डॉ ज़ाकिर हुसैन , जो कहते थे कि ‘शिक्षा स्वामी है और राजनीति दासी’
भारत के तीसरे राष्ट्रपति डॉ ज़ाकिर हुसैन एक शालीन व्यक्ति और असाधारण शिक्षविद थे। वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोक दीप उनके व्यक्तित्व के अनछुए पहलुओं की चर्चा कर रहे हैं
डॉ ज़ाकिर हुसैन आज याद आ रहे हैं । भारत के स्वाधीनता संग्रामी के साथ साथ वे शिक्षाशास्त्री भी थे जिन्होंने दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना में अहम भूमिका निभाई थी ।वह देश के तीसरे राष्ट्रपति थे जो अपनी विद्वता के लिए जाने जाते थे और उन्हें ‘शिक्षाविद् राष्ट्रपति’ कहा जाता था।
जब वे उपराष्ट्रपति थे तो उनके निवास 6, मौलाना आजाद रोड स्थित निवास पर जाने और उनके साथ चाय पीने के मुझे कई अवसर मिले थे । क्या संयोग है कि उपराष्ट्रपति का निवास जिस रोड पर स्थित है उसका नामकरण देश के पहले शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के नाम पर है जहां भारत का एक दूसरा शिक्षाशास्त्री निवास करता था।
डॉ ज़ाकिर हुसैन से पहली बार मैं अपनी पहली पुस्तक ‘हमारा संविधान ‘ भेंट करने के सिलसिले में मिला था । यह पुस्तक मैंने बच्चों के लिए लिखी थी ।तब मैं लोक सभा सचिवालय में काम करता था और इस बात से डॉ. ज़ाकिर हुसैन भी वाकिफ थे ।
पुस्तक भेंट के दौरान उनसे कई विषयों पर बातें भी हुईं जो लगता है उन्हें प्रभावित कर गयीं ।जब मैं चलने को हुआ तो डॉ. ज़ाकिर हुसैन ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर आशीर्वाद देते हुए कहा था ‘कभी कभी चाय पीने के लिए आ जाया कीजिए, आप से बात कर के अच्छा लगा है ।’
उम्र में मुझसे काफी बड़े थे डॉ. ज़ाकिर हुसैन लेकिन सम्बोधित मुझे आप कहकर कर रहे थे ।यह होती है तहजीब ।
उस समय मैं बमुश्किल 28 साल का रहा हूंगा । उनका यह स्नेह मेरे लिए अनमोल था ।उन्होंने अपनी कहानियों की एक किताब ‘अबू खान की बकरी और चौदह और कहानियां ‘भी मुझे भेंट की जो उर्दू में है ।मैं उर्दू पढ़ लेता हूं लिहाजा घर आते ही उन कहानियों को पढ़ने में तल्लीन हो गया क्योंकि वे सभी बहुत दिलचस्प थीं ।
आम तौर पर मैं डॉ. ज़ाकिर हुसैन से शनिवार शाम को उनके निवास पर चाय पर मिला करता था ।उनसे विभिन्न मुद्दों पर चर्चा होती थी । मैं अक्सर शिक्षा और इस क्षेत्र में उनके किये गये उल्लेखनीय कार्यों पर बातें करता था ।
