शास्त्रों में राम के विविध रूप
जड़चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि
डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज।
भारतीय शास्त्रों में राम के विविध रूप हैं। राम का उल्लेख ऋग्वेद -10 /93 /14 में एक धनसम्पन्न यजमान राजा के रूप में मिलता है। वाल्मीकि ने राम का जो आख्यान वाल्मीकि रामायण में प्रस्तुत किया वह भारत की हर भाषा में काव्य का रोचक कथावस्तु बनता गया —
इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामोनाम जनैः श्रुतः ,नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान धृतिमान वशी।
अर्थात ,इक्ष्वाकुवंश में उय्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं ,जो लोगों में रामनाम से विख्यात हैं ,वे ही मन को वश में रखने वाले महाबलवान ,कांतिवान ,धैर्यवान और जितेन्द्रिय हैं।
ऐसे राम की कथा महाभारत के वनपर्व ,द्रोणपर्व ,शांतिपर्व में है। बौद्ध साहित्य में भी तीनजातकों -दशरथ जातक ,अनामक जातक तथा सम्बुला जातक में भी रामकथा का उल्लेख है। जैन साहित्य में विमलसूरि कृत पउमचरियम –प्राकृत ,आचार्य रविषेण कृत पदमपुराण -संस्कृत ,पउम चरिउ -अपभ्रंश में रामकथा वर्णित है जिसमे राम का मूल नाम -पद्म है।संस्कृत साहित्य मे कालिदास ,भास ,भवभूति ,राजशेखर आदि ने अपने महाकव्यों में राम को नायक बनाया। पुराणों में विष्णुपुराण ,हरिवंश पुराण ,भागवत पुराण ,ब्रह्मपुराण ब्रह्मवैवर्त पुराण ,अग्निपुराण ,तथा पद्मपुराण में विस्तार से रामकथा का चित्रण है।
हिंदी में तुलसी के रामचरित मानस लिखे जाने के पूर्व ही तमिल में कम्ब रामायण ,तेलगु में रंगनाथ रामायण ,मलयालम में रामचरित्र कन्नड़ में तोरवे रामायण ,असामी में असमिया रामायण ,बंगला में कृत्तिवास रामायण ,उड़िया में सारलादास तथा बलरामदास के दो रामायण की रचना हो चुकी थी। मराठी और गुजराती में अनेक रामकथाओं के काव्यों का प्रणयन हुआ। आदिम प्रजातियों तथा विभिन्न प्रांतों के लोकगीतों में रामकथा जन जन में गूंजती रही है।
विदेशों में तिब्बती रामायण ,पूर्वी तुर्किस्तान की खोतानी रामायण ,,इंडोनेशिया की ककबिन रामायण के साथ साथ जावा ,सूरीनाम ,मम्यार और थाईलैंड के रामायण में अपनी अपनी तरह से रामकथा का वर्णनहै।
गीता के रामः शस्त्रभृतामहम –अर्थात शस्त्र धारण कर्ताओं में मैं राम हूँ तथा वाल्मीकि रामायण के आदर्श मानव राम जो सदाचरण और पुण्य के प्रतीक हैं ,जो रावण जैसे दुष्ट और पाप के प्रतीक का विनाश करते हैं। राम जो उद्धारक हैं शनैः शनैः अलौकिकता की और बढ़ते हैं। शतपथ ब्राह्मण से अवतारवाद की अवधारणा उद्भूत होती है। पौराणिक युग मे विष्णु का महत्त्व बढ़ने लगा। त्रिदेवों में विष्णु सृष्टि के पालनकर्ता हैं ,ब्रह्मा और शिव के भी वंदनीय हैं। राम को विष्णु के अवतार के रूप में प्रतिष्ठित किया गया।
