भारत के सबसे बड़े राज्य में डिस्कॉम्स की किस्मत बदलने की कवायद
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मई की शुरुआत में घोषित कोविड-19 राहत पैकेज के तहत 90,000 करोड़ रुपए का अल्प-लागत वाला ऋण डिस्कॉम्स के लिए उपलब्ध कराया गया है ताकि उन्हें अपनी नकदी की स्थिति में सुधार लाने और विद्युत उत्पादन कंपनियों के बकाये का भुगतान करने में मदद मिल सके।
इसके अलावा, राज्यों की उधार सीमा में राज्य-जीएसडीपी के 2 फीसदी की बढ़ोतरी की गई है, जिसमें से 0.25 फीसदी राज्यों की ओर से विद्युत-क्षेत्र सुधार कार्यों को लेकर सशर्त है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में घाटे को कम करने और आपूर्ति के बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने के लिए सरकार इस क्षेत्र में सेवाएं देने वाली सार्वजनिक डिस्कॉम, पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम के निजीकरण के प्रस्ताव को मंजूरी दे चुकी है।
सुधार संबंधी इन प्रयासों के लक्ष्य महत्वाकांक्षी हैं, और उनमें नीतिगत इरादा भी है।
लेकिन हालिया कोशिशों को लेकर यूपी का अनुभव कैसा रहा है?
इस समय उसके लिए क्या अवसर मौजूद हैं, और प्रगति को सुगम बनाने के लिए राज्य क्या कर सकता है?
काउंसिल ऑन एनर्जी, एन्वायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) के हाल ही के एक अध्ययन डिस्कॉम परिचालन की लागत प्रभावशीलता और उज्ज्वल डिस्कॉम्स एश्योरेंस योजना (उदय) के प्रभाव, यूपी में विद्युत खरीद योजना और प्रेषण को लेकर में हमने पाया कि उदय योजना ने बेहद अपेक्षित बुनियादी ढांचे के निर्माण के प्रति अत्यावश्यकता का भाव लाया है।
बहरहाल, राज्य अभी भी राजस्व बढ़ाने और लागत में कमी लाने की चुनौतियों से जूझ रहा है।
यूपी के डिस्कॉम्स को परिचालन और वित्तीय बदलाव हासिल करने के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना है।
ऑडिट बुक और रेगुलेटरी फाइलिंग में आंकड़े भिन्न
उदय योजना के आर्थिक प्रभाव का आकलन करते समय हमने पाया कि रेगुलेटरी फाइलिंग में बताए गए आंकड़े ऑडिट बुक्स से अलग हैं, जो कि फाइनेंसिंग एजेंसियों के लिए स्वीकार्य मानक होते हैं ।
उदाहरण के लिए, वित्त वर्ष 2016-17 के लिए बेची गई प्रति यूनिट बिजली पर, ऑडिट बुक्स 56 पैसे का घाटा दर्शाती हैं।
दूसरी तरफ उसी वर्ष, बेची गई प्रत्येक यूनिट पर रेगुलेटर की रिपोर्ट मुनाफा दर्शाती है।
वित्तीय वर्ष 2019-20 में एटीएंडसी घाटे का लक्ष्य 15 प्रतिशत से कम होना था, जो 30 फीसदी से ऊपर बना हुआ है।
बिजली खरीद का खर्च वित्तीय वर्ष 2015-16 और वित्तीय वर्ष 2017-18 के बीच 4 रुपए प्रति यूनिट के करीब स्थिर रहा, लेकिन वित्तीय वर्ष 2018-19 में एकदम से बढ़कर 4.62 रुपए प्रति यूनिट हो गया।
इस मुद्दे को हल करने के लिए विभिन्न मंचों पर डिस्कॉम के वित्त संबंधी मामलों की पारदर्शी, तयशुदा समय पर और निरंतर रिपोर्टिंग की जरूरत है। वर्तमान में ऑडिटिड खातों की रिपोर्टिंग में भी दो साल का अंतराल है।
सेक्टर की खोज-खबर लेने के लिए उदय पोर्टल पर स्थित अंतरिम रिपोर्ट्स पर निर्भर रहना आगे के लिए काफी नहीं होगा।
पिछले कुछ वर्षों में, यूपी ने अपर्याप्त ढंग से इस्तेमाल हो रही नई अधिग्रहीत जनरेशन क्षमता के लिए स्ट्रेन्डिड फिक्स्ड शुल्क के रूप में वित्तीय वर्ष 2018-19 में 3000 करोड़ रुपये खर्च किए।
आने वाले समय में ताप विद्युत और बड़े जलविद्युत के लगभग 11,000 मेगावाट को 2027 तक ऑनलाइन होने के लिए अनुबंधित किया गया है।
