प्रेस की आजादी और लोकतंत्र

रामशरण

            3 मई प्रेस की आजादी के महत्व को समझने का दिन है। प्रेस पूरी दुनिया की आजादी के लिए लड़ने वाला समुदाय है। पर भारत में इसकी भूमिका उलट गई है। ऐसा आजादी के पहले नहीं था। गांधी, तिलक, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे अनेक लोगों ने पत्रकारिता को स्वतंत्रता आन्दोलन का औजार बनाया था। शांतिपूर्ण आन्दोलन केलिए पत्रकारिता का विशेष महत्व है। इसलिए तोप के मुकाबिल अखबार निकालने की बात कही जाती है। ऐसा नहीं था कि आजादी के पहले सभी प्रेस सत्ता के विरोधी थे। लेकिन बड़े बड़े अखबारों में संपादकों को काफी आजादी रहती थी और उनकी सहानुभूति जनता के साथ रहती थी। लेकिन छोटे अखबार ज्यादा प्रगतिशील थे।
               आजादी के बाद अखबार चलाना धीरे धीरे कठिन होता गया। जिन अखबारों को विज्ञापन मिल सका वे ही टिक सके, शेष खत्म हो गए। विज्ञापन का मुख्य श्रोत तो सरकार ही थी। अखबारी कागज के लिए भी सरकार पर निर्भरता हो गई। लेकिन शुरुआती दौर मे सत्ता का हस्तक्षेप अखबारों की नीतियों मे नहीं के बराबर होता था। जैसे जैसे नयी और मंहगी तकनीक आती गई और पत्रकारों के वेतन आदि मे वृद्धि होती गई ,सरकार पर निर्भरता बढती गई। सत्ता ने भी अखबारों के प्रभाव को समझा। सत्ता का जनता से जुड़ाव कम होने लगा तो यह हस्तक्षेप धीरे धीरे बढते हुए सीमा पार कर गया है। यह समस्या सिर्फ अखबारों नहीं टीवी चैनलों आदि मे भी आगयी है।
               यह एक वास्तविकता है कि छोटे देशों में लोकतंत्र का संचालन ज्यादा आसान होता है क्योंकि लोग एक दूसरे के बारे में आसानी से जानकारी पा लेते हैं। लेकिन भारत जैसे विशाल देश में जनता अपने राजनेताओं के बारे में मीडिया से ही जानकारी पाती है। अखबारों और टीवी चैनल की विश्वसनीयता ही उसे लोकतंत्र का मजबूत खंभा बनाती है। BBC इसका अच्छा उदाहरण है, जिसने फाकलैंड युद्ध के दौरान अपने देश की गलतियों को भी उजागर किया था। भारत में दूरदर्शन और आकाशवाणी से भी ऐसी ही उम्मीद थी पर इसमें न कांग्रेस की रुचि थी न भाजपा और अन्य दलों की। इसके बदले निजी चैनलों को बढावा दिया गया, जो सिर्फ अपने मालिक के फायदे के लिए काम करती हैं। उद्योगपति साफ तौर पर इसे व्यवसाय घोषित करने में जरा भी शर्मिंदा नहीं होते हैं। प्रसिद्ध मीडिया मुगल कैरी पैकर ने अपने मीडिया साम्राज्य के बल पर इंगलैंड की राजनीति में हस्तक्षेप करने की कोशिश की थी, पर असफल रहा। लेकिन भारत के अधिकांश मीडिया प्रमुख सत्ता की मदद पाने के लिए सरकार की भरपूर मदद करते हैं। लेकिन ग्रहक संख्या बचाने के लिए कुछ न कुछ सच बोलना ही पड़ता है। जबसे उद्योगपतियों ने मिलकर मोदीजी को प्रधानमंत्री बनाया है तब से यह सांठगांठ और भी बढ गई है। देश और दुनिया के सबसे बड़े उद्योगपतियों में शामिल अडाणी और अंबानी ने अधिकांश टीवी चैनलों को खरीद कर मोदीसरकार की सेवा में लगा दिया है। इसके बाद ही वे दुनिया के सबसे बड़े अमीरों में शामिल हो सके हैं। जो अखबार या मीडिया मालिक जरा सी सरकार विरोधी कदम उठायें उनपर दैनिक भास्कर की तरह छापे पड़ने शुरू हो जायेंगे।
               आज अखबारों में नियुक्त कर्मचारियों मे भी नैतिकता का अभाव है। नीरा राडिया मामले में यह उजागर हो गया है कि अनेक पत्रकार सत्ता और उद्योगपतियों के बीच दलाली का काम करते हैं। उनकी तुलना आजादी के पहले के राष्ट्रभक्त पत्रकारों से करना ही गलत होगा। हालांकि कुछ पत्रकार ईमानदारी बरतने की कोशिश करते हैं। उन्हें कितनी छूट मिलती है, यह उनके मालिकों पर निर्भर करता है। जब से मीडिया में पत्रकारों की नियुक्ति कांट्रेक्ट के आधार पर होने लगी है, उनकी आजादी खत्म हो गई है। यदि कोई पत्रकार सरकार की या मालिक की इच्छा के विरुद्ध जरा सा भी जाता है तो उसे तुरंत निकाल दिया जाता है। संपादक तक को बदल दिया जाता है।पुराने सिस्टम में ऐसा करना कठिन होता था। इसके अलावा सरकार कई पत्रकारों पर नियंत्रण नहीं पाती है तो उन्हें गिरफ्तार करने और अपमानित करने में भी परहेज नहीं करती है। कई पत्रकारों की तो हत्या भी करा दी जाती है।
               इन परीस्थितियों मे यह आवश्यक है कि कानून में ऐसे बदलाव लाये जायें ,जिससे पत्रकारिता जगत मे वे ही उद्योगपति प्रवेश कर सकें जो किसी अन्य उद्योग से नहीं जुड़े हुए हों। साथ ही मीडिया में कांट्रेक्ट सिस्टम को खत्म किया जाये। सबसे जरूरी है कि न्यायालय की निगरानी में एक स्वतंत्र एजेंसी की स्थापना हो जो सरकारी विज्ञापनों का ईमानदारी से वितरण करे। यह लोकतंत्र की रक्षा के लिए जरूरी है।
               इसलिए आजकल जनता सोशल मीडिया पर ज्यादा भरोसा करती है। यूट्यूब या ट्विटर आदि का उपयोग बढता जा रहा है। लेकिन ये भी खतरे से खाली नहीं हैं। व्हाट्सएप युनिवर्सिटी को चलाने वाली ट्रोल आर्मी कभी भी दंगा करा सकती है। पिछले लोकसभा चुनाव में ट्रोल आर्मी ने महीनों तक डोकलाम आदि पर बहस चला कर जनता को उलझाये रखा और वास्तविक मुद्दों पर चर्चा नहीं होने दी। इसका प्रत्यक्ष लाभ चुनाव में भाजपा को मिला। इसमें फेसबुक और व्हाट्सएप के मालिकों की नीतियां भी संदिग्ध हैं। अब एलन मस्क ट्विटर मे भी मनमानी करने जा रहे हैं।

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