसानों का आंदोलन हमेशा से ऐसा नहीं था. देश में जब पहली बार किसानों ने आंदोलनस्वरूप अपना विरोध दर्ज किया था, तब हालात जुदा थे.
देश में आजादी के पहले और आजादी के बाद किसानों के कई ऐसे आंदोलन हुए, जिसने यहां के हुक्मरानों की चूलें तक हिला कर रख दीं. खासकर, यदि हम आजादी के पहले की बात करें, तो भारत में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आंदोलन की शुरुआत चंपारण के नीलहा किसान और गुजरात के खेड़ा किसानों की समस्याओं से हुई. एक तरह से देखेंगे, तो बिहार के चंपारण के नीलहा आंदोलन से ही महात्मा गांधी का भारत की आजादी की लड़ाई में पदार्पण भी हुआ.
भारत के स्वाधीनता आंदोलन में जिन लोगों ने शीर्ष स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, उनमें आदिवासियों, जनजातियों और किसानों का योगदान अहम रहा. आजादी से पहले किसानों ने अपनी मांगों के समर्थन में जो आंदोलन किए, वे गांधीजी के प्रभाव के कारण हिंसा और बर्बादी से भरे नहीं होते थे, लेकिन अब आजादी के बाद किसानों के नाम पर जो आंदोलन हो रहे हैं, हिंसा और राजनीति से ज्यादा प्रेरित दिखाई देते हैं.
ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीतियाँ ज़मींदारों और साहूकारों के पक्ष में थीं लेकिन वे किसानों का शोषण करती थीं. इस अन्याय के खिलाफ किसानों ने कई अवसरों पर विद्रोह भी किया. देश में नीलहा किसानों का चंपारण सत्याग्रह, पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, खेड़ा आंदोलन और बारदोली आंदोलन का नेतृत्व महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे मूर्धन्य नेताओं ने किया.
भारत में 1859 से किसानों के आंदोलन की हुई शुरुआत
अगर हम बात करें भारत में किसान आंदोलनों के शुरुआत की, तो पाएंगे कि उनके आंदोलन या विद्रोह की शुरुआत सन् 1859 से हुई थी. भारत हमेशा से ही कृषि प्रधान देश रहा है. यही वजह है कि अंग्रेजों की नीतियों से सबसे ज्यादा प्रभावित भी किसान ही हुए. आज नहीं, आजादी के पहले भी कृषि नीतियों ने ही किसान आंदोलनों की नींव डाली.
19वीं शताब्दी के कृषक आंदोलन
वर्ष 1857 के सिपाही विद्रोह के विफल होने के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने ही संभाला, क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन उनके शोषण से ही उपजे थे. भारत में जितने भी किसान आंदोलन हुए, उनमें से ज्यादातर अंग्रेजों या फिर देश के हुक्मरानों के खिलाफ हुए. उन आंदोलनों ने शासन की चूलें तक हिला दीं.
आजादी के पहले देश में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों ने भी किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों का सबसे बड़ा संघर्ष, पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को प्रमुखता से प्रकाशित किया.
वर्ष 1858 और वर्ष 1914 के बीच की अवधि में किसान आंदोलनों की प्रवृत्ति वर्ष 1914 के बाद के आंदोलनों के विपरीत, स्थानीयकृत, असंबद्ध और विशेष शिकायतों तक सीमित थी.
आंदोलनों का कारण
किसान अत्याचार
ज़मींदारी क्षेत्रों में किसानों को उच्च लगान, अवैध करारोपण, मनमानी बेदखली और अवैतनिक श्रम का सामना करना पड़ा. इसके अलावा सरकार ने भारी भू-राजस्व भी लगाया.
भारतीय उद्योगों को बड़े पैमाने पर नुकसान
आंदोलनों का उदय तब हुआ जब ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप पारंपरिक हस्तशिल्प और अन्य छोटे उद्योगों का दमन हुआ, जिससे स्वामित्व में परिवर्तन हुआ. इससे किसानों पर कृषि भूमि का अत्यधिक बोझ एवं कर्ज बढ़ा और किसानों की गरीबी में वृद्धि हुई.
प्रतिकूल नीतियाँ
19वीं शताब्दी के किसान आंदोलन (गांधी-पूर्व चरण):
नील विद्रोह (1859-62):
- अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिये यूरोपीय बागान मालिकों ने किसानों को खाद्य फसलों के बजाय नील की खेती करने के लिये बाध्य किया.
