द कश्मीर फाइल्स : नफरत अंततः नफरत ही उपजाती है

प्रोफ़ेसर प्रीति चौधरी

प्रोफ़ेसर प्रीति चौधरी

कल ‘द कश्मीर फाइल्स ‘हमने भी देखी,थियेटर का माहौल भावुक हो उठा था। कुछ ज़िंदाबाद भी हुए,कुछ टिप्पणियों से घृणा भी बजबजाती हुई बाहर निकली।थियेटर से बाहर कुछ लोगों ने ऐसे सच को दिखाने के साहस की भी प्रशंसा की। कश्मीर में 1990 में कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ वह जघन्य अपराध था जिसकी निंदा हमेशा की जानी चाहिए,यदि कश्मीर फाइल्स का मक़सद उस मानवता को शर्मसार करने वाली घटना को याद दिला आतंकवाद की विभीषिका को बताना रहता तो भी ठीक था पर यह फ़िल्म कश्मीर के सच के नाम पर जो स्थापित करने की कोशिश में है वह कुछ और है।

 जब मैं B.H.U. में बी.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा थी हमें राजनीतिक सिद्धान्त प्रो. चंद्रकला पाड़िया पढ़ाती थीं । प्रो. पाड़िया निःसंदेह अच्छा पढ़ाती थीं पर वो बीच में कहीं चली गयीं और उनकी जगह पर कोई और एक-दो महीने के लिए पढ़ाने आया। ये जो नये अध्यापक आये थे वे अवकाश प्राप्त थे और बहुत मन लगाकर पढ़ाते थे। उन्होंने पढ़ाने के दौरान एक दिन क्लास में जो बात कही वो मुझे अभी भी वैचारिक संकट या मानसिक दबाव( बहुमत के दबाव)के समय याद आ ,संभालने का काम करती है। उन्होंने बट्रेड रसेल के हवाले से समझाया कि यदि आपने एक भी सफेद कौआ देखा हो तो कभी हामी मत भरिए की सारे कौवे काले होते हैं।यह ऐसी बात रही जिसने मुझे हमेशा पूर्वग्रहों से जूझने में मदद की।जाति विशेष,धर्म विशेष,क्षेत्र विशेष के बारे में कई बार हम बहाव में बहते हुए राय क़ायम कर लेते हैं। आपको लगेगा कि द कश्मीर फाइल्स की बात करते हुए ये बात बीच में कहाँ से आ गयी तो बता दें कि कल दोपहर से हर जगह बहुमत को एक दूसरे से कश्मीर फाइल्स देखने का इसरार करते पा रही हूँ । आज सुबह भी लोहिया पार्क में बुजुर्गों के एक समूह ने दूसरे समूह से ये फ़िल्म देखने को कहा।फ़िल्में  तो बननी ही चाहिए और हर विषय पर बननी चाहिए ।पर द कश्मीर फाइल्स का मक़सद कश्मीरी पंडितों की त्रासदी दिखाने से ज़्यादा उनकी त्रासदी के कारणों का पता लगा उसे दर्शकों के सामने पेश कर सही -गलत का फैसला सुनाना है। फ़िल्म यहाँ न्यायमूर्ति की भूमिका में है जिसने समस्या का असली कारण जेएनयू की प्रोफ़ेसर राधिका मेनन में ढूँढ लिया है।यह प्रोफ़ेसर ऐसी प्रोफ़ेसर है जिसका राब्ता कश्मीर के आतंकवादी सरगना से है । वह आतंकवादी की इतनी क़रीबी मित्र है कि आतंकवादी ने अपने घर की दीवार पर उसके साथ अपनी तस्वीरें भी लगा रखी हैं। जाहिर है ऐसे प्रोफ़ेसर्स ही वो असली खलनायक हैं जो भारत के टुकड़े कराना चाहते हैं। सरलीकरण की इंतहा करती ये फ़िल्म बौद्धिकता को विद्रुप प्रहसन में बदल उस पर सीधे सीधे देशद्रोह का आरोप तो लगाती ही है साथ ही एक धर्म विशेष को सिर्फ़ एक रंग जो आतंकवाद का है से रंग डालती है।जब हमने “ A long dream of home” पढ़ी थी तो बहुत व्यथित हुई थी । पंडितों का विस्थापन अपनी ज़मीन छूटने का दर्द मार्मिक है। पर अफ़सोस तो ये है कि अस्सी करोड़ हिंदुओं के रहते हुए भी इन्हें टेंट में दसियों साल रहना पड़ा ।सड़कों पर खड़े हो ये गाड़ियों को रोक रोक मदद मांगते रहे। अपने आस पास जिस तरह से लोग कश्मीर फाइल्स को देखकर प्रतिक्रिया दे रहे हैं उससे उनके दुख का अंदाज़ तो  लग रहा पर दुख से ज़्यादा वो ग़ुस्सा और नफरत सामने आ रही है जिसने जैसे दुश्मन और असली अपराधी की शिनाख्त कर ली हो ।कश्मीर में खून सभी पक्षों का रिस रहा है ,दर्द की कई परते हैं। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के शिकार सभी कश्मीरी हुए हैं। सरकारों की नाकामियों और स्थानीय प्रशासन में पसरे भ्रष्टाचार ने हालात को बद से बदतर किया है ।

पर अब तो नाकाम सरकारों से देश मुक्त हो चुका है।पिछले आठ सालों से केंद्र में मज़बूत सरकार है और धारा 370 हट चुकी है।हो सकता है सारे विस्थापित कश्मीरी पंडितों की घर वापसी पिछले आठ सालों में हो गयी हो और कश्मीर से आतंकवाद का ख़ात्मा हो गया हो ।पर इनमें से कुछ भी यदि नहीं हुआ है तो इतना ज़रूर कहना है कि नफरत कभी समस्या का स्थायी समाधान नहीं करती । नफरत अंततः नफरत ही उपजाती है।

फ़ेसबुक वाल से साभार

Leave a Reply

Your email address will not be published.

12 − 4 =

Related Articles

Back to top button