पर्यावरण दिवस ; कितना महत्वपूर्ण है पलास पुष्प !
भारतीय संस्कृति और आयुर्वेद में पलास पुष्प आति महत्वपूर्ण वृक्ष है और उत्तर प्रदेश में तो इसे राज्य पुष्प का दर्जा दिया गया है। लेकिन पलास पुष्प के जंगल ग़ायब होते जा रहे हैं।
डा आर अचल
आज विश्व पर्यावरण दिवस पर पूरे देश में वृक्षारोपण का अभियान चलाया जा रहा है।उत्तर प्रदेश सरकार की घोषणा के अनुसार आज 35 करोड़ पौधे लगाये जायेगें।इसके लिए जिलाधिकारी से लेकर ग्राम प्रधान तक को जिम्मेदारी दी गयी है।अनके प्रकार के पौधे जैसे सागौन,अर्जुन,मौलश्री,जिगनी,सेमल,बबूल आदि के पौधे मुख्य रूप से लगाये जा रहे है।परन्तु उत्तर प्रदेश के राज्य पुष्प पलास शायद ही कहीं लगाया जा रहा होगा,जबकि पलास हमारे संस्कृति,आयुर्वेद में अतिमहत्वपूर्ण वृक्ष है।
कुछ दशक पहले लगभग हर गाँव में पलास के पेड़ या वन हुआ करता था,जिसे भोजपुरी इलाके में परसवानी,परसौनी आदि कहा जाता था।कुछ गाँवो के नाम ही परसा,परसौनी, परासखाड़ आदि मिल जायेगे।आज लगभग ये काटे जा चुके है,पलास के वन काट कर खेत बनाये जा चुके है।इसलिए आज आवश्यता इस बात की है कि इस अभियान में हर गाँव,पार्क में पलास के पौधों का रोपण किया जाता चाहिए।इसके संरक्षण के लिए जन जागरण किये जाने की जरूरत है।आइए इसके महत्व को जानते है कि कितना महत्वपूर्ण है हमारा राज्य पुष्प पलाश।
होली और पलास
आज से 4 दशक पूर्व होली और पलास (टेसू) का फूल एक दूसरे के पर्याय हुआ करते थे। जिस साल पलास के फूल कम आते उस साल की होली फीकी हो जाती थी, क्योकि होली खेलने के लिए केशरिया रंग का स्रोत टेसू का फूल ही हुआ करता था। यही नहीं तीज, त्योहार, यज्ञ, यज्ञोपवीत, शादी ब्याह, श्राद्ध सभी शुभ अशुभ कार्यक्रमों में देवताओं के भेाग तथा आमंत्रित लोगो के भोजन के लिए पलास के पत्तों तथा पत्तों से बने पत्तलो को ही शुद्ध एवं पवित्र माना जाता था। परन्तु समय ने करवट बदला, परम्पराओं, संस्कृति-संस्कारों की अवधारणा में आधुनिकता का संक्रमण हुआ और पलास के फूलो की जगह रासायनिक रंगो, पत्तों की जगह प्लास्टिक के पत्तलो ने ले लिया। पलास महत्वहीन होने लगा । बेचारा पलास चुपचाप अपना पतन देखता रहा, स्वार्थी मानव के हाथों कटता रहा, परन्तु 2003 पलास के लिए खुशियों की सौगात लेकर आया।
प्रदेश विभाजन में राज्यपुष्प ”ब्रहमकमल” अपने मूल निवास उत्तरांचल के हिस्से में चला गया। जब पुष्प विहीन उत्तर प्रदेश के राज्यपुष्प का सिंहासन खाली नजर आया तो नये राजपुष्प खोज शुरू हुई जो 3 जनवरी 2011 को पलासपुष्प को राजपुष्प घोषित करने के साथ पूर्ण हुई। अर्थव वेद का यह ”ब्रहमवृक्ष” ब्रहमकमल द्वारा खाली किये गये सिंहासन पर सुशोभित हो गया।
पलास भारतीय जनजीवन के साथ ही संस्कृति साहित्य एवं विज्ञान के लिए प्राचीन काल से ही आकर्षण का विषय रहा है। अर्थववेद में इसे यज्ञवृक्ष, ब्रहमवृक्ष की संज्ञा दी गयी है। पलास के बिना यज्ञ पूरी ही नहीं हो सकती है। यज्ञोपवीत संस्कार में पलास दण्ड व पत्र लेकर ही तप का संकल्प लेने का विधान है।
