आसमानी और सुल्तानी शक्ति के बीच पिसता देश का किसान
-डॉ.पुष्पेंद्र दुबे
देश के किसानों की स्थिति सुधारने के लिए केंद्र सरकार ने तीन बिल पारित किए हैं। केंद्र सरकार का इस बात पर पूरा विश्वास है कि तीन बिलों में किसानों के लिए जो प्रावधान किए गए हैं, उनसे देश के किसान न सिर्फ खुशहाल होंगे बल्कि उन्हें अनेक प्रकार की मजबूरियों से मुक्ति मिलेगी। सरकार अपने तरीके से किसानों के बीच बिल को लेकर व्याप्त भ्रांतियों को दूर करने का भरसक प्रयत्न कर रही है। दूसरी ओर जब से किसान संबंधी यह तीन बिल पारित हुए हैं, तब से किसान इस बिल का विरोध कर रहे हैं। सरकार की किसान संगठनों से अब तक हुई चर्चा बेनतीजा रही। किसान संगठन तीनों किसान बिल को रद्द करने की मांग पर अड़े हुए हैं। हकीकत यह है कि इस देश का किसान प्रारंभ से ही दो शक्तियों के बीच पिसता रहा है। एक आसमानी और दूसरा सुल्तानी। जब आसमान साथ देता है तब सुल्तान उस पर कहर बन कर टूट पड़ता है। किसान हमेशा अनिश्चितता के भंवर में फंसा रहा है।
पूरक धंधे समाप्त
कभी किसान अतिवृष्टि से प्रभावित होता है, कभी अनावृष्टि से। मौसम की मार से बचने के लिए ही भारत में कृषि के आसपास ग्रामीण उद्योग धंधों की रचना की गई थी। ये ऐसे उद्योग धंधे थे, जिनका असर खेती पर नहीं होता था। जब खेती में काम नहीं है, तब किसान फुर्सत के समय इन धंधों से अपनी आजीविका चलाता था। इन उद्योगों में गोवंश आधारित उद्य़ोग प्रमुख थे। इसके अलावा चटाई बनाना, आसन बनाना, दरी बनाना, कपड़ा बनाना, तेल निकालना, लोहे की वस्तुएं बनाना, लकड़ी का सामान बनाना, दतौन बनाना और भी ऐसे उद्योग जिनमें बड़ी मशीनों के बिना भी सामान्य हस्तकौशल से ग्रामोपयोगी वस्तुएं बनायी जाती थीं। यदि मौसम के कारण फसल खराब भी हो जाए तो उसे अपनी बनायी वस्तुओं की बिक्री से आजीविका प्राप्त हो जाती थी। सरकारों की अदूरदर्शिता और आधुनिकता की अंधी दौड़ में गांव के सारे उद्योग धंधे नष्ट हो गए।
खेती बाजार के हवाले
अब आज का किसान पूरी तरह खेती पर निर्भर हो गया है। खेती बाजार की ताकतों के आगे नतमस्तक है। सरकारें बाजार की जरूरतें पूरी करने के लिए कटिबद्ध हैं। किसान पर मौसम की मार तो पड़ती ही है, सुल्तानी शक्ति अर्थात सत्ता प्रतिष्ठानों ने भी उसका शोषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। आज किसान या तो सरकार का मोहताज है या बाजार का। फसल की पैदावार से लेकर उसके पककर आने तक वह सरकार और बाजार का मुंह ताकने पर मजबूर है। किसान बिल को लेकर सरकार अनेक प्रकार के सब्जबाग दिखा रही है, परंतु जमीनी स्तर पर खेती करने वाले किसान, बिल के प्रावधानों को लेकर न सिर्फ आशंकित हैं, बल्कि उन्हें अपने हाथ से खेती छूट जाने का भय है। बीज, खाद, रासायनिक कीटनाशक, टैªक्टर, पेट्रोल, डीजल, हार्वेस्टर ये सभी बाजार का अभिन्न अंग हैं।
समर्थन मूल्य कौन तय करे ?
फसल तैयार होने के बाद भव तय करने की जवाबदारी बाजार की है। सरकार में बैठे जिम्मेदार जननेता उस फसल का समर्थन मूल्य तय करते हैं (इसे भी लेकर किसानों को मन में शंका है), जिसे पैदा करने में उनका कोई योगदान नहीं है। किसान फसल बाजार में बेचने के लिए लाता है, तो उसका अंतिम मूल्य व्यापारी तय करते हैं, जिसे पैदा करने में उनका कोई योगदान नहीं है। जब भी किसान को लगता है कि इस बार उसे फसल का उचित मूल्य मिलेगा, व्यापारी रिंग बनाकर भाव स्थिर कर देते हैं। किसान को मजबूर होकर व्यापारियों द्वारा तय किए गए भाव पर अपनी फसल बेचना पड़ती है। बिल के प्रावधानों के अनुसार अब मंडी के बाहर भी किसान अपनी फसल बेच सकेंगे, लेकिन किसान इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि उन्हें अपनी फसल के उचित दाम मिलेंगे। भारत के किसान के लिए एक उक्ति सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है कि किसान कर्ज में जन्म लेता है और कर्ज में ही मर जाता है।
बाजार के आगे किसान नतमस्तक
बाजार की शक्तियों से लड़ने की ताकत किसान के पास नहीं है। आज देश की सारी शक्ति सरकार और बाजार के पास बंधक रखी हुई है। भारत में हजारों सालों से खेती की जा रही है। बहुत कठिन समय में भी भारत की अर्थव्यवस्था चरमराने से इसलिए बची रही, क्योंकि खेती इस देश का मुख्य आधार है। इस देश में लाखों किसान बाजार मुक्त जीवन-यापन करते हैं। लेकिन सरकार ने किसानों को खेती की जरूरतों को पूरा करने के लिए बाजार का गुलाम बना दिया है। आज खेती में काम में आने वाली ऐसी एक भी चीज नहीं है, जिसके लिए किसान को बाजार न जाना पड़ता हो।
किसान का स्वावलंबन छीन लिया
सरकार की अनीतियों ने किसान से उसके स्वावलंबन को छीन लिया है। इसमें रही-सही कसर तीन बिलों ने पूरी कर दी है। अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए इस देश के ग्रामीण उद्योग धंधों पर प्रहार किया और आजादी के बाद इस देश के व्यापारियों के हितों को सुरक्षित रखने के लिए ग्रामोद्योगों को संरक्षण प्रदान न करते हुए उनके हाल पर छोड़ दिया। अब सरकार ने तीन किसान बिलों से सीधे खेती पर हमला किया है। सरकार की नीतियां ग्रामीणों को अपनी जमीन से बेदखल करने की हैं। यह वल्र्ड बैंक की नीति का हिस्सा है। ग्रामीण क्षेत्रों में पूरक उद्योग धंधे समाप्त होने का परिणाम देश में बढ़ती बेरोजगारी और उजड़ते गांव में दिखाई दे रहा है। किसान आसमानी ताकत के सामने डटकर खड़ा रहा है, परंतु सुल्तानी शक्तियों से तंग आकर करोड़ों किसान खेती करना छोड़ चुके हैं। सुल्तानी शक्ति से छुटकारे के लिए प्रत्येक गांव को अपनी आजादी स्वयं सिद्ध कर लेनी चाहिए।