सीमांत गांधी बादशाह खान का नाम भारत से क्यों मिटाया जा रहा है!
शर्मनाक घटना से लोग दुखी
सीमांत गांधी खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान उर्फ़ बादशाह खान के नाम पर फ़रीदाबाद में चल रहे एक सत्तर साल पुराने अस्पताल का नाम सरकार ने बदलकर भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर कर दिया है . वह महान महान स्वतंत्रता सेनानी थे. 1987 में उन्हें भारत रत्न से नवाज़ गया था.
फरीदाबाद के न्यू इंडस्ट्रियल टाउन में सीमांत गांधी बादशाह खान के नाम पर इस अस्पताल को वहां के लोगों ने खुद के पैसे और मेहनत से बनाया था . इसका उद्घाटन 5 जून 1951 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने किया था।
अस्पताल का नाम बादशाह खान अस्पताल था। ‘था’ शब्द का इस्तेमाल इसलिये किया कि हरियाणा के स्वास्थ्य महानिदेशक की 3 दिसंबर 2020 को जारी एक अधिसूचना के बाद उसका नाम बदलकर भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के नाम पर रख दिया गया है।
सीमांत गांधी बादशाह खान का नाम अस्पताल से मिटाने की ज़रूरत किया थी ? इस साल पर अस्पताल के अधिकारियों का कहना है कि इसका जवाब केवल प्रधानमंत्री कार्यालय दे सकता है .
शर्मनाक काम
इस ‘ शर्मनाक ‘घटना से वहां के लोग दुखी हैं। वहॉं नॉर्थवेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस से भारत आये शरणार्थी रहते हैं , जो काफ़ी दुखी हैं , क्योंकि वे ख़ान अब्दुल गफ्फार खान से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। उनके बाप दादों ने अस्पताल को बनाने में ख़ून पसीना बहाया था.
उन लोगों के संगठन भाटिया सेवक समाज के 79- वर्षीय अध्यक्ष मोहन सिंह भाटिया का कहना है कि यह उनकी पहचान को मिटा देने जैसी घटना है , जिसे वे लोग किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे। और इसका कड़ा विरोध करेंगे।
अस्पताल के अधिकारियों का कहना है कि उनके हाथ में कुछ भी नहीं है। ऊपर से आदेश आया है।
सवाल यह उठता है कि विरासत सरीखे इस इस पुराने अस्पताल का नाम बदलने की ज़रूरत किया थी ? किस मानसिकता के चलते यह किया गया ? क्या कारण है कि राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों ने इस कदम का पुरज़ोर विरोध नहीं किया , जबकि आज आवश्यकता है कि खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान उर्फ़ बादशाह खान जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों की यादों और उनकी विरासत को संजोया जाये .
संडे मेल के पूर्व कार्यकारी संपादक त्रिलोक दीप ने ख़ान अब्दुल गफ्फार खान से कई बार मुलाकात और उनके दिल की बातों को जानने की कोशिश की थी। प्रस्तुत है उनके संस्मरण
जब सीमांत गॉंधी का ज़ोरदार स्वागत हुआ था
बात शायद 1985 की है । सीमांत गांधी के नाम से प्रसिद्ध खान अब्दुल गफ्फार खान कांग्रेस के शताब्दी समारोह में शिरकत करने के लिए दिल्ली आये थे।उनका तब बहुत स्वागत सत्कार हुआ था ।
इसे भी देखें https://hi.wikipedia.org/wiki/ख़ान_अब्दुल_ग़फ़्फ़ार_ख़ान
