उत्तराखंड विशेष : ब्रेक लगाइए, अगले मोड़ पर प्रलय इंतज़ार कर रहा है…
स्थिति बिगड़ेगी नहीं, बिगड़ने लगी है
कहते हैं पहाड़ों पर गाड़ी चलाते हुए मोड़ों में हॉर्न का प्रयोग करें पर जिस तरह से इस साल पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड ने मनुष्य द्वारा पर्यावरण के साथ करी गई छेड़छाड़ का नतीज़ा भयंकर आपदाओं के रूप में देखा है, उसके बाद अब शायद पहाड़ पर आने के बाद कहा जाए- ब्रेक लगाइए, अगले मोड़ पर प्रलय इंतज़ार कर रहा है.
हिमांशु जोशी
@Himanshu28may
बात ज्यादा पुरानी नहीं है. जब साल 2019 में ग्रेटा थनबर्ग ने संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण के दौरान विश्व नेताओं को पर्यावरण बिगाड़ने पर कटघरे में खड़ा कर दिया था, एक बच्ची संयुक्त राष्ट्र में हमारे हक के लिए लड़ रही थी और हम चैन की नींद सोए थे. सोए इसलिए क्योंकि तब खुद पर ज्यादा नहीं बीत रही थी, वैसे भी दुनिया का उसूल है कि जब खुद पर बीतती है तब सच्चाई महसूस होती है.
डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट में लिखा है कि पॉट्सडैम यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार हिमालय क्षेत्र की हजारों प्राकृतिक झीलों पर बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है. इसके लिए उन्होंने बढ़ते तापमान को जिम्मेदार माना है. वैज्ञानिकों के अनुसार इसके चलते घाटियों में बहने वाली नदियों पर भी बाढ़ का खतरा बढ़ गया है. रिपोर्ट में भी कहा गया है कि खतरा बढ़ गया है पर पिछले कुछ सालों में उत्तराखंड के साथ-साथ भारत के कुछ अन्य हिस्सों, जैसे- उड़ीसा और असम पर नज़र डालें तो पता चलेगा कि खतरा बढ़ा नहीं है बल्कि अब हम उस खतरे से गुज़रने लगे हैं.
उत्तराखंड में आपदा पर आपदा
उत्तराखंड में आपदा : उत्तराखंड में साल 2013 की भीषण आपदा के बाद इसी साल 7 फरवरी को चमोली में ग्लेशियर टूटने से आपदा आई और अब अक्टूबर में फिर प्रदेश बाढ़ का कहर झेल रहा है. स्थिति यह है कि बाढ़ आने के चार-पांच दिन बाद भी उससे हुए नुकसान का आकलन करना भी अब तक सम्भव नहीं हो पाया है.
उत्तराखंड के मुक्तेश्वर में 1 मई 1897 से बारिश के आंकड़े दर्ज किये जा रहे हैं. यहां अब तक 24 घंटे के दौरान सबसे ज्यादा बारिश 18 सितम्बर 1914 को 254.5 मिमी दर्ज की गई थी, जबकि इस बार यहां 24 घंटे के दौरान 340.8 मिमी बारिश हुई है.
हिमालयी और मैदानी क्षेत्र होने के कारण उत्तराखंडवासी इस बार एक ही रात में एक साथ अलग-अलग परिस्थितियों से जूझे.
सोचें पहाड़ों में आप एक रात चैन से सोए हुए हैं और खूब सारा कीचड़ लिए तेज़ बहाव के साथ पानी आपके घर में घुस आपका दम घोंट आपकी जान ले शांत हो जाए या आप इस डर से रात भर अपने बच्चों को गले से लगाए बैठे रहें कि कहीं कोई सैलाब आपके घर न घुस जाए.
वहीं, मैदानी क्षेत्र में आप रात भर अपने घर के कीमती सामानों को बाढ़ में बहने से रोकने का प्रबंध करते रहें.
अक्टूबर माह में आई बेमौसम बरसात ने उत्तराखंड वालों का बिल्कुल यही हश्र किया है. इसके शिकार वे पर्यटक भी हुए हैं, जो सुकून की तलाश में उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में घूमने आए थे.
सोशल मीडिया पर बहुत सी पोस्ट छाई हुई हैं, जहां पुलिस और सेना के जवान बाढ़ प्रभावित लोगों को बचाने में जुटे हुए हैं.
