वैश्विक कार्बन उत्सर्जन और परिवहन क्षेत्र
‘ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट' की रिपोर्ट के अनुसार, भारत का कार्बन उत्सर्जन वर्ष 2018 में वैश्विक वृद्धि की तुलना में दोगुना से अधिक तेज़ी से आगे बढ़ा। अगस्त, 2021 में परिवहन क्षेत्र की डीकार्बोनाइजिंग के लिये एक सुसंगत रणनीति विकसित करने हेतु 'एनडीसी टीआईए' प्रोजेक्ट के एक अंग के रूप में ‘फोरम फॉर डीकार्बोनाइजिंग ट्रांसपोर्ट’ को लॉन्च किया गया है।
परिवहन क्षेत्र, जो कि सबसे बड़े वैश्विक कार्बन उत्सर्जक क्षेत्रों में से एक है, के उत्सर्जन को कम करने के लिये कोई विशेष प्रतिबद्धता ज़ाहिर नहीं की गई है। मध्य शताब्दी तक परिवहन क्षेत्र के ‘डीकार्बोनाइज़ेशन’ के लिये एक समग्र और एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता होगी।
वर्तमान समय में विश्व के सबसे बड़े संकटों में से एक जलवायु परिवर्तन के विषय में इतनी कम प्रगति क्यों हुई है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है? ‘आइस-कैप्स’ का पिघलना, बाढ़ और जानमाल की क्षति एक सामान्य परिदृश्य ही बन गया है और अरबों डॉलर की प्रतिबद्धताओं एवं तकनीकी नवाचारों के बावजूद इस दिशा में कोई महत्त्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई है।
परिवहन क्षेत्र, जो कि सबसे बड़े वैश्विक कार्बन उत्सर्जक क्षेत्रों में से एक है, के उत्सर्जन को कम करने के लिये कोई विशेष प्रतिबद्धता ज़ाहिर नहीं की गई है। मध्य शताब्दी तक परिवहन क्षेत्र के ‘डीकार्बोनाइज़ेशन’ के लिये एक समग्र और एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता होगी। स्वच्छ सड़क परिवहन के निर्माण के लिये प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना आवश्यक है, लेकिन इसे अन्य हस्तक्षेपों के साथ संयुक्त किया जाना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है।
वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित रखने और वर्ष 2050 तक कार्बन तटस्थता प्राप्त कर लेने के पेरिस समझौते के लक्ष्य सहित बेहद बुनियादी उद्देश्यों की पूर्ति भी वर्तमान में पहुँच से बाहर ही नज़र आती है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने चेतावनी दी है कि छह वर्ष पहले पेरिस समझौते के तहत किये गए वायदे की पूर्ति होती नहीं दिख रही और पृथ्वी 2.7 डिग्री सेल्सियस तापमान के ‘विनाशकारी मार्ग’ पर आगे बढ़ रही है।
परिवहन क्षेत्र कुल उत्सर्जन में एक चौथाई भाग का योगदान करता है, जिसमें से सड़क परिवहन उत्सर्जन के तीन-चौथाई भाग के लिये ज़िम्मेदार है। इनमें सबसे बड़ी हिस्सेदारी सवारी वाहनों की है, जो लगभग 45 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं। यदि यही स्थिति बनी रहती है तो वर्ष 2050 में वार्षिक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन वर्ष 2020 की तुलना में 90 प्रतिशत अधिक होगा।
भारत का परिवहन क्षेत्र देश के ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 12 प्रतिशत का योगदान करता है, जिसमें रेलवे का योगदान लगभग 4 प्रतिशत है। वर्ष 1990 के बाद से इन उत्सर्जनों में तीन गुना से अधिक की वृद्धि हुई है। नवीनतम आकलनों के अनुसार, परिवहन क्षेत्र सर्वाधिक तेज़ी से आगे बढ़ते उत्सर्जकों में से एक है।
‘ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट’ की रिपोर्ट के अनुसार, भारत का कार्बन उत्सर्जन वर्ष 2018 में वैश्विक वृद्धि की तुलना में दोगुना से अधिक तेज़ी से आगे बढ़ा। अगस्त, 2021 में परिवहन क्षेत्र की डीकार्बोनाइजिंग के लिये एक सुसंगत रणनीति विकसित करने हेतु ‘एनडीसी टीआईए’ प्रोजेक्ट के एक अंग के रूप में ‘फोरम फॉर डीकार्बोनाइजिंग ट्रांसपोर्ट’ को लॉन्च किया गया है।
भारतीय रेलवे ने भी घोषणा की कि वह वर्ष 2030 तक विश्व का पहला ‘शुद्ध-शून्य’ कार्बन उत्सर्जक बन जाने का लक्ष्य रखता है। नेशनल इलेक्ट्रिक मोबिलिटी मिशन प्लान के एक भाग के रूप में फेम-इंडिया योजना शुरू की गई है, जिसका मुख्य ज़ोर सब्सिडी उपलब्ध कराने के माध्यम से इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहित करने पर है।
पीएलआई योजना के तहत, उन्नत सेल केमिस्ट्री बैटरी स्टोरेज निर्माण के विकास के लिये लगभग 18,000 करोड़ रुपये स्वीकृत किये गए हैं। इन प्रोत्साहनों का उद्देश्य इलेक्ट्रिक वाहनों के स्वदेशी विकास को प्रोत्साहित करना है, ताकि उनकी आरंभिक लागत को कम किया जा सके।
