गाँधी : एक अनोखा योद्धा
अमित कुमार ठाकुर
भारतीय राजनीति और समाज में महात्मा गाँधी एक ऐसा नाम है जिससे आप प्रेम और आदर कर सकते हैं या घृणा कर सकते हैं लेकिन उन्हे नज़रअंदाज नहीं कर सकते।
1948 में दिल्ली में उनकी निर्मम हत्या के बाद से यमुना में बहुत पानी बह चुका है लेकिन गाँधी जी के स्वतंत्रता आन्दोलन में योगदान को समग्रता से समझा जाना आज भी शेष है।
सब अपनी- अपनी विचारधारा के अनुसार उनका मूल्यांकन करने की कोशिश करते हैं।
कोई उन्हें राष्ट्रपिता बता कर उनका ईश्वरीकरण करने का प्रयास करता है तो कोई उन्हें मुस्लिमों का तुष्टिकर्ता बता कर उन्हें देश के विभाजन के लिए उत्तरदायी ठहराता है।
कोई उन्हे सन्त कहता है तो कोई उन्हे चतुर चालाक राजनीतिज्ञ कहता है।
सबके अपने-अपने विचार हो सकते हैं लेकिन मेरी रुचि वर्तमान पीढ़ी को स्वतंत्रता आन्दोलन में गाँधी की वास्तविक भूमिका से परिचित कराने में है और यह दिखाने में कि गांधी ने वह कर दिखाया जो कोई और नहीं कर सका।
इसीलिए गाँधी को एक अनोखा योद्धा कहा जाना चाहिए ।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा भारत पर जो शिकंजा कसा गया उसके निम्न पहलू थे :
1- आर्थिक : ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने अपने सभी चरणों यथा वाणिज्यिक पूंजीवाद, औद्योगिक पूंजीवाद और वित्तीय पूंजीवाद में भारत की धन- सम्पत्ति लूटी और उसे ब्रिटेन पहुँचाया।
2- राजनीतिक : ब्रिटेन ने भारतीय भूभागों को जीत कर अपना साम्राज्य खड़ा किया और यहां ब्रिटेन की केन्द्रीकृत राजव्यवस्था स्थापित की और अपने उदारवाद के पाखंड को प्रदर्शित करने के लिए आधी- अधूरी संसदीय और निर्वाचन प्रणाली भी लागू की।
सरकार से अपनी बात कहने के लिए प्रार्थना पत्र, याचिका, अपील जैसे तरीके ही आदर्श तरीके होते हैं, यह बात भारतीयों के दिमाग में बैठाई ।
साथ ही फूट डालो और शासन करो की नीति का सफल प्रयोग किया और राजनिती को परम कुटिलता पर पहुंचा दिया ।
3- सामाजिक : भारतीयों को ब्रिटिश शासन के हितों के अनुरूप बनाने के लिए उनके समाज और धर्म में सुधार करने के लिए अनेक कानून बनाए गए।
भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों को आपस में लड़ा कर भारतीय समाज को विखंडित किया जिससे भारतीयों में कभी भी एकता की भावना न पनप सके और वे अंग्रेजों के विरुद्ध कभी भी एकजुट हो कर खड़े न हो पायें।
4- सांस्कृतिक : अंग्रेजों ने पश्चातय शिक्षा, विचारों और संस्थाओं को भारत में लाकर भारतीय संस्कृति को हीन और पश्चातय संसकृति को श्रेष्ठ बता कर भारतीयों को उनकी संस्कृति से दूर करने का भरपूर प्रयास किया।
मैकाले ने स्पष्ट रूप से कहा था कि भारतीयों को केवल रंग और रक्त से ही भारतीय रहने देना है, उनके विचारों और आदतों को अन्ग्रेजी बना देना है जिससे वह स्वयं ही अपनी संसकृति को हीन और पश्चातय संसकृति को श्रेष्ठतर मानें।
भारतीयों को प्रेरित किया कि वह उपभोग्वादी भौतिक संस्कृति के आदर्श को अपनाएं।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारत के विचार को दार्शनिक आधार पर भी चुनौती दी और स्ट्रेची तथा चर्चिल जैसे अंग्रेजों ने दावा किया कि भारत एक राष्ट्र है ही नहीं।
5- तकनीकी : उत्पादन की आधुनिक तकनीकों और कारखाना प्रणाली को भारत में लाकर भारतीयों के मन में यह बैठाना कि अन्ग्रेज भारत का आधुनिकीकरण कर रहे हैं।
