अंत की सत्ता से परे करता है आत्मज्ञान
आज का वेद चिंतन विचार
संत विनोबा कठोपनिषद अंश पर प्रवचन करते हुए कहते हैं कि हे अंतक, तुम तो खुद ही अंत करने वाले बैठे हो। उस हालत में तुम हमें कुछ दे दो और तुम ही उसका अंत करो इसमें क्या सार है? नचिकेता कह रहा है इसलिए मुझे आत्मज्ञान ही दो तो फिर हम तुम्हारे अंत करने की सत्ता से परे हो जाएंगे।
यमराज के प्रलोभनों के बश न होकर आगे नचिकेता कहता है, *न वित्तेन वेद तर्पणियो मनुष्य*: मनुष्य की तृप्ति अर्थ संचय से कदापि नहीं हो सकती। इसलिए अर्थ संग्रह करना ही हो, तो उसकी मर्यादा बना लेनी चाहिए। सृष्टि का स्वरूप ‘अश्वत्थ’ है। अर्थात कल के लिए संचय उसके पास नहीं है। इसलिए मनुष्य को भी अश्वत्थ संग्रह रखना चाहिए।
*स एवाद्य स उ श्वह*- वह आज भी है और कल भी है – यह वर्णन ज्ञान संग्रह को लागू होता है। इसलिए एक आदमी चाहे कितना भी ज्ञान क्यों न कमाए , उसके कारण दूसरे का ज्ञान नहीं घट सकता। परंतु द्रव्य – संग्रह की यह बात नहीं है। मैं अगर पच्चीस दिन के लिए आज ही संग्रह करके रखता हूं, तो मेरा व्यवहार चौबीस मनुष्यों का आज का संग्रह चुराने के बराबर है, और इतने मनुष्यों को कम या अधिक मात्रा में भूखों मारने का पाप मेरे सिर पर है।
इसके अलावा सृष्टि में अधिक संग्रह ही न होने के कारण इतना संग्रह करने के लिए मुझे कुटिल मार्ग का अवलंबन करना पड़ता है। संग्रह करने में मेरी शक्ति पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। इसलिए मेरी वीर्य -हानि होती ही रहती है। इसके अतिरिक्त इतना परिग्रह सुरक्षित रखने की चिंता के कारण मेरा चित्त भी प्रसन्न नहीं रह सकता।
अर्थ- संग्रह की एक ही क्रिया में सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह इन पांचों व्रतों का सामुदायिक भंग होता है। इसलिए कम -से- कम यानी केवल शरीर निर्वाह के लिए ही संग्रह करना चाहिए। वह भी *अंगानाम मर्दनम कृत्वा श्रमसंजात वारिणा* – शरीरश्रम द्वारा शरीर में से पानी निकालकर करना चाहिए। केवल शरीरश्रम से शरीर -यात्रा चलाने से पाप लगने का डर नहीं होता – *नाप्नोति किल्विषम*। यह भगवान श्री कृष्ण का आश्वासन है ।परंतु जैसा कि कालिदास ने रघुवंश के राजाओं का वर्णन करते हुए कहा है, उसमें भी त्याग की वृत्ति होनी चाहिए। कारण, केवल तुम्हारा धन ही नहीं, तुम्हारा शरीर भी तुम्हारा निज का नहीं है। वह सार्वजनिक है, ईश्वर का है। सारांश ,संग्रह का परिणाम अश्वत्थ या तात्कालिक, साधन शारीरिक श्रम, हेतु केवल शरीर -यात्रा और वृत्ति त्याग की हो तो इतना भोग धर्म को मंजूर है।