इतिहासकारो के इतिहासकार लालबहादुर वर्मा नहीं रहे , उनका लिखा इतिहास नहीं मर सकता
पापा नहीं रहे…( डॉ. लाल बहादुर वर्मा )
17 मई 2021 की भोर जगने के कुछ देर बाद कामरेड सत्यम वर्मा के एक लाइन के इस फेसबुक पोस्ट के पहले तीन शब्द पढते ही सभी की तरह समझ गया कौन नहीं रहे. तत्काल समझ नहीं सका उन्होने अपने पिता का नाम कोष्ठक में क्यो डाल दिया. वह भारत की अंग्रेजी , हिंदी और उर्दू की एकमेव त्रिभाषी न्यूज एजेंसी, यूनाईटेड न्यूज ओफ इंडिया (यूएनआई) में हमारे पत्रकार सहयोगी ही नही उसके ट्रेड यूनियन आंदोलनो में और दिल्ली , लखनऊ और अन्यत्र भी सामाजिक सरोकार के अनेक जनसंघषो में भी कामरेड इन आर्म्स रहे हैं.
पिता की मृत्यु पर पुत्र के दुख को कोई भी समझ सकता है. हम कुछ ज्यादा समझते है. वे हमारे पिता तो नहीं थे. पर इतिहास के गुरु स्वरूप थे. भारतीय समाज में गुरु का दर्जा शायद पिता से भी बडा होता है.
उनका देहरादून के एक अस्पताल में कोविड संक्रमण का उपचार चल रहा था। कोरोना से ठीक होने के बाद उन्हे किडनी की पुरानी बीमारी ने घेर लिया. रविवार रात उनकी डायलसिस होनी थी जो किसी वजह से नहीं हो सकी. देर रात उनका निधन हो गया।
सत्यम जी से मिली खबर के कुछ देर बाद मीडिया विजिल के संस्थापक सम्पादक डाक्टर पंकज श्रीवास्तव के फेसबुक पोस्ट पर नजर पडी. उसमे लिखा था: नहीं रहे गुरुवर प्रो.लाल बहादुर वर्मा….! बीती रात साढ़े तीन बजे दिल दग़ा दे गया। कई दिनों से देहरादून के एक अस्पताल में कोविड से जूझ रहे थे। अभी कुछ और लिखना मुश्किल है। पर, सफ़र जारी रहेगा सर, वादा है आपसे
व्यक्तिगत संस्मरण
दिवंगत लालबहादुर वर्मा से आखरी मुलाकात 2018 की एक शाम नई दिल्ली में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में हुई थी जहाँ उन्हे पंकज श्रीवास्तव साथ लाए थे. हमारी उनसे पहले भी एक बार 1998 में लखनऊ में कलाकर्मी साथी आदियोग और अलका प्रभाकर के घर हुई थी जहाँ उन्हे समकालीन तीसरी दुनिया के सम्पादक आनंद स्वरूप वर्मा वैकल्पिक मीडिया पर दोनो के नये अभियान के सिलसिले मे लाये थे. हमने उस वैकल्पिक मीडिया अभियान का जिक्र भारत की नरेंद्र मोदी सरकार के बनाये नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में देश भर में चले जबर्दस्त जन आंदोलन के दौरान हिंदी मासिक, समयांतर में ‘ पीपुल्स मीडिया की जरुरत “ शीर्षक अपने आलेख में बहुत विस्तार से किया है.
कृपया इसे भी पढ़ें
रेड गार्ड्स
इतिहासकारो के इन अवामी इतिहासकार के साथ पंकज श्रीवास्तव के प्रेस क्लब में करीब एक घंटे की बातचीत के बारे में ठीक से कभी लिख नहीं सका. आज भी नहीं लिख सके तो कब लिखेंगे वो बाते जो इतिहास की ही बात है ? उस भेंट में बातों बातों में समकालीन इतिहास की परतें खुलती गईं.
हमने कहा : हम सफदर हाशमी की निगमबोध घाट के इलेक्ट्रिक क्रिमेटोरियम में अंत्येष्टि के लिए नई दिल्ली के 9 रफी मार्ग स्थित यूएनआई मुख्यालय के बाउंड्री वाल से लगे वीपी हाउस परिसर से रवाना होने वाले थे.अचानक लाल लिबास में नजर आए लोगों को देख हमने साथ पैदल चलने आये साहित्यकार भीष्म साहनी जी (अब दिवंगत) से जब पूछा ये कौन है ? भीष्म साहनी जी का जवाब मिला: रेड गार्ड्स हैं. हमने भी हिंदुस्तान में खुले आम पहली बार इन्हे देखा है.