अति उत्पादन और अति उपभोग पर आधारित उत्पादन प्रणाली को भारत के लिए आदर्श बताया।
6- मानसिक : अन्ग्रेज आम भारतीय जनता के माईबाप हैं और उसके शुभचिंतक हैं तथा अन्ग्रेज शक्ति अजेय है, उसे हराने के बारे में किसी को सोचना भी नहीं चाहिए।
यह दो बातें भारतीयों के मन में बैठा कर अंग्रेजों ने भारतीयों पर वर्चस्व ( hegemony) स्थापित कर लिया और उन्हे मानसिक रूप से गुलाम बना लिया।
7- समर्थक वर्ग : अंग्रेजों ने भारत पर 190 वर्षों तक शासन केवल बन्दूक के बल पर ही नहीं किया था।
विभिन्न प्रकार की उपाधियां और इनाम बाँट कर अंग्रेजों ने अपना एक बढा समर्थक वर्ग तैयार कर लिया था जो अंग्रजों से सम्मान और उपाधि पाने पर बहुत गौरवान्वित महसूस करता था और भारत में अंग्रेजों की सत्ता बने रहने का समर्थन करता था।
इस प्रकार ब्रिटिश साम्राज्यवाद को सही अर्थ में चुनौती देने के लिए उसके इन 7 आधारों पर प्रहार करना आवश्यक था।
अब हम देखते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती देने के लिए कौन मैदान में आए।
सबसे पहले कोन्ग्रेस के उदारवादी नेताओं ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद को चुनौती दी।
दादा भाई नैरोजी और आरसी दत्त ने अत्यंत विद्वतापूर्ण ढंग से “धन की निकासी” ( ड्रेन ऑफ़ वेल्थ) के सिद्धांत द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा किए जा रहे भारत के आर्थिक शोषण की पोल खोल कर रख दी।
लेकिन उनके अनुसार यह सब गड़बड़ीं भारत में कार्यरत अन्ग्रेज अधिकारीवर्ग कर रहा था।
ब्रिटेन के अन्ग्रेज तो बहुत अच्छे थे उनकी नज़र में और इसलिए उदारवादियों ने अपना सारा ज़ोर इंग्लेंड के अंग्रेजों को भारत के अंग्रेजों की कारगुजारियां सुनाने में लगा दिया बिना यह समझे कि मेघनाथ की शिकायत रावण से करने से क्या लाभ होगा?
वह अन्ग्रेजी साम्राज्य को भारत के लिए वरदान मानते रहे।
अत: उदारवादी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उपर्युक्त 7 आधारों में से केवल पहले आधार पर ही प्रहार कर पाये और वह भी आधा अधूरा।
क्योंकि वह यह नहीं समझ पाए कि भारत के आर्थिक शोषण के लिए केवल भारत में कार्यरत अन्ग्रेज अधिकारी ही दोषी नहीं हैं अपितु इंग्लेंड वाले अन्ग्रेज उनसे भी अधिक दोषी हैं।
उसके बाद लाल-बाल-पाल जैसे गरमपंथी आए।
उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक आधारों पर तो हमला किया किन्तु वह तकनीक के मामले में ब्रिटेन की श्रेष्ठता को स्वीकार करते थे।
कारखानों से उत्पादन को श्रेष्ठ मानते थे । हिंसा से परहेज नहीं करते थे।
प्राचीन भारत के अतीत का अति गौरवगान करके उन्होने गैर हिन्दुओं को राष्ट्रीय आन्दोलन से अनजाने ही दूर करने में कुछ भूमिका निभाई।
ब्रिटिश वर्चस्व को भी स्वीकार करते थे। अत: वह भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के केवल 3 आधारों पर ही आक्रमण कर पाए।
फिर आए क्रन्तिकारी। वह तो व्यक्तिगत वीरता और बम बन्दूकों से कुछ अंग्रेजों की हत्या करने के अतिरिक्त ब्रिटिश साम्राज्यवाद के किसी भी आधार को चुनौती नहीं दे पाए।
हिंसा की व्यर्थता को स्वयं भगत सिंह और उनके साथी भी समझने लगे थे।
फिर आये मार्क्सवादी और समाजवादी । वह कारखाना पद्धति से उत्पादन और मशीनीकरण के स्वयं ही समर्थक थे।
केवल वह यह चाहते थे कि कारखानों का प्रबंध बुर्जुआ वर्ग के स्थान पर सर्वहारा वर्ग को मिल जाए।