- नील की खेती से किसान असंतुष्ट थे क्योंकि नील की खेती के लिये कम कीमतों की पेशकश की गई.
- नील लाभदायक नहीं था.
- नील की खेती से भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है.
- व्यापारियों और बिचौलियों के कारण किसानों को नुकसान उठाना पड़ा. परिणामस्वरूप उन्होंने बंगाल में नील की खेती न करने के लिये आंदोलन शुरू कर दिया.
- उन्हें प्रेस और मिशनरियों का समर्थन प्राप्त था.
- बंगाली पत्रकार हरीश चंद्र मुखर्जी ने अपने अखबार ‘द हिंदू पैट्रियट’ में बंगाल के किसानों की दुर्दशा का वर्णन किया.
- बंगाली लेखक और नाटककार दीनबंधु मित्रा ने अपने नाटक ‘नील दर्पण’ में नील की खेती करने वाले भारतीय किसानों के साथ किये जाने वाले व्यवहार का मार्मिक प्रस्तुतिकरण किया है. यह पहली बार वर्ष 1860 में प्रकाशित हुआ था.
- उनके नाटक ने एक बड़ा विवाद खड़ा कर दिया, जिसे बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीयों के बीच आंदोलन को नियंत्रित करने के लिये प्रतिबंधित कर दिया था.
- सरकार ने एक नील आयोग नियुक्त किया और नवंबर 1860 में एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि रैयतों को नील की खेती के लिये मजबूर करना अवैध था. यह किसानों की जीत का प्रतीक था.
छापामार आंदोलन को दिया बढ़ावा
देश में आंदोलनकारी किसानों ने छापामार आंदोलन को तवज्जो दिया. 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को देसी रियासतों की मदद से अंग्रेजों द्वारा कुचलने के बाद विरोध की राख से किसान आंदोलन की ज्वाला धधक उठी. इन्हीं में पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह और मोपला विद्रोह प्रमुख किसान आंदोलन शामिल हैं.
पाबना आंदोलन (1870-80):
- पूर्वी बंगाल के बड़े हिस्से में ज़मींदार, गरीब किसानों से अक्सर बढ़ाए गए लगान और भूमि करों को जबरदस्ती वसूलते थे.
- वर्ष 1859 के अधिनियम X के अंतर्गत किसानों को अपनी भूमि पर अधिभोग के अधिकार (Occupancy Right) से भी रोका गया.
- मई 1873 में पटना (पूर्वी बंगाल) के पाबना ज़िले के यूसुफशाही परगना में एक कृषि लीग का गठन किया गया.
- इनके द्वारा हड़तालें आयोजित की गईं, धन जुटाया गया जिससे संघर्ष पूरे पटना और पूर्वी बंगाल के अन्य ज़िलों में फैल गया.
- यह आंदोलन मुख्यतः एक कानूनी लड़ाई थी लेकिन कुछ जगहों पर हिंसा भी हुई.
- यह लड़ाई वर्ष 1885 तक जारी रही लेकिन जब सरकार ने बंगाल काश्तकारी अधिनियम (Bengal Tenancy Act) द्वारा अधिभोग अधिकारों में वृद्धि कर दी तब यह खत्म हो गई.
- इस संघर्ष को बंकिम चंद्र चटर्जी, आर.सी. दत्त और सुरेंद्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में इंडियन एसोसिएशन का समर्थन प्राप्त था.
दक्कन का किसान आंदोलन
बता दें कि आजादी के पहले का किसानों का यह आंदोलन एक-दो स्थानों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि देश के कई भागों में पसर गया. दक्षिण भारत के दक्कन से फैली यह आग महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर समेत देश के कई हिस्सों में फैल गई. इसका एकमात्र कारण किसानों पर साहूकारों का शोषण था. वर्ष 1874 के दिसंबर में एक सूदखोर कालूराम ने किसान बाबा साहिब देशमुख के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली. इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया. इन साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत वर्ष 1874 में शिरूर तालुका के करडाह गांव से हुई.
दक्कन विद्रोह (1875):
- दक्कन के किसान विद्रोह को मुख्य रूप से मारवाड़ी और गुजराती साहूकारों की ज़्यादतियों के खिलाफ किया गया था.
