ट्रस्टीशिप का सिद्धांत – गांधी के शब्दों में

आर्थिक समानता अहिंसक स्वाधीनता की असली कुंजी है

ईश्वर सर्वशक्तिमान है। उसे कोई चीज जमा करके रखने की जरुरत नही। वह हर दिन सृष्टि करता है। इसलिये मनुष्य को भी सिद्धांतत: आजकी ही फिक्र करनी चाहिये और कलकी चिंतामें चीजें जमा करके नही रखनी चाहिये। अगर लोग आमतौरपर इस सच्चाईको अपने जीवनमें उतारे तो वह कानूनी बन जायेगी और ट्रस्टीशिप एक कानूनी संस्था हो जायेगी। मै चाहता हूं कि यह चीज दुनियाको हिंदुस्थान की एक देन बन जाये। फिर कोई शोषण नही होगा। 

हर चीज ईश्वर की है

बरसों पहले मेरा जो विश्वास था वही आज भी है कि हर चीज ईश्वर की है और ईश्वर के द्वारा मिलती है। इसलिये वह उसकी पूरी प्रजाके लिये है, किसी एक खास इंसान के लिये नही। जब इंसान के पास उसके मुनासिब हिस्सेसे ज्यादा होता है तो वह उस हिस्सेका प्रभुकी प्रजाके लिये ट्रस्टी बन जाता है। 

मै अर्थशास्त्र और नीति शास्त्र के बीच कोई सुस्पष्ट या अन्य प्रकारका भेद नही करता। वह अर्थशास्त्र अनैतिक और इसलिये पापयुक्त है जो किसी व्यक्ति अथवा राष्ट्र के नैतिक कल्याण को क्षति पहुंचाता हो। तद्नुसार वह अर्थशास्त्र पापयुक्त है जो यह अनुमति देता है कि एक देश दूसरे देश को लूट ले। शोषित श्रम द्वारा तैयार की गई वस्तुओं को खरीदना और उनका इस्तेमाल करना पापयुक्त है। 

जो अर्थशास्त्र नैतिक मूल्यों की अनदेखी अथवा उपेक्षा करता है, वह झूठा है। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में अहिंसा के नियम की प्रयुक्ति का अर्थ कम से कम इतना तो है ही कि अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य में नैतिक मूल्यों को एक विचारणीय तत्व माना जाये। 

किसी ने यह कभी भी नही कहां है कि मनुष्य को पीसनेवाली गरीबी से नैतिक अधःपतन के सिवा दूसरा कुछ घटित हो सकता है। हर मनुष्य को जिंदा रहने का हक है, इसलिए खुदका पोषण करनेका तथा जरुरतभर वस्त्र तथा मकान प्राप्त करने का भी हक है। इस सादी सी बात के लिये अर्थशास्त्रियों की या कानूनों की मदद की कोई जरुरत नहीं है। 

आर्थिक समानता अहिंसक स्वाधीनता की असली कुंजी है। आर्थिक समानता के लिये कार्य करने का मतलब है पूंजी और श्रम के सनातन संघर्ष को मिटा देना है। इसका अर्थ है, एक ओर तो उन मुठ्ठी भर धनवानों के स्तर को नीचा करना जिनके हाथ में राष्ट्र की अधिकांश संपदा केंद्रित है और दूसरी ओर आधापेट भोजन पर जीवन निर्वाह करनेवाले लाखों करोडों लोगों के स्तर को उपर उठाना। 

जबतक अमीरों और भूखे पेट रहने को मजबूर करोडों गरीब लोगोंके बीचका भयंकर अंतर कायम है तबतक अहिंसक सरकार बनाना स्पष्ट ही असंभव है। नई दिल्लीके प्रासादों और उनके निकट ही खडी गरीब मजदूरों की टूटी-फूटी झोंपडियोंके बीच जो भारी अंतर है वह स्वतंत्र भारत में एक दिन भी कायम नही रह सकेगा, क्योंकि उस भारत में तो जितनी सत्ता देशके अमीरसे अमीर लोगोंके पास होगी उतनी ही गरीबोंके पास भी होगी। यदि स्वेच्छासे संपत्ति का त्याग नही किया जाता और जो सत्ता संपत्तिसे प्राप्त होती है उसे खुशी-खुशी नही छोडा जाता तथा संपत्तिका उपयोग मिलजुलकर, सबकी भलाईके लिये नही किया जाता तो निश्चय ही इस देश में खूनी क्रांति आयेगी।

मेरे विचार में भारत और भारत ही क्यों सारी दुनिया का आर्थिक गठन ऐसा होना चाहिये कि उसमें किसी को रोटी कपडे की तंगी न रहे। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक व्यक्ति को जीवन निर्वाह के लिये पर्याप्त काम उपलब्ध होना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति को संतुलित भोजन, रहने को ठीक ठाक मकान, अपने बच्चों की शिक्षा के लिये सुविधाऐं और पर्याप्त चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध होनी चाहिये। 