स्वाधीनता संग्राम के दौर के उनके साथी तब नहीं के बराबर रह गये थे लेकिन विरासतों की तादाद अच्छी खासी थी ।अपनी कद काठी और गोरे रंग के कारण वे आकर्षण का केंद्र थे ।
मैं मिला तो उनसे पहले भी था मोहम्मद यूनुस के निवास पर लेकिन वह औपचारिक भेंट थी ।मैं कह सकता हूं कि इस तरह की दूर वाली मुलाकात तो मार्च-अप्रैल, 1947 में रावलपिंडी में भी हो चुकी थी जब वे महात्मा गांधी के साथ लालकुर्ती की एक सार्वजनिक सभा में दीखे थे ।
वह सभा हमारे घर तोप खाना बाज़ार से ज़्यादा दूर नहीं थी जहां मैं अपने चाचा श्री परमानंद जी के साथ गांधी जी को देखने और सुनने के लिए गया था ।लाल कुरती में चाचा जी की ससुराल भी थी ।
वैसे ‘लालकुर्ती ‘ गफ्फार खान के खुदाई खिदमतगार यानी ‘मानव-मात्र की सेवा की भावना ‘ पैदा करने वाले कार्यकर्ताओं की पोशाक भी थी
मेरी उम्र तब ग्यारह बरस से कुछ अधिक थी ।
पख्तून उन्हें कई नामों से बुलाते हैं:जैसे ‘बाचाखान’,
‘सीमांत गांधी ‘, ‘बादशाह खान ‘आदि ।
खान अब्दुल गफ्फार खान बड़े प्यार से मिले ।जब मैंने उन्हें बताया कि हम लोग रावलपिंडी से आये हैं तो वे कुछ भावुक होकर आशीर्वाद वाले दोनों हाथ ऊपर उठा कर बोले,’ठीक हैं न ‘।
इस आशीर्वाद के बाद हम लोगों ने खुल कर बातें करनी शुरू कर दीं ।
उस समय उनकी देखभाल के लिए उनके कमरे में एक नर्स और एक और व्यक्ति मौजूद था ।उन दोनों को भी कुछ समय के लिए उन्होंने कमरे से बाहर भेज दिया । जब मैंने पूछा कि कैसी लगी मौजूदा कांग्रेस पार्टी और उसके नेता?वे हल्का सा मुस्कराए और बोले , ‘वक़्त के साथ काफी कुछ बदल जाता है ।’
राजीव गांधी को नेकदिल इंसान बताया
कांग्रेस प्रमुख और वज़ीरे आज़म राजीव गांधी नेक इंसान लगता है ।पंडित जवाहरलाल नेहरू का वह नाती और इंदिरा गांधी का बेटा है ।नफासत तो उन्हें घुट्टी में पिलायी जाती है ।
मुझे बहुत इज़्ज़त बख्शी । अपने नाना की बातें तो करता ही रहा,अपनी माँ और अपने मुल्क की भी बातें की।जवाहरलाल तो मेरे भाई जैसे थे ।एक बार गलतफहमी ज़रूर हो गई थी जो हम ने जल्दी ही सुलझा ली ।बाद में तो हमारा रोटी काट जैसा रिश्ता हो गया और कांग्रेस पार्टी के हर सम्मेलन में हम दोनों की राय शायद ही कभी मुख्तलिफ रही हो । और कई पुराने नेता भी मिले ।स्वतंत्रता संग्राम के वक़्त कुछ तो छोटे थे तो कुछ नन्हे ।खुशी की बात है कि वे सभी मेरे नाम से वाकिफ हैं ।
और गांधी जी के साथ आपके कैसे संबंध थे ? अब सीमांत गांधी बादशाह खान कुछ गमगीन हो गये ।ऐसा लगा मानो उन्हें कुछ करीबी लहमों की याद हो आयी हो ।कहां से शुरू करुँ और क्या क्या बताऊं ।उनका गला रुंध गया था ।
कबीलों को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा
दो लफ्ज़ में मैं इस तरह बयान कर सकता हूं कि सरहदी पेशावर के कबीलों की नेतागिरी से निकाल कर कांग्रेस में शामिल करने से लेकर हिन्दुस्तान के स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ने की शुरुआत उन्होंने ही की थी ।गांधी-इरविन समझौते में यह दर्ज है कि अगर किसी केस में हम दोनों को गिरफ्तार किया जाता है तो रिहाई भी साथ साथ होगी ।
