गाँधी, भारत, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, चीन और स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन

अखिलेश श्रीवास्तव

“सभ्यता” का सवाल तो आपका जाना पहचाना है। गांधी ने वकीलों और डाक्टरों को अपना पेशा छोड़ने को कहा और उनसे उम्मीद की कि वे औरों की तरह अपना कपड़ा चरखे पर बुन लेंगे। यह भी लिखा कि भारत ने यह सोच समझकर फैसला किया है कि वह अपने पुराने हल और झोपड़े से ही संतुष्ट रहेगा नहीं तो सभ्यता का नाश हो जायेगा। यह भी लिखा कि मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं, आदि। पर हिन्द स्वराज्य (Indian Home Rule) के हिन्दी अनुवाद के लिए 1921 में जो प्रस्तावना लिखी उसमें लिखा, “यह पुस्तक मैंने सन् 1909 में लिखी थी। 12 वर्षों के अनुभव के बाद भी मेरे विचार जैसे उस समय थे वैसे ही आज भी हैं।…….
‘मिलों के संबंध में मेरे विचारों में इतना परिवर्तन हुआ है कि हिन्दुस्तान की आज की हालत में मैन्चेस्टर के कपड़े के बजाय हिन्दुस्तान की मिलों को प्रोत्साहन देकर भी अपनी जरूरत का कपड़ा हमें अपने देश में ही पैदा कर लेना चाहिए।” पर हिन्दुस्तानी मिलें तो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार (इंटरनेशनल ट्रेड) की वजह से बनी थी !

यहाँ तीन प्रमुख तत्व हैं – चरखा, हिन्दुस्तान की मिलें और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार। इसे कैसे समन्वित करते हैं? यह लिखने के लिए मैं इस वजह से भी प्रेरित हुआ क्योंकि मुझसे पूछा गया कि क्या मैं चीन की अर्थव्यवस्था के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था को बदलने की वकालत करूंगा? मैंने कहा बिल्कुल नहीं मैं तो गांधी को सही मानता हूँ।

मुझसे दूसरा सवाल पूछा गया कि पहले खंड में मैंने कैसे लिखा कि चीन के 40-50 करोड़ लोग जो 1990 से 2000 के बीच गरीबी रेखा से ऊपर आये हैं वे उसी गरीबी के गर्त्त में फिर से फंस जायेंगे?

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यह सवाल एक भ्रम के कारण पूछा गया। इसका सैद्धांतिक जवाब यह है कि मैं अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की बात कर रहा हूँ Bilateral Trade की नहीं। आप शायद जानते होंगे कि अमेरिका में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का जीडीपी में योगदान सिर्फ 10% का ही है बाकी 90% सेवा क्षेत्र है। हालांकि अमेरिका अभी भी दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है चीन के बाद। पर उसके उत्पाद हाई एन्ड उत्पाद हैं जैसे रक्षा सामग्री, तोपखाना, हवाईजहाज आदि। हालांकि चीन में भी सेवा क्षेत्र बहुत बड़ा है 50% से अधिक। परन्तु चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था का अऔद्योगीकरण (deindustrialization) से फिर से औद्योगीकरण (reindustrialization) किया है। यानी उसने अक्षम पुरानी राजकीय उधमों को समाप्त कर नयी तकनीक और मशीनों में निवेश किया है इससे अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ी है। इसे देखकर अमेरिका में भी फिर से औद्योगीकरण की बात उठी। यानी अर्थव्यवस्था को सेवा क्षेत्र से वापस मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की तरफ ले जाया जाए। ओबामा के समय ही मेड इन अमेरिका की बात होने लगी थी। ट्रंप ने उसे बहुत तेजी से आगे बढ़ाया। निसान जैसी बड़ी कंपनियां वापस भी आईं। चीन में मध्यम वर्ग बढ़ने से लेबर कॉस्ट बढ़ा है और उत्पादन की लागत में अमेरिका और चीन में अब ज्यादा फर्क नहीं है। ये सब आत्मनिर्भरता के नहीं बल्कि राष्ट्रीयता के जुमले हैं। यह दूसरा क्षेत्र है। संक्षेप में अमेरिका चीनी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने के सारे उपाय कर रहा है और अब हम अंतर्राष्ट्रीय व्यापार खत्म करने की बात कर रहे हैं। मेरी बात इसी संदर्भ में है। अब भी न समझ में आई हो तो थोड़ा धैर्य रखें। पर मैं यह कहना चाहूंगा कि कोशिश तो मेरी इसे बिल्कुल सरल तरीके से लिखने की है फिर भी हर व्यक्ति मेरी सारी बातें समझ ले ऐसा आश्वासन देना कठिन है।

बहुत से आलेख अखबारों में और सोशल मीडिया में छप रहे हैं जिसका लब्बोलुआब यह है कि भारत को चीन से आयात होने वाली चीजें खुद बनानी चाहिए और आत्मनिर्भर हो जाना चाहिए। कल ऐसा ही एक लेख एक सज्जन ने अखबार में लिखा। मैं उसका पोस्टमार्टेम करना चाहूंगा। यह बहुतों को इस विषय को सोचने और समझने में मददगार साबित होगा।