अत: वह भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधिकांश आधारों को चुनौती देने में असफल रहे।
नेताजी सुभाषचंद बोस की आज़ाद हिंद सेना अंग्रेजों को केवल सैनिक चुनौती ही दे पाई।
साथ ही अंग्रेजों की अजेयता की अवधारणा को भी कुछ हद तक चुनौती देने में सफल रही किन्तु साम्राज्यवाद के अन्य आधारों पर प्रहार नहीं कर पाई ।
आरएसएस, हिन्दू महासभा जैसे संगठनों ने सांस्कृतिक और सामाजिक आधारों पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को जबरदस्त चुनौती दी लेकिन अन्य आधारों पर वह साम्राज्यवाद को चुनौती नहीं दे पाए।
इस प्रकार आपने भारत के सभी सपूतों द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद को दी गई चुनौतियों की अपर्याप्तता देखी।
सभी ने अपने अपने स्तर पर बहुत मेहनत की और भारत माँ को गुलामी के बंधनों से मुक्त कराने की पूरी कोशिश की।
लेकिन वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद के सभी आधारों को समग्र रूप से समझने में असफल रहे और इसलिए उनकी कोशिशें सफल नहीं हो पाईं।
ऐसे समय में गांधी जी एक ऐसे अनोखे योद्धा के रूप में उभरते हैं जिसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की प्रकृति को समग्र रूप में समझा और उसके सभी आधारों पर भीषण प्रहार किया।
गाँधीजी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की वास्तविक प्रकृति को समझा और उसके सातों आधार पर भीषण प्रहार किया।
अन्ग्रेज सबसे अधिक गाँधीजी से ही डरते थे। सभी वायसराय गाँधीजी से भयभीत रहते थे।
लॉर्ड विलिन्गडन ने अपनी बहन को लिखे एक निजी पत्र में लिखा था,” यदि गाँधी नहीं होते तो यह दुनिया कितनी खूबसूरत होती—-“।
द्वितीय विश्वयुद्ध का विजेता चर्चिल तो गाँधी का नाम सुनते ही बेबसी से उत्पन्न गुस्से से आग- बबूला हो जाता था और कभी उन्हें ” नंगा फकीर ” कहता तो कभी अन्य अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करता।
जब क्रिप्स ने चर्चिल के साथ अपनी बैठक में गाँधी का ज़िक्र किया तो चर्चिल आग- बबूला हो कर बोला “उफ! यह गाँधी मरता क्यों नहीं!”
आखिर गाँधी ने ऐसा क्या किया था जिससे अंग्रेज सत्ताधारी इतने परेशान और भयभीत थे।
गाँधी ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद के सातों आधारों पर भीषण प्रहार करके उसकी जड़ों को हिला दिया था जो और कोई नहीं कर पाया था।
गाँधी ने पाश्चात्य सभ्यता को सिरे से नकार कर उसके साम्राज्यवादी शोषण को निम्न सात आधारों पर चुनौती दी थी:
1- आर्थिक आधार : ब्रिटिश साम्राज्यवाद का मुख्य उद्देश्य भारत का आर्थिक शोषण
ही था।
और यह शोषण भारतीयों के ही सहयोग से चल रहा था।
गाँधी जी ने इसे बहुत पहले ही जान लिया था और इसका वर्णन अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “हिंद स्वराज” (1909) में किया भी था।
गांधी जी ने चर्खे को प्रतीक बना कर आर्थिक स्वावलम्बन का जो मंत्र गांव- गांव पहुँचाया उससे ब्रिटिश साम्राज्यवाद का मूलाधार ही सूखने लगा।
अंग्रेजों द्वारा भारत के औपनिवेशिकरण का मुख्य उद्देश्य तो भारत का आर्थिक शोषण करना ही था।
उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक , राजनीतिक नीतियाँ तो इसी आर्थिक शोषण को सुनिश्चित करने के लिए ही बनाई गईं थीं।