- रैयतवाड़ी व्यवस्था के अंतर्गत रैयतों को भारी कराधान का सामना करना पड़ा. वर्ष 1867 में भू-राजस्व में भी 50% की वृद्धि की गई.
- सामाजिक बहिष्कार: वर्ष 1874 में रैयतों ने साहूकारों के खिलाफ एक सामाजिक बहिष्कार आंदोलन का आयोजन किया.
- उन्होंने साहूकारों की दुकानों से समान खरीदने और खेतों में खेती करने से इनकार कर दिया.
- नाइयों, धोबी और मोची ने उनकी सेवा करने से इनकार कर दिया.
- यह सामाजिक बहिष्कार पूना, अहमदनगर, सोलापुर और सतारा के गाँवों में तेज़ी से फैल गया. साहूकारों के घरों एवं दुकानों पर हमलों के साथ कृषि विद्रोहों में बदल गया.
- सरकार आंदोलन को दबाने में सफल रही. सुलह के उपाय के रूप में दक्कन कृषक राहत अधिनियम (Deccan Agriculturists Relief Act), 1879 में पारित किया गया.
रामोसी किसानों का आंदोलन:
महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रामोसी किसानों ने जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया. इसी तरह, आंध्रप्रदेश में सीताराम राजू के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ, जो सन् 1879 से लेकर सन् 1920-22 तक छिटपुट ढंग से चलता रहा.
कूका विद्रोह:
कृषि संबंधी समस्याओं के खिलाफ अंग्रेज सरकार से लड़ने के लिए बनाए गए कूका संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे. 1872 में इनके शिष्य बाबा रामसिंह ने अंग्रेजों का कड़ाई से सामना किया. बाद में उन्हें कैद कर रंगून भेज दिया गया, जहां पर 1885 में उनकी मौत हो गई.
20वीं सदी के किसान आंदोलन (गांधीवादी चरण)
झारखंड का टाना भगत आंदोलन:
विभाजित बिहार के झारखंड में भी आजादी के दौरान टाना भगत ने 1914 में आंदोलन की शुरुआत की थी. यह आंदोलन लगान की ऊंची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध था. इस आंदोलन के मुखिया जतरा टाना भगत थे, जो इस आंदोलन के साथ प्रमुखता से जुड़े थे. मुंडा या मुंडारी आंदोलन की समाप्ति के करीब 13 साल बाद टाना भगत आन्दोलन शुरू हुआ. यह ऐसा धार्मिक आंदोनलन था, जिसके राजनीतिक लक्ष्य थे. यह आदिवासी जनता को संगठित करने के लिए नए ‘पंथ’ के निर्माण से जुड़ा आंदोलन था. यह एक तरह से बिरसा मुंडा के आंदोलन का ही विस्तार था.
चंपारण सत्याग्रह (1917):
बिहार के चंपारण ज़िले में नील के बागानों में यूरोपीय बागान मालिकों द्वारा किसानों का अत्यधिक उत्पीड़न किया जाता था और उन्हें अपनी ज़मीन के कम-से-कम 3/20वें हिस्से पर नील उगाने तथा बागान मालिकों द्वारा निर्धारित कीमतों पर नील बेचने के लिये मज़बूर किया जाता था. वर्ष 1917 में महात्मा गांधी ने चंपारण पहुँचकर किसानों की स्थिति की विस्तृत जाँच की.
उन्होंने चंपारण छोड़ने के ज़िला अधिकारी के आदेश की अवहेलना की. सरकार ने जून 1917 में एक जाँच समिति (गांधीजी भी इसके सदस्य थे) नियुक्त की. चंपारण कृषि अधिनियम (Champaran Agrarian Act), 1918 के अधिनियमन ने काश्तकारों को नील बागान मालिकों द्वारा लगाए गए विशेष नियमों से मुक्त कर दिया.
खेड़ा सत्याग्रह (1918):
इस सत्याग्रह को मुख्य रूप से सरकार के खिलाफ शुरू किया गया था. वर्ष 1918 में गुजरात के खेड़ा ज़िले में फसलें नष्ट हो गईं, लेकिन सरकार ने भू-राजस्व माफ करने से इनकार कर दिया और इसके पूर्ण संग्रह पर ज़ोर दिया. गांधीजी ने सरदार वल्लभ भाई पटेल के साथ किसानों का समर्थन किया और उन्हें सलाह दी कि जब तक उनकी मांग पूरी नहीं हो जाती, तब तक वे राजस्व का भुगतान रोक दें. यह सत्याग्रह जून 1918 तक चला. अंततः सरकार ने किसानों की मांगों को मान लिया.