एक बार ऐसा हुआ भी था ।लेकिन गांधी जी ने तुरंत लॉर्ड इरविन से कहा कि या तो गफ्फार खान को रिहा करो अथवा मुझे भी गिरफ्तार करो ।और मुझे फौरन रिहा कर दिया गया था ।
गांधी जी बहुत प्रेम करते थे बादशाह खानको
बहुत प्रेम करते थे गांधी जी मुझसे ।चाहे बारदोली दंगों की जांच करने के लिए जाना हो या रावलपिंडी अथवा पेशावर या लाहौर वे अक्सर मुझे साथ रखते थे।
उन्हीं की वजह से सीमांत के हम लोग कांग्रेस के साथ जुड़े थे ।शर्त सिर्फ एक ही थी स्वाधीनता संग्राम में उनका साथ देना ।उनकी लड़ाई भी ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ थी और हम सरहद के लोग अंग्रजों के ज़ुल्मों से आजिज़ आ चुके थे ।
सन् 1901 में जब अंग्रजों ने सीमा प्रांत को पंजाब से अलग कर फ़्रंटियर क्राइम्स रेगुलेशन ऐक्ट लागू कर दिया तो उससे पठानों के सम्मान,गरिमा और आत्मविश्वास को बहुत ठेस पहुंची और हम लोगों पर बेइन्तहा ज़ुल्म होने लगे तो डूबते को सहारा कांग्रेस और गांधीजी ने दिया।
यह पूछे जाने पर कि कांग्रेस के दूसरे नेताओं का उनके प्रति क्या रुख था तो बादशाह खान ने बताया कि सभी नेताओं ने सरहद के हम पश्तूनों का दिल खोलकर स्वागत किया चाहे पंडित नेहरू रहे हों या वल्लभभाई पटेल,अबुल कलाम आज़ाद या डॉ राजेन्द्र प्रसाद अथवा सुभाषचंद्र बोस।
देश के स्वाधीनता संग्राम में हमारी सक्रिय भूमिका के कौल का इस्तकबाल किया ।उन्हें यह भी पता चल गया कि हमारे खुदाई खिदमतगार स्वयंसेवक अहिंसा में यकीन रखते हैं और गांधी जी के भारत की आज़ादी के अहिंसक आन्दोलन में उनका महत्वपूर्ण रोल हो सकता है तो सभी नेताओं ने हमें गले लगाया ।
बेशक़ हमारे कांग्रेस में शामिल होने से अंग्रेजों की भवें तन गयी थीं, क्योंकि अब खुदाई खिदमतगार का दायरा सीमा प्रांत से बढ़ कर पूरा भारत हो गया था ।हमारा यह सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलन पूरी तरह से अनुशासित और अहिंसक था जो सत्य पर आधारित था और उसका मकसद बेकसूर लोगों के आत्म- सम्मान की रक्षा करना था ।खुदाई खिदमतगार को उसके लाल रंग की शर्ट से पहचाना जा सकता था जिसे कुछ लोग ‘लाल कुरती’ कहते तो कुछ ‘सुर्खपोश’।
असली गांधी तो एक ही है, हम सब उसके अनुयायी हैं
तो आपके अहिंसक खुदाई खिदमतगार आन्दोलन की वजह से आपको ‘सरहदी गांधी ‘ या ‘सीमांत गांधी ‘ कहा जाता है ।इस सवाल पर हंसते हुए बोले,भई असली गांधी तो एक ही है,हम तो सब उसके अनुयायी हैं ।
खुदाई खिदमतगार बहुत जल्दी सर्वप्रिय हो गया था जो पठानों का राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक आन्दोलन था।इस आन्दोलन की वजह से पठानों में प्रेम, मोहब्बत,भाईचारा,एकता, जातिभक्ति के साथ साथ राष्ट्रभक्ति भी पैदा हुई ।
अंग्रेजों का मानना था कि अहिंसावादी पठान हिंसावादी पठान से ज्यादा ख़तरनाक है
आम तौर पर पठानों को हिंसक माना जाता है लेकिन खुदाई खिदमतगार ने उनकी इस परिभाषा को ही बदल दिया।जब कभी हम अंग्रेजों से कहते कि हमारा यह आन्दोलन तो अहिंसक है तो इस पर उनका जवाब हुआ करता था,’अहिंसावादी पठान हिंसावादी पठान से ज़्यादा खतरनाक है ।’