विभिन्न सरकारी दस्तावेजों और बाद में किए शोधों से स्पष्ट है कि असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान भारत को किए जाने वाले ब्रिटिश निर्यातों में भारी कमी दर्ज़ की गई थी।
अत: गाँधी जी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के मुख्य आधार ” आर्थिक पक्ष” पर चोट पहुँचाने में
पर्याप्त सफल रहे थे।
2- राजनीतिक: पाश्चात्य राजनीतिक मॉडल मेकियावली की प्रसिद्ध रचना ” द प्रिन्स” पर आधारित है जिसके अनुसार राजनीति में नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं है और राजनीति में सबकुछ जायज है।
गाँधीजी ने इसे राजनीति के भारतीय मॉडल के माध्यम से चुनौती दी जो नैतिकता पर आधारित है, जो सत्य पर आधारित है।
गाँधीजी धर्मविहीन राजनीति को पाप मानते थे। अंग्रेजी तोपों के समक्ष गाँधीजी का ब्रह्मास्त्र “सत्याग्रहृ” था।
गाँधीजी ने पश्चिम के केन्द्रीकृत राजव्यवस्था के मॉडल के विरुद्ध भारतीय परम्पराओं पर आधारित “ग्राम स्वराज” का सत्ता के विकेन्द्रीकरण का मॉडल खडा किया।
इस प्रकार अंग्रेजों द्वारा भारत में किए जा रहे आधे-अधूरे लोकतंत्र के पाखंड के विरुद्ध ग्राम स्वराज पर आधारित वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना पर बल दिया।
अंग्रेजों ने भारत में अगर “Divide and Rule” की नीति अपनाई तो गाँधी जी ने इसके विरुद्ध “Unite and Fight” की नीति अपनाई और भारतीय जनता के सभी वर्गों को एकजुट करके अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध उन्हें खड़ा किया।
गांधी से पहले अंग्रेजों का विरोध करने के केवल दो ही तरीके भारतीयों को पता थे।
प्रार्थना-पत्र तथा पेटीशन दो या हिंसा करो। अन्ग्रेज विरोध के इन दोनो तरीकों से निपटना भली प्रकार जानते थे।
गाँधीजी ने विरोध के लिए सत्याग्रह और अहिंसा का प्रयोग करके अन्ग्रेजी सरकार को असहाय और लाचार बना दिया।
अंग्रेजी सरकार के पास विरोध के इस तरीके का मुकाबला करने का कोई उपाय नहीं था।
इस प्रकार सत्याग्रह और अहिंसा के तरीके का प्रयोग करके गान्धीजी ने अन्ग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध “मानसिक बराबरी” स्थापित कर ली जो नरमपंथी, गर्मपंथी, मार्क्सवादी कोई भी हासिल नहीं कर पाया था।
गांधी जी ने एक नई अवधारणा दी “नैतिक स्वराज” की।
उन्होने भारतीयों का आहवाह्न किया कि वह सत्य, अहिंसा, नैतिकता को अपना कर पहले अपनी आत्मा को निर्मल करें और ” नैतिक स्वराज” हासिल करें।
नैतिक स्वराज हासिल करने पर राजनीतिक स्वराज स्वतः ही हासिल हो जाएगा।
3- सामाजिक : अंग्रेजों ने सती प्रथा को निषिद्ध करने, विधवा पुनर्विवाह को वैध घोषित करने, विवाह की न्यूनतम आयु में वृद्घि करने इतियादी से सम्बंधित कानून बना कर भारतीय समाज और धर्म को सुधारने का दावा किया।
लेकिन साथ ही उन्होंने धर्मांतरण को बढ़ावा देने वाले कानून बना कर अपनी वास्तविक मंशा भी प्रकट कर दी।
इन सुधारों के माध्यम से अंग्रेज भारतीयों को एक ऐसा जनसमूह बनाना चाहते थे जो ब्रिटिश हितों के अधिक अनुकूल हो।
गान्धीजी ने अंग्रेजों की इस चाल को समझा और भारतीयों द्वारा स्वयं अपने समाज और धर्म को सुधारने पर बल दिया।
अछूतोद्धार, बाल विवाह की प्रथा का त्याग, महिलाओं की परिवार और समाज में स्थिति
में सुधार करना, साफ-सफाई के कार्य सभी को स्वयं करने पर बल जैसे कार्य गाँधीजी के रचनात्मक कार्यों का महत्वपूर्ण और अनिवार्य भाग थे।
