थानों में सूचना दर्ज कराना इतना मुश्किल क्यों!
अगर आपकी कोई वस्तु या काग़ज़ात कहीं गिर या खो जाये तो थानों में लिखित सूचना दर्ज से यह कहकर मना किया जाता है कि ऑनलाइन दर्ज करायें , जो आम आदमी के लिए मुश्किल काम है। उसे किसी साइबर कैफ़े की तलाश करनी होगी. ख़र्चा होगा सो अलग . पर ऐसा क्यों है? वरिष्ठ पत्रकार राम दत्त त्रिपाठी की टिप्पणी.
बहुत पहले की बात है एक शादी में गया था , कुर्ते की जेब से मेरा नया मोबाइल फोन चोरी हो गया . रिपोर्ट लिखाने थाने गया . थानेदार किसी भी सूरत में एफ़आइआर लेने को राज़ी नहीं हुए. सीनियर अफ़सरों के हस्तक्षेप से रिपोर्ट लिखी गयी , पर उसके बाद क्या हुआ पता नहीं. अदालतों में मुक़दमों का इतना अंबार है कि फ़ाइनल रिपोर्ट देखने की फ़ुरसत कहाँ?
दूसरा अनुभव स्विट्ज़रलैंड के शहर जेनेवा का है . वहॉं होटल में मेरा फ़ोन ग़ायब हो गया . मैं पास के थाने गया . मैंने जो बताया उसके अनुसार मेरी रिपोर्ट दर्ज कर ली गयी . बाक़ायदा एक कापी भी मुझे मिल गई। थाने से एक पुलिस वाले ने आकर होटल का सीसीटीवी फ़ुटेज देखा . साफ़ दिखाई दे गया कि एक आदमी फ़ोन उठा रहा है .
होटल वालों ने पहचान लिया कि बार्डर पर फ्रॉंस के एक क़स्बे में रहने वाला टैक्सी ड्राइवर ले गया है . पुलिस ने उस ड्राइवर तक संदेश भिजवाया और वह चुपचाप होटल रिसेप्शन पर फ़ोन रखकर चला गया. उसका कहना था कि फ़ोन किसी पार्क में लावारिस मिला, इसने चुराया नहीं। मुझे फ़ोन चाहिए था, कोई आपराधिक मुक़दमा दर्ज कराने में मेरी क्या दिलचस्पी?
चीन के शंघाई शहर में मेरा फ़ोन पार्क की बेंच पर छूट गया था. पाने वाले ने पास के थाने पर जमा कर दिया और मैं जाकर ले आया. शंघाई में ही हम अपने पहुँचने की सूचना देने बहुत विलंब से गये तो पुलिस ने हमें पहले एक दुभाषिये के ज़रिये क़ानून समझाया , पर खुद ही हमारी दरखास्त चीनी भाषा में कम्प्यूटर पर लिखकर देरी के लिए माफ़ कर दिया. प्यास लगी तो खुद ही थाना इंचार्ज गिलास में पानी ले आये.
नया अनुभव
अब अपने देश का बिलकुल नया अनुभव बताता हूँ. हाल ही मेरा ड्राइविंग लाइसेंस, आधार कार्ड और पत्रकार मान्यता कार्ड कहीं गिर गये . बहुत ढूँढने पर नहीं मिले .
यह अच्छा है कि इन सब काम के लिए दुनिया में तमाम साफ्टवेयर बन गये हैं . खोया पाया की तरह लोग सूचना दर्ज कराते है , भले लोग पड़ा मिला सामान थाने में जमा कर देते हैं और जिसका होता है ले जाता है. लोग पुलिस वेबसाइट से भी देख लेते हैं कि उनका सामान किसी ने जमा तो नहीं कर दिया . लेकिन हम अपनी तुलना योरप या अमेरिका से नहीं कर सकते .
अगर आपका फ़ोन , परिचय पत्र , आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस आदि कहीं गुम हो जाये तो नया बनवाने और दुरुपयोग से बचने के लिए पुलिस में सूचना देनी होती है.