गांधी जी की नज़रों में लॉर्ड इरविन अच्छे इंसान थे लेकिन उन्हें भी यह यकीन नहीं था कि पठान अहिंसावादी हो सकते हैं । वे कहते थे कि ‘पठान और अहिंसा?असंभव है ।’
इस पर गांधी जी ने उन्हें कहा था कि ‘ आपको चाहिए कि आप सीमा प्रांत में जाकर अपनी आंखों से देखें कि पश्तून किस हद तक अहिंसा में आस्था रखते हैं ।’
लॉर्ड इरविन ने गांधी जी की जुबान का मान रखा और सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया जो फर्ज़ी मामलों में गिरफ्तार किए गये थे ।
हमारे अहिंसात्मक आन्दोलन ने पठानों के दिलों से डर और शक़ पूरी तरह से खत्म कर दिया और उसकी जगह ली हिम्मत और बहादुरी ने ।ऐसी प्रतिष्ठा, उनके ऊंचे चरित्र और अनुशासन के कारण ही हिंदुस्तान की जंगे आज़ादी में खुदाई खिदमतगारों की खिदमात खुले दिल से हासिल की गयीं जिन के अहम रोल को गांधी जी ने भी तस्लीम किया था ।
सन् 1939 बंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस अधिवेशन में मुझे पार्टी का अध्यक्ष नियुक्त करने का फैसला हो गया और इस बाबत डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने सूचित किया कि वे इस्तीफ़ा दे रहे हैं और उनके स्थान पर बाचा खान यानी मुझे अध्यक्ष चुना गया है ।मैंने फौरन तार से इत्तला दे दी कि ‘मैं एक सिपाही हूं,खुदाई खिदमतगार हूं और खुदाई खिदमतगारी ही करूंगा ।’
कुछ लोगों का यह भी मानना रहा है कि कांग्रेस में आपके शामिल हो जाने के बावजूद कुछ बड़े नेताओं से आपके खयालात वैसे नहीं मिलते थे जैसे गांधी जी और पंडित नेहरू के, मसलन सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद..?
सरदार पटेल के पिता जी ने पठानों पर चल रहे जुल्मों की दास्तान को उजागर किया था
बीच में मुझे रोकते हुए खान अब्दुल गफ्फार खान ने कहा कि गलतफहमियां फैलाने वाले हर जमात में होते हैं,ज़रूरत है ऐसे लोगों से दूर रहने की।हम यह कैसे भूल सकते हैं कि सरदार पटेल के वालिद विट्ठल भाई पटेल,जो उस वक़्त सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के माननीय स्पीकर थे, ने रावलपिंडी में बैठकर सीमा प्रांत पर ढाये जाने वाले ज़ुल्म का विस्तृत ब्योरा भारत भर के अखबारों को न भेजा होता तो हमें कांग्रेस में क्यों शुमार किया जाता ।
विट्ठल भाई पटेल पेशावर के क़िस्सा खानी बाज़ार के उस गोलीकांड का जायजा लेने के लिए असेंबली द्वारा तैनात किये गये थे जिस में बड़ी तादाद में खुदाई खिदमतगार मारे गये थे मगर अंग्रेज़ हुकूमत ने उन्हें वहां जाने की इज़ाजत नहीं दी थी। लिहाज़ा रावलपिंडी में बैठकर कुछ चश्मदीद गवाहों के आधार पर अंग्रेजों के ज़ुल्म की कहानियों का सिर्फ हिंदुस्तान को ही नहीं सारी दुनिया को वाक़िफ कराया था ।ऐसे बाप के बेटे से हमारे रिश्ते कैसे तुर्श हो सकते हैं ।
सुना जाता है कि आप और गांधी जी हिंदुस्तान के बंटवारे के हक़ में नहीं थे तो यह विभाजन हुआ कैसे और क्यों?