अथर्ववेद (का.6अ.2.सू.15) में पलास का वंदन करते हुए कहा गया है कि ”हे सोमपर्ण से उत्पन्न पलास तुम औषघियों में श्रेष्ठ हो, अन्यवृक्ष तुम्हारे अनुगत हैं, हमें क्षति पहुँचाने वाले शत्रुओं को नष्ट करो।” दुसरी ऋचा में इसके औषघीय गुणों का बखान करते हुए कहते कहा गया है ”हे पलास तुम विसर्प (सोरियासिस), कुष्ठ आदि रोगों की परम् औषधि हो, घाव, क्षय (टी.बी.), श्वास (दमा), कृमि, वात नाम रोगो को भी दूर करने में सक्षम हो, तुम्हारे बिना ब्रहमयज्ञ संभव नहीं हैं, इसलिए तुम ब्रहम वृक्ष हो” (4/13/128), इसी वेद बंदित पलास को लोक जीवन ने अमल कर इसको संरक्षित रखा था।आयुर्वेद में तो इसे कायाकल्प करने वाली औषधि की संज्ञा दी गयी है।अष्टांग हृदय के रसायन अध्याय में एक ऐसे योग का वर्णन है जो वृद्ध को भी युवा बना देता है।
पलास के फूलों ने भारतीय साहित्यकारों को भी खूब लुभाया है, संस्कृत हिन्दी, भोजपुरी आदि भाषाओं-बोलियों के कवियों ने बसंत के आगमन का प्रमाण पलास के फूलो को ही माना है। जैसे-
महक उडी पछुआ आ गया बंसत।
मन में है घुला हुआ टेसू का रंग ।-सोम देव
मेरी बाँहो में,
जब-जब पलास खिलते है
तुम्हारी आँखो का पतझड़
उन्हें झकझोर देता है। – अब्दुल विस्मिल्लाह
कालीदास, तुलसीदास, प्रसाद भारतेन्दु से लेकर आधुनिक कवियों ने पलास की आग को महसूस किया है। इसके फूल जब खिलते है तो पूरा पलास वन केशरिया हो जाता है, ऐसा लगता है मानो वन में आग लगी हो कीट-पतंगो ही नही मनुष्य को भी सहज ही ध्यानाकर्षित कर लेता है।
शास्त्रो के अनुसार पलास का फूल देवी को विशेष प्रिय है, इसके अर्पण से स्वर्णदान का फल मिलता है। तंत्र ग्रंथो के अनुसार पलास पुष्प बासी नहीं होता है। तंत्रिक साधना में इसका विशेष प्रयोग होता है। दश महाविद्या में 9वीं महाविद्या मातंगी को पलास पुष्प विशेष प्रिय है। आइये अब पलास को विज्ञान की दृष्टि से देखते है। प्राचीन आयुर्विज्ञान से लेकर आधुनिक वनस्पति व औषधि विज्ञान ने इसे अपने प्रयोगो में शामिल किया है।
जिसके अनुसार पलास अत्यंत शुष्क भागो को छोड़कर भारत के प्रत्येक क्षेत्र में 1200 मीटर की उचाई तक पाया जाता है । इसे प्रायः बागीचों में भी लगाया जाता है, यह प्राय समूह में उगा होता है। इसके पेड़ छोटे या मध्यम लम्बाई के होते है। इसकी पत्तियाँ लम्बे डंठल पर 3 की संख्या में होती है, जिसे मुहावरे के रूप में कहा जाता है कि”ढाक के तीन पात”। इसके पत्रक 10 से 20 सेंटीमीटर चौड़े कुछ खुरदरे चिकने तथा नीचे की ओर कोमल रोमश जैसे होते है, जिन पर उभरी हुई रेखायें होती है। तीन पत्रको में आगे का पत्रक त्रिकोणीय आयताकार होता है, जो डंठल की ओर कुछ पतला या अभिअण्डाकार, कुष्ठीताग्र या खण्डिताग्र या किनारे तिर्यगाकार होते है। ऊपरी सतह हरा निचला सतह भूराभ होता है ।
पलास के फूल अत्यंत सुन्दर केशरिया रंग के
पलास के फूल अत्यंत सुन्दर केशरिया रंग के होते है इसकी आकृति तोते की चोंच की तरह होती है इसलिए इसे किंशुक (तोता) भी कहा जाता है। पतझड़ में जब इसके सभी पत्ते गिर जाते है तो पत्रविहीन टहनियों पर गुच्छो के रूप में अधिक संख्या में फूल आते है जो लगभग महीने भर रहते है। इनकी संख्या इतनी अधिक होती है कि दूर से देखने पर पूरा पेड़ या बाग ही लाल रंग दिखता है। इसके ऊपर का आकाश भी केशरिया आभा लिए हुए दिखता है। इसी लिए इसे स्वर्णपुष्प कहा जाता है।
