गुलाबों – सिताबो, यानि मायाजाल
मीरा सिन्हा
गुलाबो -सिताबो। लखनऊ वासी होने के कारण बचपन में गुलाबो सिताबो कठपुतली का खेल बहुत देखा है . इसलिये फिल्म भी देख डाली . देख कर लगा यह फिल्म नहीं सम्पूर्ण मानव चरित्र का दिग्दर्शन है.
महाभारत के भांति जहाँ मनुष्य अंत समय तक अपने किसी भी मनोभाव लालच ईर्ष्या द्वेष स्वार्थ मक्कारी से दूर नही हो पाता है , एक खेल मानव के अन्दर निरंतर चलता रहता है जिसे जीतने के लिए वह षड्यंत्र के नये- नये ताने बाने बुनता है. तभी तो कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से जब विश्व जूझ रहा है, कल का कोई ठिकाना नहीं है, फिर भी व्यक्तिगत राजनीतिक स्वार्थों के चलते आरोपो- प्रत्यारोपो का दौर चल रहा है.
कहीं श्वेत अश्वेत की बयार है . तो कहीं सम्प्रदायिक आँधी है . कही जायदाद के लिए हत्या है. कहीं भ्रष्टाचार है. कही दुर्घटनाएं है. कही बेबसी लाचारी और भूख है .
अर्थवयवस्था पुरानी इमारत की तरह चरमरा गई है फिर भी हर किसी मे विश्व की महाशक्ति बनने की होड़ है. कही सीमा अतिक्रमण की समस्या है, तो कहीं सैन्य बल का दिखावा है. यहाँ तक कि हमेशा से मित्र रहा नेपाल भी हमारे कुछ क्षेत्रों को अपना बता रहा है .
संक्षेप मे एकजुट होकर कोरोना जैसी महामारी से अपने को बचाने के उपाय से भटक कर विश्व अनेक प्रकार की समस्याओ मे उलझा है . यही है मानव का या यूँ कहिये कि समाज का चारित्र जिसमे सब कुछ मकडजाल की तरह फँसा हुआ है .
शायद इसी को मायाजाल कहते हैं।