यह अच्छा है कि अब भारत में भी ऑनलाइन सुविधा है पर वह प्रक्रिया केवल शहरी टेक्नोलोजी के जानकार और सुविधा सम्पन्न लोगों के लिए ठीक है , न कि आम आदमी के लिए.
दूसरे अपने यहॉं इंटरनेट स्पीड अच्छी नहीं है और फिर हर घर में प्रिंटर नहीं है, जो आप प्रिंट कॉपी लेकर नया लाइसेंस या पासपोर्ट बनवाने जायें .
अपने देश में एक बड़ी संख्या गरीब लोगों की है जिनके पास न स्मार्ट फ़ोन है , न इंटरनेट और न प्रिंटर . तमाम लोग इतना पढ़े लिखे भी नहीं हैं .
लेकिन हर गरीब सरकार चलाने के लिए जीएसटी और तरह – तरह के टैक्स देता है और उसे सरकार से इज़्ज़त के साथ सेवा पाने का अधिकार है, इससे कौन इनकार कर सकता है?
पर थानों में लिखित सूचना लेने से यह कहकर मना किया जाता है कि ऑनलाइन दर्ज करायें , जो आम आदमी के लिए मुश्किल काम है और उसे किसी साइबर कैफ़े की तलाश करनी होगी . अब पीसीओ की तरह साइबर कैफ़े भी लगभग ग़ायब हो गये हैं या नगण्य हैं.
दूसरे थाने पर अपनी वस्तु के खोने का समय और स्थान बताना भी अनिवार्य बताया जाता है, यह जानने के लिए कि कोई चीज उनके थाना क्षेत्र में खोई या इसी बहाने टाल दें . सब जानते हैं सड़क के इधर एक थाना सड़क की दूसरी तरफ़ दूसरा थाना. किसको पता कौन जगह किस थाने में है।
यूपी प्रेस क्लब अध्यक्ष के नाते मुझे अनुभव है कैसे कोई घटना होने पर हज़रतगंज और कैसरबाग कोतवाली वाले मामले को दूसरे के पाले में ठेलते थे.
एक आदमी शहर में एक दिन में कई मोहल्लों , थाना क्षेत्रों या ज़िलों से गुजरता है . शाम को पता चलता है कि उसकी ज़रूरी वस्तु कहीं खो गयी . अब वह अपनी सूचना में कौन सा टाइम या स्थान लिखे?
अभी जब मेरा ड्राइविंग लाइसेंस आदि खोया और मैं सूचना दर्ज कराने गया तो सबसे पहले थाने के मुंशी और बाक़ी स्टाफ ऑनलाइन दर्ज कराने पर अड़ गये . तमाम तर्क वितर्क के बाद इस शर्त पर लिखित सूचना लेने को राज़ी हुए कि मैं खोने का समय और स्थान लिखूँ और थाना प्रभारी अनुमति दें। मैंने बहुत समझाया कि मुझे स्थान और समय नहीं पता पर वह नहीं माने.
थानों में चोरी या क्राइम की रपट लिखाने में परेशानी होती ही है और बिना बड़े अफ़सर या सत्तारूढ़ दल के नेता की मदद अपराध की रपट नहीं लिखी जाती , पर वस्तु खोने की सामान्य सूचना दर्ज कराने में भी परेशानी आती है इसका अंदाज़ा मुझे नहीं था. इस बार भी अंदाज़ा न होता यदि मैं किसी परिचित बड़े अफ़सर से कहलाकर जाता . वैसा करता तो मेरी सूचना दर्ज होकर कापी घर आ जाती। पर मैं तो साधारण नागरिक के तौर गया था और अपना परिचय देना ज़रूरी नहीं समझा।
वह तो तमाम तर्क वितर्क के बाद जब इंस्पेक्टर इंचार्ज ने मेरी सूचना के अंत में मेरा नाम पढ़ा तब व्यवहार बदला . उन्होंने मेरी खबरें छात्र जीवन में सुन रखी थी। फिर भी उन्होंने अपने हिसाब से मेरी दरखास्त लिखाकर ही रिसीव कराया. ग़नीमत थी कि इंस्पेक्टर धैर्यवान थे जो मेरी तमाम बातें सुनते रहे. इसके लिए मैंने बाद में फ़ोन कर उन्हें धन्यवाद भी दिया.