जहां अंग्रेज अपने समाज सुधार कानूनों द्वारा भारतीयों का पाश्चचात्यकरण करना चाहते थे वहीं गाँधीजी अपने रचनात्मक कार्यक्रम द्वारा भारतीयों को अधिक और सच्चा भारतीय बनाने के उद्देश्य से कार्य कर रहे थे।
4- सांस्कृतिक : ब्रिटिश साम्राज्यवाद का भारत पर सांस्कृतिक आक्रमण बहुत भयानक था लेकिन गान्धीजी ने उसका सटीक जवाब दिया ।
उन्होंने कहा कि यदि हमें भारत का उद्धार करना है तो अन्ग्रेजी राज के दौरान जो कुछ हमने सीखा उसे भूलना होगा।
वह पाश्चात्य शिक्षा के स्थान पर राष्ट्रीय शिक्षा के पक्षधर थे।
वह अंग्रेजी की तुलना में भारतीय भाषाओं के पक्षधर थे और उन्होने कोन्ग्रेस की प्रांतीय इकाईयों का गठन मातृभाषा के आधार पर किया और उनका कामकाज मातृभाषा में करने को प्रोत्साहित किया।
उन्होने स्वयं विदेशी भेष- भूषा त्याग दी और एक आम भारतीय किसान का भेष और जीवनचर्रया अपना ली।
उन्होने अत्याधिक भोग और अति- उत्पादन पर आधारित पाश्चात्य संस्कृति को नकारा और संयम और त्याग पर आधारित भारतीय संस्कृति के आदर्शों को प्रवर्तित किया।
ऐसे काल में जब अपने भाषणों में अन्ग्रेजी कानूनों और ब्रिटिश संसद की बहसों तथा रोमन एवं ग्रीक धर्मशास्त्रों के उदाहरणों को उद्धृत करना गौरव की बात और विद्वता की निशानी मानी जाती थी, गाँधी जी रामचरितमानस की चौपाईयां और गीता के श्लोक तथा नरसी मेहता जैसे संतों की वाणी उद्धृत करके जहाँ जनसमूह का मन मोह लेते थे वहीं पश्चातय संस्कृति को सिरे से नकारते हुए भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता को अनायास ही स्थापित कर देते थे।
सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य जैसे भारतीय संस्कृति के शास्वत मूल्यों को गाँधीजी ने विश्व भर में प्रचारित करके भारतीय संस्कृति के प्रसार में अमूल्य योगदान दिया है।
5 – तकनीकी : ब्रिटिश साम्राज्यवाद अत्याधिक मशीनीकरण से भारत को आक्रांत करके उसे पूरी तरह लूटने की नीति पर कार्य कर रहा था।
और उस पर तुर्रा यह कि ऐसा करके अंग्रेज भारत का आधुनिकीकरण कर रहे हैं।
गाँधीजी ने अत्याधिक मशीनीकरण, बड़े बड़े भारी उद्योगों की भारत में उपयोगिता को नकार दिया।
उनके अनुसार मशीन न केवल उत्पादन का अमानवीकरण (dehuminisation) करती है अपितु यह भारतीय परिस्थितियों के लिए उपयुक्त भी नहीं है।
भारत की विशाल श्रमशक्ति को केवल तब ही रोज़गार प्रदान किया जा सकता है जब चर्खे जैसी सरल मशीनों का ही प्रयोग करते हुए उत्पादन में मानव श्रम का अधिक से अधिक प्रयोग किया जाए।
उनके अनुसार शारीरिक श्रम मानव को मानव बनने के लिए आवश्यक है।
इसीलिए उनके आश्रम में सभी के लिए शारीरिक श्रम करना अनिवार्य था।
मशीन की तुलना में मानव को महत्व देकर, अति उत्पादन और अति- उपभोग का निषेध करके गाँधी जी ने उत्पादन के पाश्चात्य मॉडल को नकार दिया और ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर ऐसी करारी चोट करी जो उदारवादी, गरमपंथी, मार्क्सवादी आदि कोई और नहीं कर पाया।
पाश्चात्य संस्कृति के आलोचक थोरो, इमर्सन, लियो तोलस्तोय और जॉन रस्किन जैसे चिंतक भी थे लेकिन वह केवल विचार के स्तर तक रहे।
गांधी की महानता यह है कि उन्होंने पाश्चात्य संस्कृति के विरुद्ध विचारों को वास्तविक जीवन में लागू करके उन्हें मूर्त रूप दिया।
6- मानसिक : अंग्रेज आम भारतीय जनता के माईबाप हैं और उसके शुभचिंतक हैं।