उनका जवाब था,’ जहां तक मैं समझता हूं कि कुछ बड़े नेताओं की यह दलील थी अंग्रेज़ तो जायें हमें विभाजन मंज़ूर कर लेना चाहिए ।’
इसके साथ एक पेंच और भी फंसा हुआ था सीमा प्रांत में जनमत संग्रह कराने का ।मैं और गांधी जी दोनों जनमत संग्रह के विरुद्ध थे ।लेकिन कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने देश का विभाजन और सीमा प्रांत में जनमत संग्रह दोनों पर अपनी सहमति प्रदान कर दी ।
यह फैसला मेरे लिए मौत का फैसला था ।मैं हैरान और परेशान था । मेरे ज़ख्मों पर नमक छिड़कते हुए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने सुझाव दिया कि मुझे मुस्लिम लीग में शामिल हो जाना चाहिए । मुझे मौलाना की सलाह पर बहुत दुख हुआ क्योंकि कुछ समय पहले तक हम दोनों सैद्धांतिक और वैचारिक तौर पर मुस्लिम लीग की नीतियों के खिलाफ थे ।
मुस्लिम लीग विनाश में लगी थी
मुस्लिम लीग जहां विनाश के लिए काम कर रही थी वहां मैंने अपनी सारी ज़िंदगी निर्माण-कार्य में लगा दी । मैंने गांधी जी से कहा कि हम पठान आप लोगों के साथी हैं तथा भारत की स्वाधीनता के लिए बहुत कुर्बानियां दी हैं लेकिन आप लोगों ने हमें छोड़ दिया और भेड़ियों के हवाले कर दिया ।खान अब्दुल गफ्फार खान के दिल का दर्द उस समय ज़ुबान पर आ गया जब उन्होंने कहा कि हमने तो कांग्रेस को नहीं छोड़ा लेकिन कांग्रेसियों ने हमें छोड़ दिया।अगर हम कांग्रेस को छोड़ देते तो अंग्रेज़ हमें सब कुछ देने को तैयार था ।
हक़ीक़त को समझते हुए आपने तो भारत और पकिस्तान को अलग देश के तौर पर स्वीकार कर लिया था लेकिन पाकिस्तान की हुक़ूमत क्यों आपको शक़ की नज़र से देखती रही?
खान अब्दुल गफ्फार खान ने उदासी भरे लहजे में कहा कि इसे हम अपनी बदकिस्मती ही कहेंगे।हम ने तो हुक़ूमत से कहा था कि जिस तरह से आपके पंजाब, सिंध,पूर्वी पाकिस्तान बलूचिस्तान सूबे हैं वैसे ही पुश्तूनिस्तान भी रहेगा ।मुझे लगता है उनका मकसद दीगर था।
हम ने हुक़ूमत को भरोसा दिलाया कि हम मुल्क में कोई हिस्सा नहीं मांगेंगे बल्कि मुल्क के वफादार शहरी होने के नाते उसकी तरक्की और बहबूती के लिए कदम से कदम मिलाकर चलेंगे ।
पाकिस्तान सरकार ने बादशाह खान पर बेइंतहा जुल्म ढाये
पाकिस्तान की सरकार पर मेरे इन विचारों का कोई असर नहीं हुआ और मुझ पर निर्माण की आड़ में ध्वंस का इल्ज़ाम लगकर गिरफ्तार कर लिया गया ।
मुझ पर कबाइलियों से मिलकर साजिश रचने का भी आरोप लगा ।मेरे बेटे वली खान और गनी खान को भी हिरासत में ले लिया गया ।बिना किसी अपराध के हम पर बेइन्तहा ज़ुल्म ढाये गये ।इतने तो फिरंगियों ने भी अपने शासनकाल में नहीं किए थे, उन्होंने न तो हमारे घरों को लूटा था, न ही महिलाओं का अपमान किया था और न ही हमारे अखबारों पर रोक लगाई थी ।
पंद्रह साल इस्लामी सरकार की जेल
लेकिन हमारी अपनी इस्लामी सरकार ने सारी हदें पार कर दीं ।ऐसा ही जेलों में इस्लामी सरकार का बर्ताव था जो गोरों के मुकाबले दस गुना ज़्यादा बुरा था । 15 साल मैं गोरी हुकूमत के वक़्त जेल में रहा और 15 ही बरस इस्लामी शासन के अधीन । इनके वक़्त मेरे गुर्दे की खराबी हो गयी और मेरे पैरों में सूजन आ गयी ।वहां की जेलों के जेलर गलतसलत दवाएं देकर मेरा रोग बढ़ाते रहे । जब रोग बहुत बढ़ गया तो इलाज कराने के लिए मुझे जुलाई,1964 में रिहा कर दिया गया। सितम्बर में अपने इलाज के लिए लंदन चला गया और दिसंबर में वहां से लौट कर मैंने अफ़ग़ानिस्तान में रहते हुए पख्तुनिस्तान की प्राप्ति के लिए पुरअमन आन्दोलन की शुरुआत की जिसमें मुझे सभी कबीलों का समर्थन प्राप्त हुआ ।
यह पूछे जाने पर कि क्या पाकिस्तान की सरकार को यह इल्म नहीं था कि आपकी लड़ाई अंग्रेज़ हुक़ूमत के ख़िलाफ़ थी जिस में हिन्दू-मुसलमान-सिख-ईसाई सभी शामिल थे।शुरू शुरू में मोहम्मद अली जिन्ना भी तो स्वतंत्रता संग्राम में शामिल थे,बाद में अंग्रजों की शह पर उन्होंने अलग मुल्क की आवाज़ बुलंद की थी?