विश्व के सबसे बड़े ऑटोमोबाइल उद्योग कार बाज़ारों और वाहन निर्माताओं (फॉक्सवैगन, बीएमडब्ल्यू, टोयोटा मोटर) की कापॅ 26 जलवायु शिखर सम्मेलन में जताई गई उत्सर्जन प्रतिबद्धता से संबद्ध होने की संभावना नज़र नहीं आ रही क्योंकि उनकी संबंधित सरकारें स्वयं इसके प्रति अनिच्छुक हैं।
दस सबसे बड़े ऑटोमोबाइल समूहों में से सात के पास वर्ष 2035 से पहले ऐसा करने की कोई योजना तक मौजूद नहीं है। ग्रीनपीस (एक गैर-सरकारी संगठन) के अनुसार, प्रतिबद्धताओं और कार्रवाइयों के एक विस्तृत मूल्यांकन से पता चलता है कि वाहन निर्माता कंपनियाँ (जो बाज़ार के 80 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करती हैं) इस दिशा में पर्याप्त कार्य नहीं कर रहे हैं।
दुनिया के तीन सबसे बड़े ऑटोमोबाइल बाज़ारों— अमेरिका, चीन और जापान, की सरकारों ने कोई प्रतिज्ञा नहीं की है। हालाँकि, भारत, ब्रिटेन, कनाडा, नीदरलैंड, नॉर्वे, पोलैंड और स्वीडन के साथ गठबंधन में शामिल हुआ है। इन प्रतिबद्धताओं से परहेज करने वाले ये तीन देश विश्व में जीवाश्म ईंधन दहन से होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में 50 प्रतिशत का योगदान करते हैं।
कई देश संयुक्त राष्ट्र के समक्ष अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की अंडर-रिपोर्टिंग करते हैं। यह अंतराल कम-से-कम 8.5 बिलियन टन से लेकर 13.3 बिलियन टन प्रति वर्ष तक का होता है, जो ग्रह के तापमान पर व्यापक प्रभाव डालने के लिये पर्याप्त है। इससे संकेत मिलता है कि समस्या का सही ढंग से मूल्यांकन तक नहीं किया जा रहा, और विश्व एक बदलते (या यहाँ तक कि पथभ्रष्ट) लक्ष्य का पीछा करने के निरंतर संकट का सामना कर रहा है, जो अब तक हो चुकी क्षति को कम करने में कोई योगदान ही नहीं कर सकेगा।
ग्रीनपीस के अनुसार, लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये वर्ष 2050 तक सड़क परिवहन को पूरी तरह से डीकार्बोनाइज़ करने की ज़रूरत है। यहाँ तक पहुँचने के लिये कंपनियों को अगले दशक में आंतरिक दहन इंजन वाहनों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त कर लेना होगा।
नीति-निर्माताओं का एक छोटा समूह तात्कालिक समस्याओं के लिये एक केंद्रित समाधान की तलाश में है। जो इस दिशा में प्रगति कर रहे हैं, उन्हें पर्याप्त धन प्राप्त नहीं हो रहा, न ही उन पर पर्याप्त ध्यान दिया जा रहा है। व्यापक या समग्र लक्ष्यों का समय अब बीत चुका है और अब आवश्यकता उन प्रकट परिणामों और लक्ष्यों की है, जो उन्हें वित्तपोषित करने के एक सुपरिभाषित तरीके के साथ विशिष्ट समस्याओं को संबोधित करें। सार्वजनिक पूँजी को निजी धन को प्राथमिकता क्षेत्रों की ओर निर्देशित करना चाहिये।
इसके साथ ही, इलेक्ट्रिक वाहनों के निर्माण और प्रचलन की राह में मौजूद समस्याओं पर विचार करना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। लागत, प्रौद्योगिकी, व्यापक पैमाने पर विनिर्माण या मुनाफा— वाहन निर्माताओं के समक्ष जो भी समस्या हो, उसका बेहतर नियंत्रण करना उपयुक्त आरंभिक कदम होगा।
भारत के पास अपने शहरी परिवहन क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने का एक बड़ा अवसर मौजूद है। मोटर वाहनों के इलेक्ट्रिक संस्करण के साथ-साथ पैदल यात्रा, साइकलिंग और सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देना देश के लिये उपयुक्त रणनीति साबित हो सकती है। पूरे भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों को सफल एवं कारगर बनाने तथा इसका लाभ उठाने के लिये विभिन्न हितधारकों हेतु एक अनुकूल पारितंत्र बनाने की आवश्यकता होगी।
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परिवहन नीतियों के निर्माण के लिये एक परिदृश्य आधारित मॉडलिंग दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण होगा। इस तरह के मॉडलिंग के माध्यम से सरकार यह आकलन कर सकती है कि ‘वन-साइज़-फिट्स-ऑल’ नीति निर्णय लागू करने के बजाय परिदृश्यों की एक व्यवहार्य श्रृंखला के माध्यम से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में किस प्रकार कमी लाई जाए। ऐसे साधनों और परिदृश्य निर्माण अभ्यासों का उपयोग कर एक ऐसा ढाँचा विकसित किया जा सकता है जो न केवल नीति निर्माताओं को व्यापक आँकड़े प्रदान करेगा, बल्कि विभिन्न नीति विकल्पों का परीक्षण करने और भविष्य के प्रभाव का अनुमान कर सकने की भी अनुमति देगा। इससे फिर देश को इष्टतम विकल्प का चयन कर सकने का अवसर प्राप्त होगा।
(लेखक परिचय: डॉ दीपक कोहली, संयुक्त सचिव, उत्तर प्रदेश शासन, 5/104, विपुल खंड, गोमती नगर लखनऊ – 226010 ( उत्तर प्रदेश)( मोबाइल – 9454410037))