पहाड़ों का दर्द…..
सपने लिए ऊंची उड़ान भरने के वो सब मीठी सी नींद में सोए हुए थे,
किसी को हाथों में लगानी थी मेहंदी तो किसी ने बूढ़े बाबा का सहारा बनने के अरमान सजाए हुए थे।
सुबह आंख खुली तो अब बस तूफान के बाद की शांति थी,
रातभर सबने डर के मारे सहमे हुए गरज के साथ प्रलय की आवाज़ सुनी थी।
आज विकास की इस अंधी दौड़ में पहाड़ों को बेच किसी की हथेली नोटों की गड्डी से भरी हुई है ,
तो टूटी चूड़ियों के साथ कुछ लहूलुहान हथेलियों में कीचड़ भरा हुआ है।
अमीरी गरीबी के इस बढ़ते फासले में क्या किसी पर इन हत्याओं के इल्ज़ाम लगाया जाएगा,
सबको पता है कि दोष फ़िर निर्दोष प्रकृति के मत्थे मढ़ा जाएगा।
दूर आलीशान बंगलों में बैठे क्या इन पहाड़ों का दर्द समझेंगे वो तो फिर खुदा की तरह आसमां से इन खून की नदियों को देख वापस लौट जाएंगे।
अब क्या कभी हम देखेंगे कि कोई गौरा उनसे लड़ बैठी है,
नही क्योंकि हमने इन पहाड़ों को कब्रिस्तान बनने के लिए चुना है या सिर्फ़ सालों से डर के मारे यहां से भागते लोगों के पलायन के किस्सों को सुना है।
हिमांशु पहाड़ी।