इनमें कुछ तस्वीरों में पुलिस के जवान पहाड़ों में भारी बारिश से किसी के घर में घुसे मलबे के बीच उस घर में रहने वालों की दबी लाशों को खोज रहे हैं तो कुछ तस्वीरों में पुलिस-सेना के जवान खतरे में फंसे लोगों को तेज बहाव से निकाल रहे हैं.
नदी किनारे बने घर उसमें समा जा रहे हैं तो मैदानी जगह बाढ़ में बाइक, कारों की तैरती तस्वीर भी वायरल हो रही हैं.
बाढ़ पर राजनीति
लोग मुसीबत में फंसे हैं तो बाढ़ पर राजनीति भी कम नहीं हो रही. सोशल मीडिया पर प्रदेश के मुख्यमंत्री का बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में हेलीकॉप्टर से किया दौरा विवाद का विषय बना है तो कहीं सड़क मार्ग से आपदा ग्रस्त इलाकों में पहुंचने पर उनकी वाहवाही हो रही है.
सड़क भी है इस मुसीबत की जिम्मेदार
वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए ऑल वेदर रोड पर कार्य शुरू हुआ. इस सड़क से पर्यावरण को होने वाले नुक़सान को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक हाई पावर कमेटी गठित की, जिसके अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने अपनी रिपोर्ट में सड़क की चौड़ाई 12 मीटर रखना ठीक नहीं बताया था और इसको सिर्फ 5.5 मीटर तक ही रखने की सिफारिश की थी पर प्रकृति की चिंता किसे थी और वैसे भी इससे होने वाले नुकसान को उन पहाड़ों में रहने वाले लोग ही झेल रहे हैं.
गम्भीर बीमारियों से जूझ रहे मरीजों के लिए अस्पताल तक पहुंचने के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं या अस्पताल तक पहुंचने में ही उनकी जेब कुतर जा रही है.
जो हुआ सो हुआ
बाढ़ और प्रकृति का तांडव फ़िलहाल थमा हुआ है पर अब जिस अंतराल पर ये आपदाएं आने लगी हैं, उन्हें देख भविष्य में इस तरह की आपदाओं से कम से कम नुकसान हो, इसके लिए हमें अभी से कार्य शुरू करने होंगे.
वर्ल्ड मीटरोलॉजिकल आर्गेनाइजेशन और ग्लोबल वाटर पार्टनरशिप ने मिलकर बाढ़ प्रबंधन प्रोग्राम पर कार्य किया. अमरीकी कम्पनी ने सुनामी जैसी आपदा के वक्त सुरक्षित बचने के किए सुनामी बॉल बनाई तो चीन में स्पंज सिटी की अवधारणा बनी.
वर्ल्ड मीटरोलॉजिकल आर्गेनाइजेशन और ग्लोबल वाटर पार्टनरशिप की रिपार्ट के अनुसार पहाड़ों में बाढ़ से होने वाले नुकसान के मुख्य कारणों में पहाड़ों की ढलान पर वनों की अत्यधिक कटाई पहले नम्बर पर आता है. आज आप पूरे हिमालयी क्षेत्र घूम आइए, सड़क की सनक ने रास्ते के सभी पेड़ों को खत्म कर दिया है. सड़क पर आधे लटके वह पेड़ अपना बदला लेने के लिए हमेशा सड़क पर लटक किसी के ऊपर गिरने का मौका देखते हैं.
स्थानांतरित कृषि, जिसमें वृक्षों और वनस्पतियों को जला दिया जाता है, फिर उसमें नए बीज बोए जाते हैं, इस वज़ह से भी पहाड़ कमज़ोर हुए हैं और तेज़ बहाव में टूट जाते हैं.
आद्रभूमि की कमी और इसके साथ पहाड़ों में जानवरों की अत्यधिक चराई की वजह से भी पहाड़ कमज़ोर होते जाते हैं.
बाढ़ के बारे में थोड़ा अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि बाढ़ मुख्यतः चार तरीकों से आती हैं.
फ्लुवियल में अत्यधिक बारिश से या बर्फ गलने से नदी का जलस्तर बढ़ जाता है. उत्तराखंड में इसी तरह की बाढ़ कोहराम मचाती है. अभी आई बाढ़ में नैनीताल की झील का स्तर इतना बढ़ गया था कि सड़क और झील में अंतर करना मुश्किल हो रहा था.