उत्तर प्रदेश में किसान का एका आंदोलन
होमरूल लीग के कार्यकताओं के प्रयास तथा मदन मोहन मालवीय के दिशा-निर्देश में फरवरी 1918 में उत्तर प्रदेश में ‘किसान सभा’ का गठन किया गया. वर्ष 1919 के अंतिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आया. इस संगठन को जवाहरलाल नेहरू ने अपने सहयोग से शक्ति प्रदान की. उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर जिलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने ‘एका आंदोलन’ नामक आंदोलन चलाया.
किसान संगठनों का उदय:
वर्ष 1918 के दौरान गांधी के नेतृत्व में खेड़ा आंदोलन की शुरुआत की गई. ठीक इसके बाद 1922 में ‘मेड़ता बंधुओं’ (कल्याणजी तथा कुंवरजी) के सहयोग से बारदोली आंदोलन शुरू हुआ. हालांकि, इस सत्याग्रह का नेतृत्व सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया. लेकिन, अंग्रेजी हुक्मरानों की चूलें हिलाने वाला सबसे अधिक प्रभावशाली किसानों का आंदोलन नीलहा किसानों का चंपारण सत्याग्रह रहा.
मोपला विद्रोह (1921):
केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला किसानों द्वारा 1920 में विद्रोह किया गया. शुरुआत में यह विद्रोह अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ था. महात्मा गांधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं ने इस आंदोलन में अपना सहयोग दिया. इस आंदोलन के मुख्य नेता के रूप में अली मुसलियार उभरकर सामने आए. 1920 में इस आंदोलन ने हिन्दू-मुस्लिमों के बीच सांप्रदायिक हिंसा का रूप ले लिया और जल्द ही यह आंदोलन अंग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया.
मोपला मालाबार क्षेत्र में रहने वाले मुस्लिम किरायेदार थे, जहाँ अधिकांश ज़मींदार हिंदू थे. उनकी प्रमुख शिकायतें कार्यकाल की असुरक्षा, उच्च भूमिकर, नए शुल्क और अन्य दमनकारी वसूली थीं.
मोपला आंदोलन का विलय खिलाफत आंदोलन (Khilafat Agitation) में हो गया. महात्मा गांधी, शौकत अली और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने मोपला सभाओं को संबोधित किया. मोपलाओं द्वारा कई हिंदुओं को ब्रिटिश अधिकारियों की मदद करते देखा गया था.
सरकार विरोधी और जमींदार विरोधी आंदोलन ने सांप्रदायिक रंग ले लिया. सांप्रदायिकता ने मोपला को खिलाफत और असहयोग आंदोलन से अलग कर दिया. दिसंबर 1921 तक आंदोलन समाप्त कर दिया गया था.
बारदोली सत्याग्रह (1928):
ब्रिटिश सरकार द्वारा गुजरात के बारदोली ज़िले में भू-राजस्व में 30% की वृद्धि करने के कारण वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में बारदोली के किसानों द्वारा एक राजस्व न देने संबंधी आंदोलन का आयोजन किया गया.
बारदोली में ही एक महिला ने वल्लभ भाई पटेल को ‘सरदार’ की उपाधि दी थी. बड़े पैमाने पर मवेशियों और ज़मीन की कुर्की द्वारा आंदोलन को दबाने के अंग्रेज़ों के असफल प्रयासों के परिणामस्वरूप एक जाँच समिति की नियुक्ति हुई. जाँच इस निष्कर्ष पर पहुँची कि वृद्धि अनुचित थी और कर वृद्धि को घटाकर 6.03% कर दिया गया.
देखा जाए तो मुख्य रूप से वर्ष 1920 से वर्ष 1940 के बीच कई किसान संगठनों का उदय हुआ. बिहार प्रांतीय किसान सभा (वर्ष 1929) और वर्ष 1936 में स्थापित अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) प्रथम किसान संगठन थे.
