घोषित और अघोषित आपातकाल के बीच का असली सच क्या है ?

लोकतांत्रिक संस्थाएं और मूल्य 1975 के आपातकाल के मुक़ाबले आज कितनी बेहतर स्थिति में हैं?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में कहा था कि आपातकाल के काले दिनों को इसलिए नहीं भुलाया जा सकता है कि उसके ज़रिए ‘कांग्रेस ने हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचला है।’ दूसरी ओर बहुत से लोग वर्तमान में अघोषित आपातकाल की बात करते हैं. दोनों तरह के आपातकाल में में क्या फ़र्क़ है और यह भी कि श्री मोदी स्वयं इंदिरा गांधी के आपातकाल के दिनों में कहाँ थे? वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग का विश्लेषण.

श्रवण गर्ग, राजनीतिक टीकाकार
श्रवण गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब इंदिरा गांधी के ‘आपातकाल’ पर प्रहार करते हैं तो डर लगने लगता है और चार तरह की प्रतिक्रियाएँ होतीं हैं। पहली तो यह कि जब हर कोई कह रहा है कि इस समय देश एक अघोषित आपातकाल से गुजर रहा है तो ऐसी आवाज़ें मोदी जी के कानों तक भी पहुँच ही रहीं होंगी! इस तरह के आरोप लगााने वाले ‘उस’ आपातकाल और ‘इस’आपातकाल के बीच तुलना में कई उदाहरण भी देते हैं। इन उदाहरणों में संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण से लगाकर ‘देशद्रोह’ के झूठे आरोपों के तहत निरपराध लोगों की गिरफ़्तारियां और मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाएँ शामिल होती हैं। ऐसे में लगने लगता है कि इस सबके बावजूद अगर प्रधानमंत्री 1975 के आपातकाल की आलोचना करते हैं तो उन्हें निश्चित ही ज़बरदस्त साहस जुटाना पड़ता होगा। प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा था कि आपातकाल के काले दिनों को इसलिए नहीं भुलाया जा सकता है कि उसके ज़रिए ‘कांग्रेस ने हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचला है।’

नोटबंदी और लॉक डाउन

प्रधानमंत्री के कहे पर दूसरी प्रतिक्रिया इस आंतरिक आश्वासन की होती है कि उनकी सरकार घोषित तौर पर तो कभी‌ भी देश में आपातकाल नहीं लगाएगी। नोटबंदी और लॉक डाउन की आकस्मिक घोषणाओं के कारण करोड़ों लोगों द्वारा भुगती हुई यातनाओं को प्रधानमंत्री निश्चित ही अपनी सरकार के आपातकालीन उपक्रमों में शामिल नहीं करना चाहते हैं। वे अब नोटबंदी का तो ज़िक्र तक नहीं करते।

कृपया इसे भी पढ़ें

तीसरी प्रतिक्रिया यह होती है कि भविष्य में किसी अन्य प्रधानमंत्री को अगर आपातकाल की आलोचना करनी पड़ी तो उसके सामने समस्या खड़ी हो जाएगी कि किस आपातकाल का किस तरह से उल्लेख किया जाए। जब बहुत सारे आपातकाल जमा हो जाएँगे तो उनकी सालगिरह या ‘काला दिन’ मनाने में जनता भी ऊहापोह में पड़ जाएगी।

आपातकाल में कहाँ थे मोदी जी

चौथी और अंतिम प्रतिक्रिया सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है। ऐसे किसी दस्तावेज या गवाह का सार्वजनिक होना बाक़ी है जो दावा कर सके कि आपातकाल के दौरान या उसके आगे या पीछे किसी भी कांग्रेसी शासनकाल में मोदी जी को उनके राजनीतिक प्रतिरोध के कारण जेल जाना पड़ा हो या नज़रबंदी का सामना करना पड़ा हो। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार ,आपातकाल के बीस महीनों के दौरान कोई एक लाख चालीस हज़ार लोगों को बिना मुक़दमों के जेलों में डाल दिया गया था। इनमें संघ, जनसंघ, समाजवादी पार्टियों, जयप्रकाश नारायण समर्थक गांधीवादी कार्यकर्ता और पत्रकार आदि प्रमुख रूप से शामिल थे। जनसंघ के तब के कई प्रमुख नेता इस समय मार्गदर्शक मंडल की सजा काट रहे हैं। जो जानकारी मिलती है उसके अनुसार ,मोदी जी उस समय वेश बदलकर संघ या पार्टी का कार्य कर रहे थे। एमनेस्टी इंटरनेशनल को तो हाल के महीनों में भारत से अपना कामकाज ही समेटना पड़ा है।