नतीजतन, रेगुलेटर ने माना है कि अधिशेष क्षमता के लिए तयशुदा लागत भुगतान कई गुना बढ़कर 2023 तक 10,000 करोड़ रुपए हो जाएगी।
उपभोक्ता बढ़े, मांग घटी
हैरानी की बात है कि उपभोक्ताओं की संख्या में उल्लेखनीय बढ़ोतरी के बावजूद वित्तीय वर्ष 2019-20 के लिए बिजली की अनुमानित मांग में 50 प्रतिशत से अधिक गिरावट का संशोधन देखा गया, जिससे नई क्षमता के अनुबंध की जरूरत पर सवाल उठ रहे हैं।
बार-बार के इस मुद्दे को हल करने के लिए डिस्कॉम्स को ऐसी योजनाएं तैयार करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए जो भविष्य की मांग की बारीकी से पड़ताल करने के साथ-साथ इस तरह की मांग को पूरा करने के लिए अन्य विकल्पों का लागत-लाभ आकलन भी करे। विभिन्न परिदृश्यों में मजबूत नजर आने वाले उन्हीं विकल्पों पर गौर किया जाना चाहिए, जो मांग और तकनीकी लागत दोनों में अनिश्चितता से निपट सकते हैं।
यूपी को प्रस्तावित बाजार आधारित आर्थिक प्रेषण (एमबीईडी) को अपनाना चाहिए और नई क्षमता के लिए अनुबंध से बचना चाहिए, और यहां तक कि प्रक्रियाधीन परियोजनाओं पर खर्च का पुनर्निर्धारण भी करना चाहिए।
इसके अलावा, राज्य ने पिछले तीन वित्तीय वर्षों में ऊर्जा शुल्कों का जो भुगतान किया, उसमें हर साल 900 करोड़ रुपए बचाए जा सकते थे।
यह बचत सस्ते उत्पादन स्रोतों के ज्यादा सदुपयोग के साथ ही उनकी आवश्यकता के अनुसार कोयले के आवंटन और मांग व शेड्यूलिंग के बेहतर पूर्वानुमान से हो सकती थी।
इस तरह के परिदृश्य से कोयले की खपत में 4 लाख टन की कमी आएगी।
इसे देखते हुए कोयला मूल्य निर्धारण और उपलब्धता की दोषपूर्ण व्यवस्थाओं से अलग हो जाने की जरूरत है।
विभिन्न हितधारकों में तालमेल सबसे महत्वपूर्ण
अंततः, यूपी डिस्कॉम्स को कम लागत वाली बिजली पहुंचाने में विभिन्न हितधारकों के बीच ताल-मेल बनाना शायद सबसे महत्वपूर्ण तत्व है।
राज्य के स्वामित्व वाली उत्पादक कंपनी ने ओबरा जैसी अकुशल (35 वर्ष से ज्यादा पुरानी) इकाइयों का संचालन जारी रखा है, जिनकी कोयले की आपूर्ति भी अच्छी है।
दूसरी तरफ, नए चालू किए गए स्टेशनों की ईंधन की मांग पूरी नहीं हो पा रही है।
यहां उत्तर प्रदेश सरकार को मध्यस्थता के लिए आना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राज्य की उत्पादन स्टेशनों और राज्य की जरूरतें पूरी कर रहे स्वतंत्र बिजली उत्पादकों के बीच मांग को अधिक कुशलता से पूरा किया जाए।
भारत के सबसे गरीब राज्यों में शुमार उत्तर प्रदेश में कम कोयला खपत, उत्सर्जन में कमी, और सस्ती बिजली के व्यापक लोकहित से जुड़े लक्ष्यों की दिशा में मजबूती से बढ़ना चाहिए।
इसके लिए, ईंधन आवंटन अनुबंध और अकुशल व पुराने स्टेशनों को बाजार आधारित खरीद प्रतिमान के तहत लाना होगा।
फिलहाल जारी कोविड-19 महामारी के आर्थिक दुष्प्रभावों को खत्म करने के लिए, डिस्कॉम्स को बिजली खरीद खर्चों पर सबसे पहले ध्यान देना चाहिए। संभावना है कि महामारी के असर बने रहेंगे और मांग को वापिस पुराने स्तर पर ला पाने तथा उपभोक्ता की भुगतान करने की क्षमता को लगातार प्रभावित करते रहेंगे।
यह बेहद अहम वक्त है कि यूपी सरकार, डिस्कॉम्स और राज्य बिजली नियामक आयोग साथ आकर बिजली की ऊंची लागत और डिस्कॉम के बढ़ते राजस्व अंतर जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे से निपटने के लिए कदम उठाएं।
कार्थिक गणेसन और प्रतीक अग्रवाल एशिया के शीर्ष नॉट-फॉर-प्रॉफिट नीति-अनुसंधान संस्थानों में से एक, काउंसिल ऑन एनर्जी, एन्वायरनमेंट एंड वाटर में शोधकर्ता हैं।