पाकिस्तानी लोग गोरों के तलवे सहलाते रहे
बादशाह खान का कहना था ‘इस्लामी सरकार हर चीज़ से वाक़िफ थी लेकिन आज़ादी के बावजूद वहां के
कारकून अंग्रजों के पिट्ठू बने रहे जबकि भारत सरकार खुदमुख्तियार हो गयी थी। पाकिस्तानी लोग गोरों के तलवे सहलाते रहे ।जिन्ना जल्दी इंतकाल फरमा गये, उनके बाद वज़ीरेआज़म लियाकत अली भी ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा नहीं रहे ।लिहाजा मुल्क में अफरातफरी का माहौल था ।दूसरी तरफ पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली मुसलमान पंजाबी मुसलमानों में अपने आपको अनफिट महसूस कर रहे थे ।नतीजतन पाकिस्तान की जम्हूरियत का जनाजा निकल गया और मुल्क में जनरल अय्यूब खान ने मार्शल लॉ लागू कर गद्दी संभाल ली ।
जनरल अय्यूब खान तो पठान था उन्होंने आपके प्रति कोई हमदर्दी का रुख नहीं अपनाया ?
बाचा खान का जवाब था कि मुंह ज़ुबानी वह बहुत कुछ कहता था और मुझे ‘चचा ‘ भी कहता था लेकिन लगता है उसे भी हुकूमत का या तो गरूर हो गया था या व्यवस्था ने उसे कुछ उल्टा सीधा पढ़ा दिया था ।अगर पठान दूसरे पठान या पूरी पठान जाति का दर्द न समझे तो वह हाकिम हमारे किस काम का ।
वहां के हुक्मरानों को आपसे चिढ़ किस बात को लेकर थी, के जवाब में बादशाह खान ने बताया था कि मैं कांग्रेस में क्यों गया,मुस्लिम लीग में शामिल क्यों नहीं हुआ । इसके जवाब में जब मैंने उन्हें बताया कि मैं सबसे पहले शामिल होने के लिए तो मुस्लिम लीग के पास ही गया था लेकिन उन्होंने कोई तवज्जो नहीं दी।तो मायूस होकर मैं कांग्रेस के पास गया और उन्होंने मुझे सिर आँखों पर बिठा लिया और जितनी इज़्ज़त मुझे वहां बख्शी गयी जो आज भी बख्शी जा रही है ,वह मुझे हरगिज़ मुस्लिम लीग में न मिलती ।
मुझे मुस्लिमलीगी ‘देशद्रोही’ मानते हैं जब कि मैं खुदाई खिदमतगार हूं जिस का मकसद है इंसानियत की खिदमत करना और दुनिया भर में भाईचारे कापैगाम पहुँचाना । क्योंकि पाकिस्तान की नींव नफरत पर रखी गयी थी इसलिए उसे घुट्टी में ही नफरत, ईर्ष्या, द्वेष,दुश्मनी, दुर्भावना मिली थी।
अंग्रेजों ने पाकिस्तान का निर्माण इसलिए किया ताकि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दंगे फसाद हमेशा होते रहें ।अगर उनकी ऐसी सोच न होती तो महज़ मज़हब के नाम पर दूरदराज़ के बंगाल को पंजाब की तरह दोफाड़ क्यों करते जो सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर पश्चिमी पंजाब से मेल नहीं खाता था ।यही हाल सिंध, बलूचिस्तान और हम पख्तूनों का है । यही वजह है कि जम्हूरियत पाकिस्तान को रास नहीं आयी और पूर्वी पाकिस्तान अब बांग्लादेश बन गया है । बाकी के सूबे भी उससे पिंड छुड़ाने के लिए छटपटा रहे लगते हैं। लेकिन इन सूबों पर कुछ तो आबादी की अदला-बदली करके और कुछ फौज की बंदूकों के बल पर अपने कब्जे में रखे हुए है । आख़िर ऐसा कब तक चलेगा ?