वे बताया करते थे कि गांधी जी के असहयोग आंदोलन से उनका झुकाव राजनीति की तरफ हुआ था लेकिन वे देश और समाज की प्रगति के लिए शिक्षा के महत्व को रेखांकित किया करते थे ।उन्होंने किस तरह से हकीम अजमल खान और अंसारी साहब से मिलकर जामिया मिलिया इस्लामिया की नींव पहले अलीगढ़ में रखी थी लेकिन वहां आर्थिक तंगी के चलते उसे दिल्ली के करोलबाग में शिफ्ट कर दिया गया था ।
यह हिन्दू मुस्लिम दोनों का शिक्षण केंद्र था ।फिर हंस कर बोले,’आप नाम पर मत जाइये,उन दिनों नाम की नहीं काम की अहमियत हुआ करती थी ।’ डॉ. ज़ाकिर हुसैन 1926 से 1948 तक जामिया मिलिया इस्लामिया के शेख -उल-जामिया यानी उपकुलपति रहे ।तब यह कहा जाता था कि ‘जामिया ज़ाकिर है और ज़ाकिर जामिया ।’ डॉ. ज़ाकिर हुसैन ‘विश्वविद्यालयों में बौद्धिक ईमानदारी ‘ पर बहुत ज़ोर दिया करते थे ।
जब मैं डॉ. ज़ाकिर हुसैन से पूछता कि आप शिक्षक कहलाये जाने पर ‘फख्र’ महसूस करते हैं,इसकी कोई खास वजह ।उनका जवाब होता कि मेरे हिसाब से शिक्षा सिर्फ स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय तक ही सीमित नहीं रहती यह तो निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है और एक शिक्षक होने के नाते मैं सदा इस पर ज़ोर देता आया हूं ।
फिर मेरी तरफ मुखातिब होकर बोले थे, ‘आप कहां पढ़े हैं और कितना पढ़े हैं ।’ मैंने उन्हें बताया था कि रायपुर में मेरे पिता फौत हो गये थे,इसलिए बीच में पढ़ाई रुक गयी थी ।दिल्ली में लोक सभा सचिवालय में काम करते करते पी.यू .कैम्प कॉलेज में बी. ए. (आनर्स) राजनीति शास्त्र में शिक्षा प्राप्त की ।
कैम्प कॉलेज का नाम सुनकर वे चौंक गये ।बोले, अभी तक चलता है क्या वह शाम का कॉलेज । मैंने हामी में सिर हिलाया तो उन्होंने बताया कि ‘ दूसरी तरफ से जब लोगों की आमदोरफ्त जारी रही तो मैंने शिक्षामंत्री अबुल कलाम आजाद को सलाह दी थी कि उधर से आने वाले तमाम ऐसे लोग होंगे जो अपनी तालीम से महरूम हो गये होंगे,बेहतर है कि पंजाब यूनिवर्सिटी की वाजे से दिल्ली में उन तालीबइल्मों
के लिए शाम का एक कॉलेज शुरू किया जाये ताकि किसी बच्चे की पढ़ाई बीच में न रुके ।
पंजाब यूनिवर्सिटी इसलिए क्योंकि पंजाब के दोनों हिस्सों के सभी कॉलेज इसी यूनिवर्सिटी के तहत आते थे ।ऐसा होने पर ही छात्रों का अध्ययन बदस्तूर जारी रह सकेगा ।
मैंने भी हंसते हुए कहा,’ज़हे किस्मत आप से मिलना तो मेरी किस्मत में बदा था ।’ इस पर डॉ.साहब भी हंस दिये थे ।जिस तरह से आपने आसान और सहज भाषा में बच्चों को हमारा संविधान समझाने की कोशिश की है उसकी वजह भी आपकी शिक्षा और पढ़ाई की निरंतरता है । आज भी आप रोज कोई न कोई शिक्षा प्राप्त करते हैं और मैं भी ।
फिर विषयान्तर करते हुए बोले ‘आजकल क्या लिखने की बाबत सोच रहे हैं?’
मैंने झिझकते हुए बताया कि इस वक़्त एक उपन्यास का प्लॉट दिमाग में चल रहा है । इस पर ज़ाकिर साहब ने शरारताना अंदाज़ में पूछा कि कोई अपनी ज़िंदगी के मुतलिक है या पूरी तरह से fiction अथवा किसी दूसरे की दास्तान को अपने अल्फाज़ दे रहे हैं ।
मैंने भी सीधा जवाब न देकर इतना भर बताया कि इस में सभी कुछ समाहित है ।मुख्य कहानी है एक लड़की और लड़के की पाक दोस्ती की ।खासी पेचीदा विषय है,देखें उसके साथ मैं कितना न्याय कर पाता हूं ।
अब ज़ाकिर साहब संजीदा हो गये और बोले,’बहुत नाज़ुक और संवेदनशील विषय है ।मेरे अज़ीज़,आप लिख तो नॉवेल रहे हैं लेकिन उसे treatment ऐसा दीजिएगा जैसे वह आपकी दोस्ती की कहानी है,तभी उसकी भाषा में रवानगी और विचारों की सम्वेदनशीलता आ पायेगी ।इस बाबत मेरा अपना नज़रिया है ।इज़ाजत हो तो पेश करुँ ।
जब मैंने इरशाद कहा तो ज़ाकिर साहब अत्यंत गंभीर होकर बोले,बरखुरदार इस दुनिया में माँ बाप, भाई बहन, औरत मर्द,मौसा मौसी मतलब यह कि हर दुनियवी रिश्ता आपको मिल सकता लेकिन सच्चा, बेलाग-बेबाक-बेगर्ज़ दोस्त मिलना मुश्किल ही नहीं,नामुमकिन है ।ऐसा दोस्त जिस को सिर्फ आपकी दोस्ती से मतलब है, किसी और दुनियावी चीज़ से कोई वास्ता नहीं, सिवाय दोस्ती के उसको आपसे कोई अपेक्षा नहीं और न ही कुछ पाने की हसरत । खुदानखस्ता अगर आपके सितारे बुलंद हुए और आपको ऐसा यार मिल गया तो मैं आपकी चरण वंदना करूंगा और आपके पैरों की धूल अपने माथे पर लगाऊंगा ।
डॉ. ज़ाकिर हुसैन की इस प्रतिक्रिया पर रघुवीर सहाय का वह कथन याद आ रहा जब उन्होंने कहा था कि ‘दोस्त बहुत से हैं मगर एक भी नहीं ।’
इतिहासकारों के अनुसार डॉ.ज़ाकिर हुसैन के पूर्वज अफ़ग़ानिस्तान के रहने वाले थे जो अठारहवीं सदी में उत्तरप्रदेश के फर्रुखाबाद ज़िले के कायमगंज में आकर बस गये थे । उनके पिता फिदा हुसैन खान कारोबार के सिलसिले में हैदराबाद गये थे ।वहीं ज़ाकिर हुसैन खान का जन्म 8 फरवरी 1897 को हुआ।
वे अभी दस बरस के ही थे कि उनके पिता चल बसे लिहाजा ज़ाकिर साहब अपने परिवार के साथ कायम गंज लौट आये । लखनऊ और इलाहाबाद से उन्होंने शिक्षा प्राप्त की ।जर्मनी के बर्लिन विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पी एचडी की।
वहां से लौटने के बाद केवल 23 साल की उम्र में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की स्थापना दल के सदस्य बने ।उनके नेतृत्व में इस्लामिया का झुकाव राष्ट्रवादी कार्यों और स्वाधीनता संग्राम की ओर रहा ।
वे कहा करते थे कि ‘शिक्षा स्वामी है और राजनीति दासी ।’
ज़ाकिर साहब शिक्षा संबंधी सभी समितियों के कमोबेश या तो सदस्य होते थे तो कइयों के अध्यक्ष भी होते थे।’युनेस्को ‘ में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । 1952 से 1957 तक वे राज्य सभा के सदस्य रहे, 1957 से 1962 तक बिहार के राज्यपाल, 1962 से मई 1967 तक उपराष्ट्रपति तथा 13 मई , 1967 से 3 मई 1969 तक देश के तीसरे और पहले मुस्लिम राष्ट्रपति ।
सन् 1963 में उन्हें ‘भारत रत्न ‘से अलंकृत किया गया । जितनी खुली मेरी मुलाकातें उनके उपराष्ट्रपति रहते हुए हुईं, उनके राष्ट्रपति बनने पर उनमें कमी आ गयी ।
अब अधिक औपचारिकताओं से होकर गुजरना पड़ता था ।बावजूद इसके उनका स्नेह मुझे सदा मिलता रहा । उन्हें हमेशा देश के शिक्षाविद् राष्ट्रपति के तौर पर याद किया जाता रहेगा । अपने पांच बरस का कार्यकाल पूरा न कर सकने वाले वे पहले राष्ट्रपति थे ।उनकी मौत की खबर सुनकर मैं भीतर से हिल गया था ।
उनकी शवयात्रा में मैं शामिल होकर जामिया मिलिया गया था जहां उन्हें दफ़न किया गया ।उस समय मैं ‘दिनमान’ में था और उनके साथ बिताये उन अंतिम क्षणों की आंखों देखी रपट मैंने लिखी थी , उनके साथ बिताये गये आत्मीय पलों की यादों को पिरोते हुए । उनके साथ बिताये बेहतरीन पलों को याद करते हुए मेरा सादर नमन ।