देश में जब आपातकाल लगा था तब मोदी जी की उम्र कोई चौबीस साल नौ माह की रही होगी। यह वह दौर था जब उनकी आयु के नौजवान गुजरात और बिहार में सड़कों पर आंदोलन कर रहे थे।आपातकाल को लागू करने का कारण 1974 का बिहार का छात्र आंदोलन था। बिहार आंदोलन की प्रेरणा गुजरात के छात्रों का 1971-72 का नव निर्माण आंदोलन था। दोनों ही राज्यों में तब कांग्रेस की हुकूमतें थीं। दोनों आंदोलनों को ही अन्य विपक्षी दलों और संगठनों के साथ-साथ जनसंघ और उसके छात्र संगठनों का समर्थन प्राप्त था। गुजरात आंदोलन को चलाने वाली नव-निर्माण समिति के छात्र नेता उन दिनों जे पी से मिलने दिल्ली आते रहते थे और हम लोगों की उनसे बातचीत होती रहती थी। आपातकाल के दौरान गुजरात में कुछ समय विपक्षी दलों के जनता मोर्चा की सरकार रही (जून ‘75 से मार्च ‘76) उसके बाद राष्ट्रपति शासन हो गया (मार्च 76 से दिसम्बर ‘76) और 1977 में लोक सभा चुनावों के पहले तक चार महीने कांग्रेस की सरकार रही (दिसम्बर ‘76 से अप्रैल ‘77)।

नरेंद्र मोदी को आपातकाल के ‘काले दिनों’ और उस दौरान ‘लोकतांत्रिक मूल्यों’ को कुचले जाने की बात इसलिए नहीं करना चाहिए कि कम से कम आज की परिस्थिति में ‘भक्तों’ के अलावा सामान्य नागरिक उसे गम्भीरता से नहीं लेंगे। उनकी पार्टी के अन्य नेता, जिनमें कि आडवाणी, डॉ जोशी,  शांता कुमार और गोविन्दाचार्य आदि का उल्लेख किया जा सकता है, इस बारे में ज़्यादा अधिकारपूर्वक बोल सकते हैं।

नरेंद्र मोदी को आपातकाल के ‘काले दिनों’ और उस दौरान ‘लोकतांत्रिक मूल्यों’ को कुचले जाने की बात इसलिए नहीं करना चाहिए कि कम से कम आज की परिस्थिति में ‘भक्तों’ के अलावा सामान्य नागरिक उसे गम्भीरता से नहीं लेंगे। उनकी पार्टी के अन्य नेता, जिनमें कि आडवाणी, डॉ जोशी,  शांता कुमार और गोविन्दाचार्य आदि का उल्लेख किया जा सकता है, इस बारे में ज़्यादा अधिकारपूर्वक बोल सकते हैं।

आपातकाल की अब पूरी तरह से छिल चुकी पीठ पर कोड़े बरसाते रहने के दो कारण हो सकते हैं: पहला तो इस अपराध बोध से राहत पाना कि जो लोग ‘उस’ आपातकाल के विरोध के कारण तब जेलों में बंद थे, आज उस सत्ता की भागीदारी में है जो आरोपित तौर पर न सिर्फ़ तब से भिन्न नहीं है, ज़्यादा रहस्यमय भी है। प्रधानमंत्री अपनी ओर से कैसे बता सकते हैं कि लोकतांत्रिक संस्थाएं और मूल्य 1975 के आपातकाल के मुक़ाबले आज कितनी बेहतर स्थिति में हैं?

आधा सच

दूसरा महत्वपूर्ण कारण वर्तमान के ‘उस’ (कांग्रेसी) परिवार को निशाने पर लेना हो सकता है जिसके पूर्वज इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। आपातकाल के समय राहुल गांधी पाँच साल के और प्रियंका तीन साल की रही होंगी। इनके पिता राजीव गांधी राजनीति में थे ही नहीं। वे तब हवाई जहाज़ उड़ा रहे थे। उनके छोटे भाई संजय गांधी को इतिहास में आपातकाल के लिए उतना ही ज़िम्मेदार माना जाता है जितना इंदिरा गांधी को। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी तब पूरी तरह से संजय गांधी के कहे में थीं और देश का सारा कामकाज प्रधानमंत्री कार्यालय के बजाय प्रधानमंत्री निवास से चलता था।आपातकाल लगने के नौ माह पूर्व संजय गांधी का विवाह हो चुका था। उपलब्ध जानकारी में यह भी उल्लेख है कि उनकी पत्नी हर  समय उनके साथ उपस्थित रहकर उनके कामों में मदद करतीं थीं। प्रधानमंत्री जिस आपातकाल का ज़िक्र करते हैं वह उन ‘काले दिनों’ का सिर्फ़ आधा सच है। बाक़ी का आधा सम्भवतः उनकी ही पार्टी में मौजूद है।

इंदौर निवासी वरिष्ठ पत्रकार श्री श्रवण गर्ग हिंदी दैनिक नई दुनिया और दैनिक अख़बारों के प्रधान सम्पादक रहे हैं.

कृपया इसे भी पढ़ें

Leave a Reply

Your email address will not be published.

nine + 4 =

Related Articles

Back to top button