आज खान अब्दुल गफ्फार खान दिलखोल कर बात करने के मूड में थे ।मुझे लगा कि एक बार अपने मन का दर्द उड़ेल देना चाहते हैं ।इतनी बातें करते देख बादशाह खान की देखरेख करने वालों को भी लगता है ताज्जुब हुआ था ।मैंने खान साहब का शुक्रिया अदा किया और जब रुखसत होने लगा तो मेरी पीठ पर हाथ फेर कर आशीर्वाद देते हुए कहा कि ‘आपसे मिलकर ऐसे लगा जैसे मैं अपने मुल्क के किसी बंदे से मिल रहा हूं। वैसे रावलपिंडी पेशावर से ज़्यादा दूर नहीं है ।’
चलते चलते मैंने पूछ ही लिया,यहां से कहां जायेंगे ।पूरी तरह से सेहतमंद होने के बाद ही मैं हिंदुस्तान छोड़ूंगा और इरादा अफ़ग़ानिस्तान जाने का ही है ।वहां पहुंच कर लोगों से सलाह मशविरा कर के ही पाकिस्तान जाऊंगा ।मुझे मालूम है कि वहां मेरी आज़ादी खतरे में है ।अगर जेल नहीं तो नज़रबंदी शर्तिया है ।हाथ ऊपर करते हुए बोले ‘इन्शाल्लाह ।’
खान अब्दुल गफ्फार खान से इतनी लंबी और विविध मुद्दों पर की गयी मुलाकात ‘दिनमान’का एक स्कूप था ।इसे कवर स्टोरी बनाया गया और शायद कवर भी बादशाह खान का था ।मुझे याद पड़ता है कि पूरी की पूरी बातचीत छापी गयी थी ।
उनके पुत्र वली ख़ान से मुलाक़ात
1990में अपने पाकिस्तान के दौरे के दौरान पेशावर के पास चारसदा में जब मैंने उनके पुत्र वली खान से बादशाह खान से इस लंबी बातचीत का ज़िक्र किया तो वे बहुत खुश हुए ।
उन दिनों मैं ‘संडे मेल ‘ में कार्यकारी संपादक था और एक मिशन पर पाकिस्तान गया था ।वह मिशन था गैर-राजनीतिक तरीके से भारत और पाकिस्तान के लोगों के बीच दोस्ती और भाईचारे को बढ़ाने के लिए एक सम्मेलन आयोजित करना ।
उद्योगपति और ‘संडे मेल ‘ के मालिक संजय डालमिया का यह मानना था कि राजनीतिक तौर पर तो दोनों देशों के मसले तो हल होने से रहे, क्यों न गैर-राजनीतिक तौर पर इस दिशा में प्रयास किये जायें।उनका मानना था कि भारत में तो ऐसे सकारात्मक विचार वाले लोगों की कमी नहीं है ।
पाकिस्तान यात्रा का खास मिशन
हमें पाकिस्तान में ऐसे सोच वाले लोगों को तलाशने की ज़रूरत है । उनके इस मकसद को लेकर मैं पाकिस्तान की टोही यात्रा पर गया था ।लाहौर , इस्लामाबाद, रावलपिंडी और मुज़फ्फराबाद के बाद जब मैं पेशावर पहुंचा तो सौ से अधिक अतिविशिष्ट लोगों की मुझे सहमति मिल चुकी थी जिसमें संस्कृतिकर्मी, पूर्व राजनयिक, पूर्व न्यायाधीश,पूर्व मंत्री,उपकुलपति,पत्रकार आदि शामिल थे ।
इसी सिलसिले में जब वली खान से मिला तो उन्हें भी यह विचार बहुत पसंद आया ।उन्होंने तुरंत अपनी सहमति देते हुए कहा कि अगर मेरी सेहत ने मुझे इज़ाजत दी तो अपने बिछुड़े हुए भाइयों से मिलने के लिए मैं खुद ही हाज़िर हो जाऊंगा वर्ना अवामी नेशनल पार्टी का कोई सीनियर पदाधिकारी उस सम्मेलन में शिरकत करेगा ।