उस लेखक ने मुख्यतः दो बातें लिखी है एक ताईवानी कंपनियां जिनका चीन की इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर में सबसे ज्यादा निवेश है और उस वजह से वस्तुतः उन ताईवानी कंपनियों का उस व्यवसाय पर दबदबा है, उन्हें भारत लाना चाहिए और ऐसा ही दवाओं और औषधियों के उत्पादन के लिए कच्चा माल, जो लगभग 70% चीन से आता है, को भारत में विकसित करना चाहिए था। ये दोनों बातें भ्रामक हैं। इसमें न तो अर्थशास्त्र है, न राजनैतिक विश्लेषण और न ही कोई सिद्धांत। लेखक यह सोच रखता है कि ताईवानी कंपनियां ताईवान के चीन के साथ जग जाहिर विवादात्मक राजनैतिक रिश्ते की वजह से भारत आ जातीं। अगर केवल राजनैतिक कारणों से आना होता तो आ जातीं। भारत में इलेक्ट्रॉनिक्स में बहुत पहले से 100% एफडीआई है। क्यों नहीं आयीं? ये कंपनियां भारत में तभी आयेंगी जब उनके उत्पाद की लागत कम होगी, भारत की न्याय व्यवस्था भरोसे के काबिल होगी, कानून का राज (रूल ऑफ़ लॉ होगा), नियामक मजबूत और ईमानदार होंगे और राजनैतिक हस्तक्षेप नहीं होगा।

हमने ताईवानी कंपनियों के लिए कौन सा इंफ्रास्ट्रक्चर या स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाया है पिछले छह सालों में? कितना निवेश किया है उसमें बजट के मुताबिक? हमारी सर्वोच्च न्यायालय तो अनुच्छेद 370 पर फैसले देने की जगह राममंदिर और जगन्नाथ रथयात्रा पर फैसले दे रही है! कानून का राज इतना बेहतर है कि हम मॉब लिंचिंग करा रहे हैं! नियामकों की क्षमता और ईमानदारी और राजनैतिक हस्तक्षेप पर तो कुछ बोलना ही व्यर्थ है। फिर अगर चीन का इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर मूलतः ताईवान के अधीन है तो फिर वहां से निर्मित माल मंगाने में क्या हर्ज है? यह तो सब जानते हैं कि स्पेशल इकोनॉमिक जोन एक तरह से देश में ही एक विदेशी टापू जैसा होता है जिसमें उस देश का कानून लागू नहीं होता।

दवा और औषधियों के क्षेत्र में लेखक कहता है कि भारतीय प्राइवेट कंपनियों ने कच्चा माल बनाने की तकनीक और उत्पादन की व्यवस्था विकसित करने में रूचि नहीं दिखाई! दवा और औषधियां पूरी दुनिया में नयी खोज और पेटेंट के बदौलत चलती है। भारत के पास कौन सा महत्वपूर्ण पेटेंट है? कौन से नये शोध हुए हैं? शोध के लिए कैसा शोध संस्थान है? कौन से नये शोध संस्थान बनाये? कितना निवेश किया उन संस्थानों में? हम तो कोरोना का भी इलाज गोबर और गौमूत्र से कर रहे थे! लोगों को अधिक पता नहीं है भारत को ब्लड कैंसर की दवा अमेरिका से मंगानी पड़ती है जिसकी साल भर की खुराक की कीमत 64 लाख रूपये है। भारत सरकार अगर करुणा दिखाये और ड्यूटी माफ कर दे तब यह कीमत 32 लाख रूपये बैठती है। भारत में हम जो दवाइयां बनाते हैं वे सब नक़ल कर उसका उत्पादन करते हैं जिनके पेटेंट की अवधि समाप्त हो चुकी है। यह सब उस लेखक ने छुआ नहीं। वह जानता था। अतः इस तरह के विवरणात्मक कोरे गप्प हैं – संघियों की तरह कायरतापूर्ण पाला बदल लेना और भ्रम फैलाना। अब वापस लौटते हैं। इससे पहले कि मैं भारत पर चीन से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार खत्म होने से होने वाले प्रभावों पर आऊं, पहले अंतर्राष्ट्रीय व्यापार क्या है इसे समझ लेते हैं।

मैंने लिखा कि डेविड रिकार्डों इंटरनेशनल ट्रेड के जनक हैं तो पहले उनकी परिभाषा पर चलते हैं। रिकार्डो ने कहा कि हर देश को अपने उस उत्पाद के साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार करना चाहिए जिसमें वह सबसे कम खराब हो। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से अर्थव्यवस्था की दक्षता के साथ उत्पाद की गुणवत्ता (use value) भी बढ़ती है। क्या इंटरनेशनल ट्रेड आत्मनिर्भरता की अनिवार्य शर्त है या यह उसका विलोम है?

लेखक अखिलेश श्रीवास्तव का चित्र
अखिलेश श्रीवास्तव एडवोकेट

(लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं)

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