गीता प्रवचन पांचवा अध्याय (86)
29. इसी न्याय से भगवान् ने बारहंवें अध्याय में निर्गुण की अपेक्षा सगुण को विशेष माना है। सगुण में सब इंद्रियों के लिए काम है, निर्गुण में ऐसा नहीं है। निर्गुण में हाथ बेकार, पाँव बेकार, आँख बेकार- सब इंद्रियाँ कर्मशून्य ही रहती हैं। साधक से यह सब नहीं सध सकता। परंतु सगुण में ऐसी बात नहीं है। आँखों से रूप देख सकते हैं, कानों से कीर्तन सुन सकते है, हाथों से पूजा कर सकते है, लोगों की सेवा कर सकते हैं। पाँवो से तीर्थयात्रा हो सकती हैं।
इस तरह सब इंद्रियों को काम देकर उनसे वैसा काम कराते हुए धीरे-धीरे उन्हें हरिमय बना देना सगुण में शक्य है। परंतु निर्गुण में सब बंद – जीभ बंद, कान बंद, हाथ-पैर बंद। यह सारा ‘बंदी’ प्रकार देखकर बेचारा साधक घबरा जाता है। फिर उसके चित्त में निर्गुण पैठेगा कैसे? वह यदि खामोश बैठा रहेगा, तो उसके चित्त में ऊटपटाँग विचार आने लगेंगे।
इंद्रियों का यह स्वभाव ही है कि उन्हें कहते हैं कि न करो, तो वे जरुर करेंगी। विज्ञापनों में क्या ऐसा नहीं होता? ऊपर लिखते हैं ‘मत पढ़ो’। तो पाठक मन में कहता है कि यह जो न पढ़ने को लिखा है, तो पहले इसी को पढ़ो। ‘मत पढ़ो’ कहना इसी उद्देश्य से होता हैं कि पाठक जरुर पढ़े। मनुष्य अवश्य ही उसे ध्यानपूर्वक पढ़ता हैं।
निर्गुण में मन भटकता रहेगा। सगुण भक्ति में ऐसी बात नहीं। वहाँ आरती है, पूजा है, सेवा है, भूततदया है, इंद्रियों के लिए वहाँ काम है। इन्हीं इंद्रियों को काम में लगाकर फिर मनसे कहो –“अब जाओ, जहाँ जी चाहे।” परंतु तब मन नहीं जायेगा, वहीं रमा रहेंगा; अनजाने ही एकाग्र हो जायेगा। परंतु यदि उसे जान-बुझकर एक स्थान पर बैठाना चाहोगे, तो वह भागा ही समझो। भिन्न-भिन्न इंद्रियों को उत्तम, सुंदर काम में लगा दो, फिर मन को ख़ुशी से भटकने के लिए कह दो। वह नहीं भटकेगा। उसे जाने की बिलकुल छुट्टी दे दो, तो वह कहेगा,- “लो, मैं यही बैठ गया।” यदि हमें हुक्म दिया कि “चुप बैठो” तो कहेगा -“ मैं यह चला।” क्रमश: