शिक्षा एवं राष्ट्रीय शिक्षा नीति: एक दृष्टि
ओम प्रकाश मिश्र
शिक्षा क्या है ? यह प्रश्न एक शाश्वत प्रश्न है। वस्तुतः शिक्षा, पूर्ण को प्राप्त करने की एक सतत प्रक्रिया है। वैसे तो मनुष्य ,जन्म के समय से ही सीखता रहता है, परन्तु औपचारिक शिक्षा का अपना महत्व है। पहले कबीर, तुलसी, नानक, घाघ आदि, बिना औपचारिक शिक्षा के ही, परम विद्वान हो गये थे, परन्तु आज यदि वह असंभव न ही हो तो भी, अत्यन्त कठिन अवश्य है।
शिक्षा का जितना सम्बन्ध व्यक्ति से है, उससे कही अधिक समग्र समाज व मानवता एवं पर्यावरण से भी होता है। शिक्षा, हजारों वर्षों से समाज द्वारा अर्जित अनुभव, शिक्षार्थी को हस्तांतरित किए जाने की एक परम्परा ही है। शिक्षा के ही द्वारा, अपनी संस्कृृति से जुड़ाव भी होता है। अस्तु शिक्षा, प्रत्येक पीढ़ी के साथ, समाज की प्राचीन थाती का संरक्षण, संवर्द्धन व हस्तांतरण को सुगम बनाती है। बिना शिक्षा के ’समाज’ की कल्पना करना अत्यन्त दुरूह है।
शिक्षा व विद्या में मूलभूत अन्तर है। विद्या, जीवन मूल्यों, संस्कारों को प्रदान करती है। शिक्षा भौतिक ढांचा है। विद्या उसका प्राण है। सा विद्या या विमुक्तये का तात्पर्य, संसार छोड़ने का नहीं है। विष्णु पुराण में (प्रथम स्कन्ध 19-41) यह कहा गया हे कि जो (एक को बन्धन से मुक्त करता है) अन्य सभी ज्ञान केवल एक कौशल/शिल्प कौशल है।
वस्तुतः भरत के सन्दर्भ में शिक्षा व विद्या का संयोग भौतिक जीवन व अध्यात्म का संगम है।
प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति, मुक्ति व आत्मबोध का एक महत्वपूर्ण साधन थी। हमारे जीवन-मूल्य, स्वावलम्बन तथा आध्यात्मिकता, दोनो का पुट लिए हुये थे। व्यक्ति का समग्र एवं सर्वांगीण विकास करके चारों पुरूषार्थ-धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष को पूर्ण रूप से साधने का माध्यम हमारी शिक्षा का उद्देश्य था। शिक्षा चरित्र-निर्माण तथा अनुशासन जैसे गुणों को विकसित करती है। शिक्षा का लक्ष्य मानव-मस्तिष्क का सर्वोत्तम उपयोग कराना है।
शिक्षा के प्रकाश से समस्त विश्व व अखिल ब्राम्हण्ड को आलोकित किया जा सकता है, ऐसी भारतीय मान्यता है। जब संसार के अन्य देशों में व्यवस्थित जीवन की व्यवस्था भी नहीं थी, हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति,शिक्षा उच्च स्तर पर थी।
भारतीय जीवन परम्परा में विद्या का महत्व इस तथ्य से है कि समाज में ज्ञानी, विद्वान, लगोंटी लगाने वाले, शासक का मार्ग दर्शन करते थे। राज सत्ता से ऊपर विद्या की सत्ता थी। विद्या का धन, सभी प्रकार की धन सम्पदा से श्रेष्ठ माना गया।
न चोर हार्यम् न च राज हार्यम्।
न भ्रातु, भाज्यम न च भारकारी।।
व्यये कृते वर्द्धते एव नित्यम।
विद्या धनम् सर्व धनम् प्रधानम्।।
अर्थात् विद्या को चुराना नहीं जा सकता, न ही राजा छीन पायेगा, न भाई बाँट सकेगा, यह कोई भारी चीज नहीं हैं, जिसे ढ़ोना पड़े। विद्या का धन सभी धन से श्रेष्ठ है।
परन्तु कालान्तर में, विदेशी आक्रमणों के कारण समाज में स्थापित शिक्षा-व्यवस्था का क्षरण व नाश सा होता गया। आगे चलकर ब्रिटिस हुकूमत ने भारत की देशज शिक्षा-व्यवस्था को अमूल चूल समाप्त करने का प्रयास किया। ऐसा प्रचार किया गया कि हमारे पुरखे जाहिल थे तथा अंग्रजी शिक्षा-व्यवस्था अत्यन्त श्रेष्ठ है।
अंग्रेजो ने भारतीय संस्कृति के विरूद्ध अनास्था का भाव उत्पन्न किया। चूँकि शासक वर्ग, शक्तिशाली होता है, अतः अंग्रेजो ने अपनी भाषा व शिक्षा-प्रणाली हमारे यहाँ आरोपित करने का प्रयास किया। लेकिन उनकी कोशिश केवल काले अंग्रेज पैदा करने की थी, जो भारतीय अपनी संस्कृृति से चिढ़ का भाव रखें। लार्ड मैकाले के शब्दों में जो रंग और रक्त से तो भरतीय होगी, किन्तु विचारों, आदर्शो और रूचियों में अंग्रेज होगी। बात यही तक नहीं थी। उन्होने भारतीयों के लिए शिक्षा-प्रणाली बनायी। श्रेष्ठ प्रकार की शिक्षित पीढ़ी के लिए, कोई प्रयास अंग्रजो ने नहीं किया तथा स्वाभाविक रूप से शासक, कभी भी शासित देश को इतना विकसित करना नहीं चाहता कि वह कभी ठीक से खड़ा भी हो सके।
ऐसी विषम परिस्थितियाँ बनाई गई थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी, शिक्षा व्यवस्था लगभग वैसी ही रही। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सरीखे कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो समस्त राष्ट्र की शिक्षा व्यवस्था वैसी की वैसी ही बनी रही। महामना मदन मोहन मालवीय जी के तपस्वी सरीखे भगीरथ प्रयास से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को सर्व विद्याा की राजधानी बनाया गया, जो भारतीय संस्कृति की धारा को अग्रसर करती है।
अंग्रेजो की शिक्षा व्यवस्था के दोषो को क्रमशः अनेक राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों के द्वारा दूर करने का प्रयास किया गया था, परन्तु आमूलचूल परिवर्तन नहीं दिखा। अभी जो शिक्षा नीति का अन्तिम स्वरूप 29 जुलाई 2020 को आया, उसमें एक तरफ तो वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप तथा भविष्य को दृष्टि में रखकर नीति बनायी गयी है। इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) को अन्तिम रूप देने में समाज के विभिन्न अंगों, शिक्षा संस्थाओं, शिक्षकों, वह सभी पक्षों के विचार, प्रस्तावित मसौदे पर आमन्त्रित किए गये थे, विस्तृत विचार विमर्श के बाद इसे जारी किया गया।
1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के 34 वर्ष बाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति को, शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की आकांक्षा के उद्देश्य से एवं 21वीं सदी की आवश्यकतओं के अनुरूप बनाने का प्रयास किया गया है।
बच्चों को रट्टू तोता बनाने वाली शिक्षा को जड़ से बदलने के लक्ष्य को लेकर यह शिक्षा- नीति प्रस्तुत की गयी है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदला गया है और अब पुनः इसे शिक्षा मंत्रालय के नाम से जाना जायेगा। 1985 में शिक्षा मंत्रालय को मानव संसाधन मंत्रालय का नाम दिया गया था। वस्तुतः मानव संसाधन शब्द में वह स्पष्टता नहीं थी, जो शिक्षा में स्पष्ट है। अब ज्ञान परक एवं कौशल विकास ऐसे जोड़ा जायगा कि सर्वांगीण लक्ष्य प्राप्त हो सकें।
भाषा की दृष्टि में मातृभाषा के महत्व से कोई भी इनकार नहीं कर सकता। अब कक्षा पाँच तक अनिवार्य रूप से मातृभाषा और स्थानीय भाषा में पढ़ाई होगी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर कहा कि नई शिक्षा नीति शिक्षा के क्षेत्र में बहुप्रतीक्षित सुधार है, जिसमें लाखों लोगों का जीवन बदल जायगा। एक भारत, श्रेष्ठ भारत के तहत इससे संस्कृत समेत भारतीय भाषाओं को बढ़ावा दिया जायगा।
भातीय परम्परा की दृष्टि से महत्वपूर्ण यह है कि स्कूल व उच्च शिक्षा में संस्कृत का विकल्प मिलेगा। सेकेन्डरी लेवेल पर कोरियाई स्पेनिश, पुर्तगाली, फ्रेंच, जर्मन, जापानी व रूसी आदि भाषाओं में से चुनने का अवसर होगा।
नई शिक्षा नीति में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि फीस पर भी नियन्त्रण का प्राविधान होगा। कौन संस्थान, किस कोर्स की कितनी अधिकतम फीस रख सकता है, इसका भी एक मानक बनाया जायगा। साथ ही अधिकतम फीस भी तय की जायगी। उच्च शिक्षा, तथा स्कूली शिक्षा के लिए यह कैपिंग (फीस की अधिकतम सीमा) रहेगी। अभी कुछ संस्थानों (विशेषतः निजी संस्थान) की फीस बहुत ज्यादा है। अस्तु अब अधिकतम फीस की सीमा के दायरे में सरकारी तथा निजी, दोनो प्रकार के संस्थान आयेंगे। फीस की सीमायें कुछ इस तरह से तय की जायगी कि विद्यार्थियों तथा उनके परिवार जनों को आर्थिक दृष्टि से ज्यादा बोझ न पड़े।
स्कूली शिक्षा के स्वरूप को मौलिक रूप से बदला जायगा। 10+2 की प्रणाली के बजाय 5+3+3+4 के चार स्तर की प्रणाली होगी। पाँच साल के पहले चरण में तीन वर्ष तक आँगन बाड़ी या प्री स्कूल और दो वर्ष पहली व दूसरी कक्षा की पढ़ाई होगी। इसके उपरान्त तीसरी से पाँचवी कक्षा, छठवी से आठवी कक्षा और नौवीं से 12वीं कक्षा के तीन स्तर होगें।
महत्वपूर्ण बात यह है कि तीसरी, पाँचवी और आठवी कक्षा में संबंधित प्राधिकारी द्वारा परीक्षाओं का आयोजन किया जायगा। यह स्वागत योग्य कदम है। 10वीं व 12वी की परीक्षायें होती रहेंगी। स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार की आवश्यकता को देखते हुये राज्य के स्तर पर स्कूल स्टैन्डर्डस् प्रधिकारी का गठन किया जायगा। हर जगह कुकुरमुत्तों की तरह खुले स्कूलों पर दृष्टि रहेगी।
एक और स्वागत योग्य बात यह है कि राज्य की विशेषताओं व जानकारी के आधार पर सभी राज्य अपना पाठ्यक्रम तैयार करेंगें।
उच्च शिक्षा में इसके स्तर को उच्च करने हेतु, तथा शोध की संस्कृति एवं क्षमता को बढ़ाने के लिए सर्वोच्च संस्था के रूप में राष्ट्रीय शोध फाउन्डेशन का गठन किया जाना है। यह एक महत्वपूर्ण कदम होगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के पाँच महत्वपूर्ण स्तम्भ का उल्लेख किया है। उन्होने ट्वीट करके पाँच स्तम्भ बताये हैं। 1. एक्सेस (सभी तक पहुँच) 2. इक्विटी (समता, सभी के भागीदारी) 3. क्वालिटी (गुणवत्ता) 4. अफोर्डेबिलिटी (किफायती) और 5. एकाउन्टेबिलिटी (जवाबदेही)। वस्तुतः इन पाँच स्तम्भों पर ही नई शिक्षा नीति बनायी गयी है, जिससे राष्ट्र का सर्वांगीण विकास होगा।
शिक्षकों के लिए एक समान मानक बनाये जायेंगे। यह मानक राष्ट्रीय स्तर के होंगे। शिक्षकों के लिए अगले दो वर्षों के निए न्यूनतम डिग्री बी0एड0 होगी, जो उनकी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर एक से चार साल की होगी। एम0ए0 के बाद एक साल और इण्टरमीडिएट के बाद चार साल की शिक्षा की व्यवस्था होगी।
अब तीन साल के अनिवार्य बी0ए0 के स्थान पर छात्रों को हर साल डिग्री मिलेगी और किसी कारण से बीच की पढ़ाई छूट जाने पर, अपनी सुविधानुसार पुनः पढाई शुरू करने का प्रविधान भी रहेगा। यह उन विद्यार्थियों के लिए विशेषतः लाभप्रद होगा जो आर्थिक कारणों से पढ़ाई मजबूरन बीच में छोड़ देते हैं।
उच्च शिक्षा को नियमित रूप से गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए भारत का उच्च शिक्षा आयोग का गठन किया जायगा। यह आयोग कानून व मेडिकल की शिक्षा को छोड़कर समस्त उच्च शिक्षा में गुणवत्ता व नियमन की जिम्मेदारी निभाएगा। अब पूरी प्रणाली फेसलेस तथा आॅनलाइन होगी। व्यक्तिगत भेदभाव बचाने हेतु वार्षिक निरीक्षण की व्यवस्था नहीं रहेगी।
सरकार ने अगले 15 वर्षो मे उच्च शिक्षा में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या दुगना करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा हे।
डिग्री कालेजों की संबद्धता के लिए, धीरे-2 कालेजों के विश्वविद्यालयों से संबद्ध होने की प्रणाली को समाप्त करके उन्हे डिग्री प्रदान करने वाला स्वायत्त संस्थान बनाया जायगा। अगले 15 वर्षों के उपरान्त, कोई कालेज संबद्ध नहीं होगा, वह या तो स्वायत होगा या फिर किसी विश्वविद्यालय के अधीन होगा।
अभी कोरोना जैसी महामारी के कारण उत्पन्न स्थिति को ध्यान में रखते हुए नीति में प्रस्ताव है कि जहाँ शिक्षा के पारंपरिक तरीके संभव न हों, वहाँ वैकल्पिक माध्यमों (जैसे आॅनलाइन शिक्षा) को बढ़ाया जायगा।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्राविधान, शिक्षा पर समग्र राष्ट्रीय उत्पाद (जी0डी0पी0) का 6 प्रतिशत व्यय करने की नीति का हे। यदि यह हो सका तो शिक्षा का स्तर, गुणवत्ता सभी श्रेष्ठ होगी।
चूँकि शिक्षा, समवर्ती सूची का विषय है, इसलिए केन्द्र सरकार के साथ ही साथ, राज्य सरकारों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। शिक्षा नीति में व्यापक बदलाव समय की माँग थी, वह पूरी की गयी है। कोई भी नीति अपने आप में अच्छी है, परन्तु उसका जमीन पर कार्यान्यवन भी अत्यन्त महत्वपूर्ण होगा।
(लेखक पूर्व रेल अधिकारी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व प्राध्यापक हैं)