मै अहिंसक तरीकेसे और घृणाके विरुद्ध प्रेम की शक्ति के प्रयोग द्वारा लोगों को अपने दृष्टिकोण से सहमत करके आर्थिक समानता स्थापित करुंगा। मै इस बातकी प्रतीक्षा नही करुंगा कि पहले सब लोग मेरे दृष्टिकोणके समर्थक बन जाये, बल्कि मै तो सीधे अपने साथ ही इसकी शुरुआत कर दूंगा। 

मै चाहता हूं कि वे लोग अपने लालच और स्वामित्व की भावना से उपर उठे और अपनी दौलत के बावजूद उस स्तर पर उतर आ जायें जिस पर पसीने की कमाई से पेट भरने वाला श्रमिक जीवन निर्वाह करता है। श्रमिक को यह समझना होगा कि धनवान व्यक्ति अपनी संपत्ति का स्वामी उससे भी कम है जितना कि वह अपनी संपत्ति अर्थात काम करने की शक्ति का स्वामी है। 

मै उन व्यक्तिओं को जो आज अपने आप को मालिक समझ रहे है, न्यासी के रुपमें काम करने के लिये आमंत्रित कर रहा हूं अर्थात यह आग्रह कर रहा हूं कि वे स्वयं को अपने अधिकार के बदौलत मालिक न समझे, बल्कि उनके अधिकार की बदौलत मालिक समझे जिनका उन्होंने शोषण किया है। 

पूंजी और श्रम में सामंजस्य

अगर मुझे सत्ता प्राप्त होगी तो मै पूंजीवादको तो अवश्य खत्म कर दूंगा, लेकिन पूंजीको नही। जाहिर है कि मै पूंजीपतियों को भी खत्म नही करुंगा। मेरा निश्चित मत है कि पूंजी और श्रम में सामंजस्य स्थापित करना बिल्कुल संभव है। 

अहिंसक पद्धति में हम पूंजीपति को नष्ट करने का प्रयास नही करते, बल्कि पूंजीवाद को समाप्त करने का प्रयास करते है। हम पूंजीपती से आग्रह करते है कि वह स्वयं को उन लोगों का न्यासी समझे जिनके उपर वह अपनी पूंजी के निर्माण, उसकी रक्षा और उसके संवर्धन के लिये निर्भर है। 

श्रमिक को भी उसके हृदय परिवर्तन के लिये प्रतिक्षा करने की आवश्यकता नही है। यदि पूंजी में शक्ति है तो श्रम में भी है। शक्ति का प्रयोग विनाश के लिये भी किया जा सकता है और सृजन के लिये भी। दोनों एक दूसरें पर निर्भर है। अपनी शक्ति का अहसास होते ही श्रमिक पूंजीपति का गुलाम होने के स्थानपर उसका सहभागीदार होने की स्थिति में आ जाता है। 

वर्ग संघर्ष

मै वर्ग संघर्ष को बल नही देना चाहता। मालिकोंको ट्रस्टी बन जाना चाहिये। हो सकता है फिर भी वे मालिक ही बने रहना पसंद करें। उस हालात में उनका विरोध करना और उनसे लडना पडेगा। तब हमारा हथियार सत्याग्रह होगा। हम वर्गहीन समाज चाहते हों, तब भी हमे गृहयुद्ध में नही फसना चाहिये। यह भरोसा रखना चाहिये कि अहिंसा वर्गहीन समाज ले आयेगी। 

वर्ग संघर्ष भारतकी मूल प्रकृतिके लिये विजातीय तत्व है और वह, सबके लिये मूल अधिकार और सबके लिये समान न्याय के व्यापक आधारपर, एक प्रकारका साम्यवाद विकसित कर सकती है। मेरी कल्पनाका रामराज्य राजा और रंक को एक से अधिकार देता है। आप यह यकीन कर सकते है कि मै अपनी पूरी शक्ति और सारा प्रभाव वर्ग संघर्ष को रोकने में लगाऊंगा। 

आप कह सकते है कि न्यासी पद एक कल्पना है। लेकिन यदि लोग उसपर बराबर विचार करें और उसके अनुरुप आचरण करने की कोशिश करे तो धरती पर जीवन का नियमन आज प्रेम के द्वारा जितना कुछ होता है, उससे कही ज्यादा अंश में होगा। पूर्ण न्यासीवाद यूक्लिडकी एक बिंदूकी परिभाषाकी भांति एक काल्पनिक वस्तु है और उतनी ही अप्राप्य है। लेकिन अगर हम कोशिश करें तो हम उसके जरिये पृथ्वीपर किसी अन्य तरीके की अपेक्षा इस तरीके से समानता स्थापित करने की दिशामें ज्यादा दूर जा सकेंगे। 