इसकी फलियाँ बड़ी आगे की ओर एक बीज युक्त होती है। चिपटे वृक्काकार (सेम के बीज की तरह) 25-38 मिमी लम्बे 16-25 मिमी. चौड़े, 15 से 20 मिमी. मोटे स्वाद में कटु, तीखे होते है। हल्की गंध भी आती हैं।
पलास की पेड़ की छाल भूरे रंग की होती है। जिसपर काटने से निकलने वाला गोंद लाल रंग का होता है। जो सूखने चाकलेटी रंग का, टुटने वाला तथा चमकीला हो जाता है।
इसका रसायनिक विश्लेषण करने पर इसके बीजो में स्वादहीन तैल, ग्लूकोसाइडस, व्यूटीन, आइसोव्युटीन, पालीस्ट्रीन पाया जाता है। पलास के फूलो में व्यूटीन कोरिप्सीन, मोनोस्पर्मोासाइड, डेराईवेटिज, सल्फरीन आदि पाया जाता है।
आयुर्वेद में पलास
आयुर्वेद के अनुसार इसके फूल स्वादिष्ट, कषाय विपाक में कटु, वातजनक, कफ-पित्त, रक्तविकार, मूत्रावरोध नाशक, प्यास का शमन करता है। गठिया, कुष्ठ रोगो के लिए भी लाभदायक होता है। पलास का बीज प्रमेह, बवासीर, कीड़े वात, कफ, कुष्ठ, गाँठ व पेट के रोगों में लाभदायक होता है।
आधुनिक विश्लेषणों से भी यह पता चला है कि इसकी छाल रक्तस्राव, कृमि, बवासीर में लाभकारी होता है। इसका फल पेसाब साफ करने वाला, महिलाओं के प्रदर (सफेद पानी गिरना) आतिसार, रक्तस्राव में प्रयोग किया जाता है। इसकी पत्तीयाँ जीवाणु नाशक होती है। छाल फूँफद रोग जैसे दाद, आदि रोगों में लाभ करती है।
राज्य पुष्प पलास के सामाजिक धार्मिक, वैज्ञानिक महत्व को भारत ही नही विश्व के विशेषज्ञो ने स्वीकार किया है। पलास को संस्कृत में ब्रहमवृक्ष, यज्ञवृक्ष, क्षारश्रेष्ठ, समिद्वार, हिन्दी में ढाक, टेसू, पलास, परास बंगाली में परास गाँछ, मराठी में परास, गुजराती में खाखरों, कन्नड़ में मुन्तुग, तेलगु में मोदुगवेदर, तमिल में पायस, यूनानी में कमरकस, अंग्रेजी में फ्लैम आफ फारेस्ट, तथा वैज्ञानिक शव्दावली में व्यूटिया फ्रन्डोसा कहा जाता है।
आयुर्वेद इसे वटादिकुल तथा पाश्चात्य विज्ञान ने इसे पेटिलियोनेसी परिवार का सदस्य माना है। प्रत्येक भाषा व समाज में इसकी उपस्थिति इसके महत्व को दर्शाने के लिए पर्याप्त है।प्रदेश के प्रत्येक भाग में ऊॅची शुष्क, बलुई जमीन में इसके पेड़ पाये जाते है। गोरखपुर से वाराणसी मंडल तक इसके बाग दिख जायेगें, जिनका क्षेत्रफल अब सिकुड़ता जा रहा है। फिर भी अभी इसके पेड़ो की इतनी मात्रा बची हुई कि पूर्वी उत्तरप्रदेश में पान के बीड़े पलास के पत्तो में ही बाँधे जाते है। इसके बागों या पेड़ो को बसंत काल में आसानी से पहचाना जा सकता है। देवरिया, बलिया जिलों में इसके नाम से गाँवो के नाम है जैसे परसा जंगल, परसा बुजुर्ग,परसौनी,परसाखाड़ आदि।
इस प्रकार पलास को राज्यपुष्प घोषित करने के साथ शासन को सर्वे कराकर इसके बागों और पेड़ो को संरक्षण प्रदान करना चाहिए। संचार माध्यमों से राज्यपुष्प को प्रचारित कर आज जनता को इसके संरक्षण के लिए जागरूक करना चाहिए। वृक्षारोपड़ अभियान में इसे शामिल कर स्कूल कालेज सार्वजनिक स्थानो पार्को में इसे लगवाया जाना चाहिए। तभी इसका सौन्दर्य प्रदेश को गौरवान्वित करने के साथ राज्य पुष्प घोषित करने की सार्थकता साबित होगी।
*(*लेखक डा आर अचल -फ्रीलांसर,लेखक,विचारक,आयुर्वेद चिकित्सक एवं ईस्टर्न साइंटिस्ट शोध पत्रिका के मुख्य संपादक हैं।)