वली खान ने अपना कौल रखा और उन्होंने अजमल खटक को अपनी पार्टी की तरफ से भेजा जो खुद बाहैसियत पश्तो के लेखक, शायर और खुदाई खिदमतगार थे और वली खान के अवकाश ग्रहण करने के बाद अवामी नेशनल पार्टी के प्रेसीडेंट और पकिस्तान नेशनल असेंबली के सांसद भी थे।
धरती उन सब की है जो इस पर पैदा हुई। जिन्हें अपनी मातृभूमि से निष्कपट प्रेम रहा उन्हें तो संजोकर रखना चाहिए। आदरणीय अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर देश में नया कुछ भी बनाया जा सकता है जो अद्वितीय हो। सामर्थ्य तो है, सरकार में इसकी प्रबल इच्छा होनी चाहिए। सीमान्त गाँधी अनेक सन्दर्भों में वरेण्य हैं। उन्हें शत्-शत् नमन।
अति महत्त्वपूर्ण मुद्दे को उठाने पर ‘मीडिया स्वराज’ भी स्तुत्य है।
अटलजी के नाम पर तो कुछ बेमिसाल बना सकते हैं!
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यह पृथ्वी उन सब की है जो इस पर पैदा हुए। जिन्हें अपनी मातृभूमि से निष्कपट प्रेम रहा उन्हें तो संजोकर रखा जाना चाहिए। फ़रीदाबाद (हरियाणा) स्थित “बादशाह खान अस्पताल” का नाम बदला जाना अनुचित है। उन्हें भारत की एक ‘संवैधानिक प्रभुतासम्पन्न सरकार’ ने ‘भारत रत्न’ से अलङ्कृत किया था। आदरणीय अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर देश में नया कुछ भी बनाया जा सकता है जो अद्वितीय हो। क्या उनका योगदान इतना ही है कि एक पुराने और अपेक्षाकृत छोटे अस्पताल या भारी वायु प्रदूषण से युक्त चौराहों का नाम उनपर करके ‘इति’ कर ली जाए। छोटे सामर्थ्य तो है, सरकार में इसकी प्रबल इच्छा होनी चाहिए।
सीमान्त गाँधी खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान अनेक सन्दर्भों में वरेण्य हैं। उन्हें शत्-शत् नमन।
अति महत्त्वपूर्ण मुद्दे को उठाने पर ‘मीडिया स्वराज’ भी स्तुत्य है।
जी. आपने सही कहा. और यही इस लेख की भावना भी है.
धन्यवाद।
बधाई।
‘सीमान्त गांधी’ खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान उर्फ़ ‘बादशाह: खान के नाम पर फ़रीदाबाद में चल रहे सत्तर साल पुराने अस्पताल का नाम बदला जाना आपत्तिजनक के साथ निन्दनीय भी है। सीमान्त गाँधी महान स्वतंत्रता सेनानी थे। 1987 में उन्हें में राष्ट्र के सर्वोच्च अलंकरण ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था। अहम बात यह है कि अस्पताल को इलाके के लोगों ने ख़ुद धन जुटाकर बनवाया था।
यह हस्पताल शहर के न्यू इण्डस्ट्रियल टाउन में स्थित है जिसका नाम बदलते हुए इसे अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर कर दिया गया। सीमान्त गाँधी ‘बादशाह खान’ पर इसके निर्माण में के नाम पर वहाँ के लोगों ने अपने पैसे और मेहनत से बनाया था। इसका उद्घाटन 5 जून 1951 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने किया था।
https://youtu.be/-9HhE0S53AA