प्लूवियल बाढ़ में बारिश के पानी की निकासी की सुविधा अच्छी न होने की वजह से शहर की गलियों में पानी भर जाता है. मुंबई- दिल्ली हो या उत्तराखंड का रुद्रपुर, सबमें इसी तरह की बाढ़ आती है.
फ्लैश बाढ़ में बांधों से तेज़ी से पानी आता है और इस तरह की बाढ़ खतरनाक होती है. कोस्टल बाढ़ का उदाहरण सुनामी है.
रिपोर्ट के अनुसार, बाढ़ प्रबंधन के लिए प्रशासन, नेताओं, गैर सरकारी संगठनों और भवनों का निर्माण करने वालों को साथ मिलकर काम करना होगा.
बाढ़ हमेशा एक सी नहीं होती और उसकी तैयारी भी पहले जैसी नहीं होनी चाहिए. नगरीकरण से यह समस्या बढ़ती ही जाएगी क्योंकि नदी, नालों को अपना रास्ता नहीं मिलेगा और वह बार-बार लौटकर अपने रास्ते पर आएंगे ही.
रिपोर्ट में कहा गया है कि बाढ़ के समय सही रास्ता बताने के लिए सड़क पर निशान लगाने चाहिए क्योंकि ऐसी स्थिति में लोग गड्ढों पर भी गिर सकते हैं. साथ ही हमें घर भी ऐसे बनाने होंगे, जिन पर बाढ़ का असर कम से कम हो.
बाढ़ के असर को कम करने के लिए तीन तरह के घर बनाने का सुझाव दिया गया, जिसमें ऐसा घर शामिल है, जो उठा हुआ बनाया जाए. दरवाजों-खिड़कियों को बंद कर पानी रोकने वाला घर भी बनाया जा सकता है, जिसे ड्राई फ्लड प्रूफिंग कहा गया है.
वेट फ्लड प्रूफिंग नाम के घरों को ऐसा बनाया जाता है, जिसमें घर के अंदर पानी आने के बाद भी उसका असर कम से कम हो. अगर ऐसे ही घर पहाड़ी क्षेत्रों में बनाए जाएं तो कई जानें बचाई जा सकती हैं.
सुनामी बॉल और स्पंज सिटी
सुनामी जैसी आपदाओं को झेलने के लिए एक अमरीकी कम्पनी ने सुनामी बॉल का निर्माण किया और भारत के असम जैसे बाढ़ग्रस्त इलाकों में यह सुनामी बॉल वरदान साबित हो सकती है. सुनामी बॉल का प्रयोग किया जाना आवश्यक है.
‘द हिन्दू’ में पिछले साल आई एक रिपोर्ट में स्पंज सिटी का जिक्र करते हुए लिखा कि कोच्चि भारत की पहली स्पंज सिटी बन सकती है.
चीन ने जिस तरह से प्राकृतिक ऊर्जा का प्रयोग किया है, वह काबिलेतारीफ है. चीन में ही साल 2013 में एक और दुनिया बदलने वाली योजना पर काम शुरू हुआ. चीनी शोधकर्ता प्रोफेसर कोंगजियान यू ने स्पंज सिटी के बारे में सुझाव दिया था.
इस योजना में खर्चा अधिक है पर इसके लाभ उससे ज्यादा हैं. चीन अपने 16 जिलों में इस जल अवशोषक परियोजना का निर्माण कर रहा है. इन शहरों में कंक्रीट की जगह बॉयोस्वेल्स का प्रयोग कर जल संरक्षण किया जाएगा.
ये ऐसे शहर होंगे, जो वर्षा के पानी को अवशोषित कर पर्यावरणीय रूप से अनुकूल तरीके से उसके पुनः उपयोग को बढ़ावा देंगे और बहता हुआ पानी भी कम हो जाएगा. पानी की कमी को दूर करने के लिए वर्षा जल का सही प्रयोग किया जाएगा.
खर्चा तो बराबर है
समाज को यह समझना होगा कि अगर मनुष्य जाति के अस्तित्व को बचाए रखना है तो प्रकृति के साथ ज्यादा छेड़छाड़ करना ठीक नहीं है. प्रकृति को सुरक्षित रखते हुए विकास कार्य करने होंगे.
वहीं हमारी सरकार को यह समझना होगा कि आपदा के बाद जितना पैसा मुआवजे और पुनर्निर्माण में लगाया जाता है, उतना अगर आपदा प्रबंधन में समय रहते खर्च कर लिया जाए तो जानमाल को होने वाली हानि से बचा जा सकता है.