धर्म के प्रति गांधी का दृष्टिकोण

धर्म के प्रति गांधी का दृष्टिकोण किसी संकीर्ण मतवाद से आबद्ध नहीं था. उनका दृष्टिकोण धर्म के सम्बन्ध में व्यापकदृष्टि में- धर्म नहीं बल्कि दूसरे सत्य के समान था. इस व्यापक धर्मनिष्ठा के कारण गांधी अपनी प्रार्थना में गीता के साथ बाइबिल और कुरआन भी पढ़ते थे, फिर भी अपने मनन और चिंतन के पश्चात् उन्होंने हिन्दू धर्म को श्रेष्ठ माना.

इसका कारण उन्हीं के शब्दों में- निष्पक्ष रूप से विचार करने पर मुझे यह प्रतीत हुआ कि हिन्दू धर्म में जैसे सूक्ष्म और गूढ़ विचार हैं, आत्मा का जैसा निरीक्षण है, दया है वैसे दूसरे धर्म में नहीं हैं. गांधी के अनुसार हिन्दू धर्म को श्रेष्ठ मानने का एक कारण यह भी है कि हिन्दू धर्म में सहिष्णुता अधिक है और यह अन्य धर्मों के प्रति आदर रखता है.

गांधी की कल्पना का हिन्दू धर्म

गांधी की कल्पना का हिन्दू धर्म एक संप्रदाय नहीं वरन एक महान और सतत विकास का प्रतीक और काल की तरह सनातन है. हिन्दू धर्म के प्रति गांधी की आस्था का एक मुख्य कारण यह भी है कि गांधी सत्येश्वर की प्राप्ति के लिए आत्मशुद्धि परमावश्यक तत्व मानते थे. यह उपाय जितनी श्रेष्ठता से हिन्दू धर्म में निरूपित हुआ है, संभवतः उस रूप में अन्य धर्मों में नहीं है. गांधी ने उपवास, उपासना, रामनाम और प्रार्थना हिन्दू धर्म से ही लिया. उनके धर्म की कल्पना नैतिक धर्म की रही है- गांधी ने स्पष्ट किया- यह धर्म हिन्दू धर्म नहीं, जिसका मैं अन्य धर्मों से अधिक महत्त्व देता हूँ, यह तो हिन्दू धर्म से परे जाता है, जो मनुष्य के स्वभाव को ही बदल देता है और उसे अंदर के सत्य के साथ अभेद रूप से जोड़ता है और सदा पवित्र रखता है.

धर्म के सम्बन्ध में गांधी ने एक वैज्ञानिक दृष्टि दी. सारे धर्म अच्छे हैं, लेकिन सारे अपूर्ण भी हैं. सब धर्म ईश्वर दत्त हैं पर मनुष्य द्वारा कल्पित होने के कारण, मनुष्य द्वारा प्रचारित होने के कारण वे अपूर्ण हैं. ईश्वरदत्त धर्म अगम्य है, उसे मनुष्य भाषा देता है, उस भाषा का अर्थ भी मनुष्य ही लगाता है. किसका अर्थ सही माना जाए? सब अपनी-अपनी दृष्टि से उसे देखते हैं, जब तक वह दृष्टि बनी है तब तक सच्चे हैं. दृष्टि बदलने पर सब कुछ झूठा होना भी असंभव नहीं है इसलिए हमें सभी धर्मों के प्रति समभाव रखना चाहिए. इससे अपने धर्म के प्रति उदासीनता नहीं आती बल्कि स्वधर्म विषयक प्रेम अंधा न होकर ज्ञानमय हो जाता है, भाव सात्विक और निर्मल हो जाते हैं. समभाव से जो धर्मज्ञान प्राप्त होता है, उससे हम अपने धर्म को अधिक पहचान सकते हैं.

सर्वधर्म समभाव की अवधारणा

सर्वधर्म समभाव की अवधारणा को धर्म के वैज्ञानिक स्वरूप में गांधी ने प्रतिपादित किया. आज के वैज्ञानिक युग में मानव की निरंकुशता इस कारण है कि एक और मनुष्य के दिमाग पर किसी सत्ता का नियंत्रण नहीं है. वह हर व्यवस्था को आधुनिकता के बोध में ध्वस्त करता जा रहा है, दूसरी ओर धर्म आज भी अपने कुत्सित रूप में पूरे विश्व को अपने खूनी पंजे में जकड़ता जा रहा है.

धर्म के नाम पर विश्व में अधिकांश युद्ध होते रहे. ईसाई संप्रदाय के दो समुदायों के बीच सौ वर्ष तक युद्ध हुए हैं. इस्लाम और ईसाइयत के बीच आज भी संघर्ष सारी दुनिया को आतंकित किये हुए है. यहूदी और इस्लाम के संघर्ष से मध्यपूर्व दहकता रहता है. भारत में हिन्दू-मुस्लिम दंगा इस देश की सबसे बड़ी समस्या है. यह रूप धर्म के प्रति उन्माद के कारण, आस्था की शिथिलता के कारण है. यह धर्म के प्रति वह अनास्था है, जो मनुष्य की पहचान गुम कर रहा है और कोई व्यवस्था बनाने नहीं देता.

गांधी का सर्वधर्म समभाव वस्तुतः वसुधैव कुटुम्बकम पर आधारित धर्म के सही अर्थ-धरणात धर्म इत्याहुः -जीवन की धारणा के मूलतत्व पर आधारित है, जो जीवन के विकास के लिए, जीवन के पोषण के लिए आवश्यक है. धर्म का अवगाहन इस रूप में न करके जब इसे जाति, संप्रदाय, आडम्बर, रूढ़ि तथा अन्धविश्वास और धर्मान्धता के रूप में किया जाता है तो इससे समाज विनाश के पथ पर ही अग्रसर होता है.

धर्म सृष्टि के व्यवस्थित नैतिक शासन के प्रति आस्था है

गांधी ने धर्म के अर्थ को स्पष्ट करते हुए बताया- धर्म सृष्टि के व्यवस्थित नैतिक शासन के प्रति आस्था है. यह अदृश्य है इसलिए यह यथार्थ नहीं है, ऐसा नहीं है. यह मानवीय धर्म है जो मुस्लिम-सिख-ईसाई, सबसे आगे निकल जाता है. यह इन्हें दबाता नहीं बल्कि इन्हें समन्वित कर सशक्त बनाता है. मानव मात्र के कल्याण के लिए इसमें ऊंच-नीच, जाति भेद, रंगभेद के लिए कोई स्थान नहीं है.

गांधी का दृढ़विश्वास था कि धर्म के इसी स्वरूप से मानव के दैहिक, मानसिक और सांस्कृतिक गुणों का सम्यक विकास हो सकेगा. गांधी ने स्वराज्य और सुराज के लिए सर्वधर्म समभाव को बहुत ही आवश्यक माना. उन्होंने कहा कि विभिन्न जातियों और धर्मों में एकता न हो तो स्वराज्य सम्बन्धी सारे विचार ही व्यर्थ होंगे. यदि हम स्वाधीन होना चाहते हैं और स्वाधीन रहना चाहते हैं तो विभिन्न सम्प्रदायों में एक अटूट श्रृंखला बनानी ही पड़ेगी. 

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