एक पुराना क़िस्सा बताते चलें जब एक नये आईपीएस अफ़सर टेस्ट एफ़आइआर दर्ज कराने गये और थाने वालों ने उन्हें ही लॉक अप में बंद कर दिया . या जब गोरखपुर में तैनात एक कप्तान ने हर एफ़आइआर लिखना जरूरी कर दिया तो सरकार ने कुछ ही हफ़्तों में उनका तबादला कर दिया और वह पूरी सर्विस मेन लाइन से बाहर तैनात रहे.
दुर्भाग्य से अपने देश में अब भी बहुत लोग अपना क़ानूनी अधिकार नहीं जानते , जानते भी हैं तो डंडे के डर से नहीं बोलते .
मुझे लगता है आम आदमी के साथ ही पुलिस को भी लीगल अवेयरनेस क़ानूनी जानकारी की आवश्यकता है.
किसी को सामान खोने की सूचना ऑनलाइन दर्ज कराने को बाध्य नहीं किया जा सकता और न स्थान या समय बताने के लिए .
या फिर अच्छा हो यदि आधार कार्ड की तरह ड्राइविंग लाइसेंस , पैन कार्ड आदि भी ऑनलाइन डाउनलोड करने की सुविधा हो जाये ताकि दूसरा बनवाने के लिए पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने की ज़रूरत ही न रहे.
सोचने की बात है अगर आदमी को पता होगा कि कोई वस्तु कहॉं और कब खोई तो वह उसे खोज ही न लेगा . रिपोर्ट लिखाने क्यों जायेगा.
रिटायर्ड पुलिस अधिकारी अरुण कुमार गुप्त के अनुसार, “समस्या यह है कि पुलिस विभाग में आधुनिकीकरण के नाम पर आधुनिक उपकरण व सिस्टम स्थापित कर दिए गए हैं लेकिन कार्मिकों की मानसिकता उसके अनुरूप बदलने के प्रयास फलदायक नहीं रहे।”
श्री गुप्ता का कहना है कि, “अपराध के तुलनात्मक आंकड़ों के आधार पर मूल्यांकन होता है, अतः शिकायतकर्ता को टालने की कार्यसंस्कृति अभी भी प्रभावी है।”
अनेक वरिष्ठ अधिकारी दूसरे देशों में पुलिस का काम देखने जाते हैं क्या वे सरकार को रिपोर्ट नहीं देते या उन्हें कोई पढ़ता नहीं।
जब मैं स्कूल में पढ़ता था खबर सुनी थी मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह वेश बदलकर आम आदमी की तरह ठाणे पर रपट लिखने जाते थे। पर दसियों साल से मुख्यमंत्री जिस सुरक्षा घेरे में रहते हैं, क्या पुलिस वाले उन्हें वेश बदल कर थाने या जनता के बीच जाने देंगे?
वास्तव में आम आदमी के लिए पुलिस ही सरकार का पर्याय है और एक लोकतांत्रिक देश में पुलिस का जो सुधार होना चाहिए वह कोई सरकार करना ही नहीं चाहती . हर सरकार चाहती है कि उसके राज में कम से कम मुकदमें लिखे जायें. इसलिए थाने वालों को दोष देने से क्या लाभ . वह तो वही करते हैं जो ऊपर वाले चाहते हैं. गलती हमारे जैसे लोगों की है जो वास्तविकता को स्वीकार नहीं करना चाहते .
पुलिस सुधार या गुड गवर्नेंस चुनावी मुद्दा कब बनेगा?
हमारे राजनेताओं में पुलिस सुधार की इच्छा शक्ति कब जागेगी?
पुलिस सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेशों पर अमल कब होगा?
कोई नहीं जानता।तब तक आम आदमी को यह सब ऐसे ही झेलना होगा।