इतिहासकारो के अवामी इतिहासकार लालबहादुर वर्मा ने बताया : रेड गार्ड्स के भारत में सडक पर उतरने का वो पहली बार ही नहीं बल्कि अभी तक का आखरी बार का भी मौका था.
अध्ययन और अध्यापन
लाल बहादुर वर्मा ने गोरखपुर विश्वविद्यालय और मणिपुर विश्वविद्यालय में पढाने के बाद 1990 से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन शुरू किया था। वह सेवानिवृत्त होने के उपरांत स्थाई तौर पर रहने 2018 में देहरादून जा बसे. वे उन अवामी इतिहासकारो में अग्रणी हैं जिनकी लिखी पुस्तकें भारत के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं
डा. लालबहादुर वर्मा 10 जनवरी 1938 को बिहार के छपरा जिले में पैदा हुए थे. उन्होने 1953 में गोरखपुर स्कूली पढाई और 1957 में स्नातक की पढ़ाई पूरी की. वे पढाई के दौरन छात्रसंघ अध्यक्ष भी रहे। उन्होने लखनउ विश्वविद्यालय से 1959 में स्नातकोत्तर की पढाई के बाद 1964 में गोरखपुर विश्वविद्यालय से पीएचडी पूरी की.
कृतियां
डा लालबहादुर वर्मा की हिंदी, अंग्रेजी और फ्रांसीसी में ‘ ‘अधूरी क्रांतियों का इतिहासबोध ’, ‘ इतिहास क्या, क्यों कैसे? ’, ‘ विश्व इतिहास ’, ‘ यूरोप का इतिहास ’, ‘भारत की जनकथा ’, ‘ मानव मुक्ति कथा ’, ‘ ज़िन्दगी ने एक दिन कहा था ’ और ‘ कांग्रेस के सौ साल ’ आदि करीब 18 पुस्तकें प्रकाशित हैं.उन्होने लोकप्रिय इतिहासकार एरिक होप्स बाम और समेत कई लेखको की अंग्रेजी और फ्रेंच पुस्तको का अनुवाद भी किया।
वे अलहदा ‘ इतिहासबोध ’ पत्रिका भी निकालते थे.
द अमेरिकंस
उन्होने अमेरिकी साहित्यकार हार्वड फास्ट के अंग्रेजी उपन्यास ‘ द अमेरिकंस ‘ का भी हिंदी अनुवाद किया. इस अनुदित कृति का प्रकाशन हरियाणा हिंदी अकादमी ने नई सहस्त्राब्दि के प्रारम्भ में किया. गौरतलब है कि हिंदी के महान लेखक प्रेमचंद के सुपुत्र अमृत राय ने हार्वड फास्ट की कई कृतियो का हिंदी अनुवाद किया है. पर वे भी ‘ द अमेरिकंस ‘ का अनुवाद नही कर सके. क्योंकि इस पर अमेरिका की सरकार के प्रतिबंध के कारण उसकी दुनिया भर में खरीद बिक्री बिल्कुल बंद थी. इंटरनेट के प्रचलन के बाद नई सहस्त्राब्दि मे द अमेरिकंस सीमित रूप से ही उपलब्ध हो सका.
उसके पहले कामरेड सत्यम वर्मा ने हमसे इस उपन्यास की किसी प्रति का जुगाड करने कहा था. हमारे आग्रह पर अमेरिका जा बसे बचपन के एक डाक्टर मित्र प्रणव मिश्रा ने किसी कबाडी से हासिल कर ये उपन्यास दिल्ली भिजवा दी. लेकिन वो रास्ते में ही गुम हो गई.
बहरहाल , इतिहासकारो के एक अवामी इतिहासकार ने अमेरिकी हुकुमत के प्रतिबंध को धता बताकर द अमेरिकंस का हिंदी अनुवाद करने के बाद ही आज अपना नश्वर शरीर त्यागा. वे तो हमारे बीच नहीं रहे. तय है उनकी लिखी किताबे नहीं मरेंगी .