वर्ष 1936 में काॅन्ग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में सहजानंद की अध्यक्षता में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन किया गया था. बाद में इसने एक किसान घोषणापत्र जारी किया जिसमें सभी काश्तकारों के लिये ज़मींदारी और अधिभोग अधिकारों को समाप्त करने की मांग की गई थी.
आंदोलन का उद्देश्य:
इन आंदोलनों का उद्देश्य लगभग पूरी तरह से आर्थिक स्वरूप पर केंद्रित था. चंपारण, खेड़ा और बाद में बारदोली आंदोलन से शुरू होकर उपनिवेशवाद के खिलाफ व्यापक संघर्ष में किसानों की भारी उपस्थिति दर्ज की गई.
नेतृत्त्व:
इन विद्रोहों का नेतृत्त्व कृषक वर्ग ने ही किया था. आंदोलनों का नेतृत्व कॉन्ग्रेस और कम्युनिस्ट नेताओं ने किया था.
आंदोलनों की सीमा:
क्षेत्रीय पहुँच एक विशेष स्थानीय क्षेत्र तक सीमित थी. अखिल भारतीय आंदोलन. आंदोलनों का मुख्य रूप कृषक सम्मेलनों और बैठकों का आयोजन था.
उपनिवेशवाद की समझ:
विशिष्ट और सीमित उद्देश्यों और विशेष शिकायतों के निवारण के लिये निर्देशित. उपनिवेशवाद इन आंदोलनों का लक्ष्य नहीं था. किसानों में उपनिवेशवाद विरोधी चेतना का उदय हुआ.
औपचारिक संगठन:
कोई औपचारिक संगठन नहीं. इनके कारण आंदोलन एक अल्पकालिक घटना बन गया. ग्रामीण भारत में किसानों के स्वतंत्र वर्ग संगठनों का उदय. अखिल भारतीय किसान सभा का गठन वर्ष 1936 में हुआ था.
आंदोलनों का महत्त्व
भारतीयों में जागरूकता:
हालाँकि इन विद्रोहों का उद्देश्य भारत से ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकना नहीं था, लेकिन उन्होंने भारतीयों में जागरूकता पैदा की. किसानों ने अपने कानूनी अधिकारों के बारे में जागरूकता विकसित की.
अन्य विद्रोहों को प्रेरित करना:
उन्होंने शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ संगठित होने तथा लड़ने की आवश्यकता महसूस की. इन विद्रोहों ने पंजाब में सिख युद्धों और अंत में 1857 के विद्रोह जैसे कई अन्य विद्रोहों के लिये ज़मीन तैयार की.
किसानों के बीच एकता:
किसानों में गैर-भेदभाव और साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की सर्वव्यापी प्रकृति के कारण किसान आंदोलन भूमिहीन मज़दूरों एवं सामंतवाद-विरोधी किसानों के सभी वर्गों को एकजुट करने में सक्षम रहा.
किसानों की आवाज़ सुनी गई:
अपनी मांगों के लिये सीधे तौर पर लड़ने वाले किसानों के कारण उनकी आवाज़ सुनी गई. नील विद्रोह, बारदोली सत्याग्रह, पाबना आंदोलन और दक्कन दंगों में किसानों की मांगों को सुना गया. असहयोग आंदोलन के दौरान किसानों की मांगों को सुनने के लिये विभिन्न किसान सभाओं का गठन.
राष्ट्रवाद का विकास:
अहिंसा की विचारधारा ने आंदोलन में भाग लेने वाले किसानों को बहुत ताकत दी थी. इस आंदोलन ने राष्ट्रवाद के विकास में भी योगदान दिया.
स्वतंत्रता के बाद के सुधारों को प्रोत्साहित किया गया:
इन आंदोलनों ने स्वतंत्रता के बाद के कृषि सुधारों के लिये एक आधार तैयार किया, उदाहरण के लिये ‘ज़मींदारी का उन्मूलन’. उन्होंने ज़मींदार वर्ग की शक्ति को नष्ट कर दिया, इस प्रकार कृषि संरचना में परिवर्तन किया गया.
यह लेख दृष्टि आईएएस और प्रभात खबर अखबार में प्रकाशित लेखों को मिलाकर तैयार किया गया है, जिसमें भारत में किसान आंदोलन का इतिहास पर विस्तार से वर्णन किया गया है.