हिन्दी, आर्य-द्रविड़ और राजनीति का सांस्कृतिक विमर्श

हृदय नारायण दीक्षित , पूर्व अध्यक्ष, उ प्र विधानसभा 

Hridaynarayan dikshit
हृदयनारायण दीक्षित

भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता का प्रतीक भी होती है। लेकिन तमिलनाडु में हिन्दी भाषा को लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है। राज्य के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने धमकी भरे लहजे में कहा, “हिन्दी हम पर न थोपी जाए, वरना इसका अंजाम बुरा होगा।” यह बयान न केवल भाषा को राजनीति का हथियार बनाने का प्रयास है, बल्कि यह राष्ट्रीय अखंडता को भी चुनौती देता है।

राजनीति का मूल उद्देश्य समाज को उत्कृष्ट बनाना होना चाहिए, न कि उसे विभाजित करना। लेकिन जब राजनीति सांस्कृतिक मर्यादाओं से परे जाकर भाषा और नस्ल के नाम पर समाज में तनाव पैदा करती है, तो यह राष्ट्र के लिए हानिकारक सिद्ध होती है।

तमिलनाडु सरकार ने भारतीय मुद्रा प्रतीक ‘₹’ को भी हटा दिया, जो एकता के लिए शुभ संकेत नहीं है।

आर्य-द्रविड़ विवाद: ऐतिहासिक सत्य और मिथक

आर्य-द्रविड़ का कृत्रिम विभाजन एक उपनिवेशवादी साजिश थी, जिसे भारत के विद्वानों ने बार-बार खारिज किया है।

डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने स्पष्ट रूप से कहा था, “आर्य भारत के ही मूल निवासी थे।” उन्होंने ऋग्वेद के संदर्भ में बताया कि आर्य कहीं बाहर से आए होते तो भारतीय नदियों और भूभागों को ‘माता’ के रूप में न पूजते।

विद्वान वी. एस. गुहा और सर आर्थर कीव ने भी स्पष्ट किया कि भारत की प्रजातिगत विविधता बाहरी प्रवास से नहीं, बल्कि आंतरिक विकास से बनी है।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के अनुसार, आर्य और द्रविड़ के बीच संघर्ष का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। उन्होंने उल्लेख किया कि मैक्समूलर ने सबसे पहले 1853 में ‘आर्य’ शब्द का उपयोग किया, लेकिन बाद में उन्होंने खुद स्वीकार किया कि यह केवल भाषा-संबंधी शब्द था, न कि नस्ल-संबंधी।

द्रविड़ संस्कृति और भारतीय एकता

पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा था कि भारतीय संस्कृति का विकास आर्य और द्रविड़ परंपराओं के मेल से हुआ। संस्कृत भाषा, जो भारतीय दर्शन और धर्म का आधार बनी, इसमें उत्तर और दक्षिण दोनों ने योगदान दिया।

भारतीय संस्कृति का उत्थान उत्तर-दक्षिण एकता से ही संभव हुआ। दक्षिण भारत के महान दार्शनिकों आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और डॉ. अब्दुल कलाम जैसे व्यक्तित्वों ने पूरे भारत पर अपनी अमिट छाप छोड़ी।

निष्कर्ष: भाषा और नस्ल की राजनीति से बचें

भाषा या नस्ल के नाम पर राजनीति करना राष्ट्र के लिए घातक है। उत्तर और दक्षिण भारत का द्वंद्व इतिहास में कभी नहीं रहा, बल्कि यह हालिया राजनीतिक प्रपंचों का परिणाम है।

भारतीय समाज की शक्ति उसकी एकता में है, न कि विभाजन में।

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