व्यक्तिगत रुपसे मै जो पसंद करुंगा, वह राज्य के हाथमें सत्ताका केंद्रिकरण नही, बल्कि न्यासीवाद का व्यापकीकरण होगा। कारण यह कि मेरी राय में, राज्य की हिंसा के मुकाबले निजी स्वामित्वकी हिंसा कम हानीप्रद होती है। तथापि, यदि टाली न जा सकती हो तो मै न्यूनतम राज्य स्वामित्वका समर्थन करुंगा।           

मै राज्य की बढती हुई शक्तिको भय के साथ देखता हूं। क्योंकि वह प्रत्यक्षत: शोषणको कम करते हुये भी व्यक्तिगत प्रयत्नों को नष्ट करके मानव जातिको ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुँचाती है। यह व्यक्तिगत प्रयत्न ही मानव जातिके प्रयत्नोंकी प्रगतिकी जड़ या बुनियाद है। हम ऐसे कई मामलों से परिचित है जबकि मनुष्यने न्यासीवादको स्वीकारा किया है, लेकिन एक भी ऐसा उदाहरण हमारे सामने नही है जिसमें राज्य वस्तुत: गरीबों के लिये जिया हो। 

राष्ट्र संपत्तिको व्यक्तिओंको सुपुर्द किये बिना अपना स्वामित्व रख ही नही सकता। वह केवल उसके न्यायोचित और पक्षपात रहित उपयोग की गारंटी करता है और उन सभी दुरुपयोगों को रोकता है जो संभाव्य है। अपनी संपत्तिको रैयत की भलाई के लिये अपने पास रखने में आपको कोई आपत्ति हो सकती है, मै ऐसा नही सोचता। रैयत केवल शांति और स्वतंत्रतासे रहना चाहती है और इससे बडी उसकी कोई महत्वाकांक्षा नही है। यदि संपत्ति का उसके लिये उपयोग करते है तो उसपर आपके अधिकार से उसे कोई ईर्ष्या नही होगी। 

राज्य का अधिकार निजी स्वामित्वसे बेहतर है। लेकिन वह भी हिंसाके आधारपर आपत्तिजनक है। यह मेरा दृढ विश्वास है कि राज्य पूंजीवादको हिंसात्मक तरीके से दबाता है तो वह स्वयं हिंसा के चंगुल में फंस जायेगा और अहिंसा का विकास करने में सर्वथा विफल रहेगा। राज्य हिंसा का सघन और संगठित रुपमें प्रतिनिधित्व करता है। व्यक्ति के पास आत्मा होती है, लेकिन राज्य एक आत्माहिन यंत्र है, इसलिये उस हिंसासे उसे कभी मुक्त नही किया जा सकता जिसपर कि उसका अस्तित्व ही निर्भर करता है। इसीलिये मै न्यासीवादके सिद्धांतको ज्यादा पसंद करता हूं। 

राज्य वस्तुत: उन चीजों को अपने हाथ में ले लेंगा और मै समझता हूं कि यदि वह न्यूनतम हिंसा का इस्तेमाल करता है तो उसे ठीक समझा जायेगा। लेकिन यह भय तो बराबर ही है कि राज्य अपने से भिन्न मत रखनेवालों के विरुद्ध बहुत अधिक हिंसा का प्रयोग करे। यदि संबधित व्यक्ति न्यासियोंकी भांति व्यवहार करें तो मै वस्तुत: बहुत प्रसन्न होऊंगा; लेकिन यदि वे इसमें विफल हो तो वैसी दशामें मेरा विश्वास है कि हमे राज्यकी सहाय्यतासे न्यूनतम हिंसाके जरिये उन्हे उनकी संपत्ति से वंचित करना होगा। प्रत्येक निहित स्वार्थ की जांच होनी चाहिये और आवश्यकता नुसार मुआवजे या बिना मुआवजे के संपत्तिको जब्त करनेका आदेश दिया जाना चाहिये। 

यदि भारत के पूंजीपति अपना सारा कौशल धन संपत्ति खडी करने में न लगाकर उसे परमार्थ की भावना से जनता की सेवा में ही लगाकर, जनकल्याण के संरक्षक बनकर उस विपत्ति को टालने की कोशिश नही करेंगे तो इसका अंत यही होगा कि या तो वे जनताको नष्ट कर डालेंगे या जनता उनको नष्ट कर देगी। 

यदि भारत के पूंजीपति अपना सारा कौशल धन संपत्ति खडी करने में न लगाकर उसे परमार्थ की भावना से जनता की सेवा में ही लगाकर, जनकल्याण के संरक्षक बनकर उस विपत्ति को टालने की कोशिश नही करेंगे तो इसका अंत यही होगा कि या तो वे जनताको नष्ट कर डालेंगे या जनता उनको नष्ट कर देगी।

(संपूर्ण गांधी वाङ्मयसे, शब्द गांधीके है, विषयवस्तु स्पष्ट करने हेतु सुविधानुसार क्रमबद्ध किये है।)

विवेकानंद माथने

vivekanand.amt@gmail.com 

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