ऐसा प्रचार करके अंग्रेज भारतीयों को मानसिक रूप से गुलाम बनाए रखने की रणनीति पर चल रहे थे।
गाँधीजी ने बड़ी कुशलता से नमक सत्याग्रह करके आम, गरीब जनता के सामने अंग्रेजों की परोपकारीता की पोल खोल दी।
उन्होने निर्धन भारतीयों को दिखा दिया कि देखो आँख खोल कर, हवा और पानी के बाद जीवन के लिए तीसरी आवश्यक वस्तु नमक पर 16% कर लगा कर अंग्रेज निर्धन भारतीयों को किस प्रकार लूट रहें हैं।
उन्होंने सरेआम अंग्रेजी कानून तोड़ कर अंग्रेजों की अजेयता के भ्रम को भी भारतीयों के मन से निकाल दिया।
गाँधीजी ने आम भारतीय जनता के मन में बैठी हुई अंग्रेजों की श्रेष्ठता की अवधारणा को तार तार कर दिया और भारतीयों के मन से अंग्रेजों का डर निकाल कर उन्हे अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा कर दिया।
अंग्रेजों ने जिस भारतीय जनता को अपनी रहनुमाई में बने रहने के लिए पाला पोसा था उसे गांधी जी ने हाइजेक करके अंग्रेजों के विरुद्ध खड़ा कर दिया। अन्ग्रेज तिलमिला कर रह गए।
7- समर्थक वर्ग : अंग्रेजों ने उपाधियाँ, सम्मान, जमींदारी, सरकारी नौकरी आदि बाँट कर भारतीयों के एक बड़े वर्ग को अपना समर्थक बना लिया था और वही लोग भारत में ब्रिटिश शासन की जड़ें जमाने में लगे रहते थे।
गाँधीजी ने अपने आन्दोलनों से लोगों पर ऐसा जादू चलाया कि लोग अंग्रेज सरकार द्वारा दी गई उपाधियों और सम्मान को त्यागने में, सरकारी नौकरी को छोड़ने में गौरव का अनुभव करने लगे।
इस प्रकार गाँधी जी ने अंग्रेजों को उनके समर्थक वर्ग के एक बड़े हिस्से से वंचित कर दियाृ।
इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि गाँधीजी ने पाश्चात्य साम्राज्यवाद के सभी आधारों पर भीषण चोट करके उसे तिलमिलाने पर मजबूर कर दिया और भारत में उसके अवसान में एक महती भूमिका निभाई।
गाँधीजी और चाहे कुछ भी हों लेकिन पाखण्डी नहीं थे। वह जो कहते थे वही करते थे और हृदय से उसे ही ठीक भी मानते थे।
खिलाफत आन्दोलन को समर्थन देकर उन्होने एक बड़ी राजनीतिक भूल की जिसका खामियाजा हमें साम्प्रदायिक आधार पर भारत के विभाजन के रूप में उठाना पड़ा।
लेकिन उनसे यह भूल अनजाने में हुई थी, उनका इरादा तो पवित्र था – हिन्दू मुस्लिम एकता द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती देना।
वह इसके भावी दुष्परिणामों को समझ नहीं सके, यही उनकी गलती है।
हालाँकि वह एक मानव ही थे और उनसे हर बार अचूक और सर्वोत्तम निर्णय लेने की आशा करना बेमानी होगा।
वह सत्य के साथ प्रयोग ही तो कर रहे थे । सभी प्रयोग सफल ही तो नहीं होते।
लोग उनके युवा लड़कियों के साथ ब्रह्मचर्य के प्रयोगों पर भी उंगलियां उठाते हैं।
सबको इस बारे में अपने विचार धारण करने की स्वतंत्रता है।
लेकिन मेरा आग्रह है कि गान्धीजी का मूल्यांकन उनकी तमाम अच्छाईयों और बुराईयों के साथ समग्र रूप से किया जाना चाहिए।
तब हम गाँधीजी की अच्छाइयों और भारत के राष्ट्रीय अन्दोलन में उनके अप्रतिम योगदान का पलडा ही भारी पायेंगे।
ऐसे ही तो नहीं उनकी निर्मम हत्या पर जोर्ज ऑरवेल रोए थे और टाईम मेगजीन ने उनकी तुलना अब्राहम लिंकन से की थी।
अल्बर्ट आइन्सटीन ने भी ऐसे ही तो नहीं कह दिया था कि “आने वाली पीढियाँ इस बात पर मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि इस धरती पर कभी हाड़- माँस का ऐसा व्यक्ति वास्तव में चला था।