गीता प्रवचन पांचवा अध्याय-84
26. इसलिए भगवान् कहते है – एकं सांख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति| संन्यास और योग में जो एकरूपता देखेगा, उसी ने वास्तविक रहस्य को समझा है| एक न करके करता है और दूसरा करके भी नहीं करता | जो सचमुच श्रेष्ठ संन्यासी है, जिसकी सदैव समाधि लगी रहती है, जो बिलकुल निर्विकार है, ऐसे संन्यासी पुरुष को दस दिन हमारे बीच आकर रहने दो| कितना प्रकाश, कितनी स्फूर्ति उससे मिलेगी! अनेक वर्षो तक काम का ढेर लगाकर भी नहीं हुआ होगा, वह केवल उसके दर्शन से – अस्तित्वमात्र से – हो जायेगा | फोटो देखकर यदि मन में पावनता उत्पन्न होती है, मृत लोगों के चित्रों से यदि भक्ति, प्रेम और पवित्रता हृदय में उत्पन्न होती है, तो जीवित संन्यासी को देखने से पता नहीं कितनी प्रेरणा प्राप्त होगी ?
27. संन्यासी और योगी, दोनों भी लोकसंग्रह करते हैं | एक जगह बाहर से कर्मत्याग दिखायी दिया, तो भी उस कर्मत्याग में कर्म ठसाठस भरा हुआ है | उसमें अनंत स्फूर्ति भरी हुई है | ज्ञानी संन्यासी और ज्ञानी कर्मयोगी, दोनों एक ही सिंहासन पर बैठनेवाले है | संज्ञा भिन्न-भिन्न होनेपर भी अर्थ एक ही है | एक ही तत्त्व के ये दोनों पहलू या प्रकार हैं | यंत्र जब वेग से घूमता है, तो वह ऐसा दिखायी देता है मानो स्थिर है, घूम ही नहीं रहा | संन्यासी की भी स्थिति ऐसी ही होती है | उसकी शांति में से, स्थिरता में से अनंत शक्ति, अपार प्रेरणा मिलती है | महावीर, बुद्ध, निवृत्तिनाथ ऐसी ही विभूतियाँ थी | संन्यासी के सभी उद्योगों की दौड़ एक आसन पर आकर स्थिर हो जाये | तो फिर वह प्रचंड कर्म करता है | सारांश यह कि योगी ही संन्यासी है और संन्यासी ही योगी है | दोनों में कुछ भी भेद नहीं है | शब्द अलग-अलग हैं, पर अर्थ एक ही है | जैसे पत्थर के मानी पाषाण और पाषाण मानी पत्थर है, वैसे ही कर्मयोगी के मानी संन्यासी और संन्यासी के मानी कर्मयोगी है |