उत्तरवैदिक काल में ब्राह्मणधर्म के जटिल कर्मकांड और यञवयवस्था के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप सुधारात्मक रूप में जब भागवतधर्म का उदय हुआ तो भागवतों के इष्ट कृष्ण थे। राधाकृष्ण के प्रेमतत्व तथा धर्मसंस्थापक के रूप में कृष्ण को चरम लोकप्रियता प्राप्त हुई। पांचवीं शताब्दी के आसपास दक्षिण भारत के आलवार संतों ने विष्णु आराधना और विष्णु के विभिन्न अवतारों के प्रति असीम भक्ति भावना प्रसारित किया। आलवार संतों के अंतःकरण और चरित्र दैवीय गुणों से ऐसे आलोकित थे की उन्होंने श्रीहरि विष्णु की भक्ति के माध्यम से समाज के वर्णगत और धनगत विषमता को दूर किया। इनके बारह संतों गुरुवों की ऐसी ख्याति हुई की कालांतर में मंदिरों में विष्णु के साथ उनकी भी प्रतिमाएं लगाकर विष्णु के साथ उनकी पूजा का भी विधान किया गया।
आलवार संतों की ही परंपरा के रामानुजाचार्य -1016 –1137 ने राम के सगुण भक्ति और अवतारवाद को विकसित किया। रामानुज संप्रदाय के अंतर्गत रामभक्ति और रामोपासना विषयक सहिंताएँ और उपनिषदों की रचना हुई। ईस्वी सन की पहली शताब्दी में राम ,विष्णु के अवतार के रूप में प्रतिष्ठित हुए उसके एक हजार साल बाद देश में रामोपासना को महत्त्व मिला जिसमे सर्वाधिक योगदान दक्षिण भारत की संस्कृति का है।
उत्तर भारत में रामभक्ति को लोकप्रियता प्रदान करनेका कार्य रामानुज संप्रदाय के ही रामानंद –1356 -1470 ने किया। रामानंद दक्षिण में जन्मे की प्रयाग या काशी में इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है की रामानंद के अध्यात्म रामायण का राम के ब्रह्मत्व की स्थापना में बड़ा योगदान है। रामानंद ने राम को प्रकृति से परे परमात्मा ,अनादि ,आनंदघन ,अद्वितीय पुरुषोत्तम के रूप में स्थापित किया।
चौदहवीं -पंद्रहवीं शताब्दी तक उत्तर भारत में रामानुज मत का कोई व्यापक प्रचार नहीं था। रामानंद यद्यपि रामानुज संप्रदाय के ही थे परन्तु स्वच्छंद और स्वतन्त्र विचार के संत होने के कारण उनके गुरु राघवानंद ने रामानंद को पृथक संप्रदाय बना लेने का निर्देश दिया फलतः रामानंद ने वैरागी संप्रदाय -रामावत संप्रदाय की स्थापना की –चार बरन आश्रम सबहि को भक्ति दृढ़ाई। इस वैरागी संप्रदाय से निर्गुण और सगुण रामोपासना की दो धाराएं निकली। एक धारा में कबीर ,रैदास -रविदास ,पीपा ,धना ,सेन आदि थे तो दूसरे सगुण धारा में अनंतदास ,तुलसीदास हुए। . भक्ति द्रविण उपजी लाये रामानंद ,प्रकट करी कबीर ने सात द्वीप नवखण्ड। भक्ति संप्रदाय के रामानंद के साधुओं की टोली पूरे देश में –जाति पाँति पूछे नहि कोई हरी को भजे सो हरी का होइ –का उद्घोष करते हुए रामोपासना का अलख जगाते रहे और रामनाम के महामंत्र को गांव गांव ,घर घर पहुंचा दिया।
रामानंद के प्रखर शिष्य कबीर का मूलमंत्र रहा –राम मा दोइ आखर सारा ,कहै कबीर तिहुँलोक पियारा –जिन्होंने रामनाम को वेदमंत्र से अधिक महत्त्व दिया —
तू ब्राह्मन मैं काशी का जुलाहा मोहि तोहि बराबरी कैसे की बनहि
हमरे राम नाम कहि उबरे वेद भरोसे पांडे डूब मरहि
कबीर को केवल राम से आशा है –कबीर आसा करिये राम की अबरै आस निराश। कबीर अपने सिद्धांतों के मान्यताओं के प्रबल अनुयायी थे। मरण के पूर्व मगहर यह कह कर गए –जो काशी तन तजै कबीरा ,रामहि कौन निहोरा। कबीर के राम दशरथनन्दन अयोध्यापति न होकर परमब्रह्म परमेश्वर थे जिन्हे कबीर विश्व्धर्म ,मानवधर्म के प्रवर्तक के रूप में देखते हैं।
सिखों के अतिपावन ग्रन्थ -आदिग्रन्थ में गुरु रामदास ने संत रविदास का यशोगान करते हुए कहा है —
रविदास चमार उस्तति करै हरि कीरति निमिष इक गाई
पतित जाति उत्तम भया चारि बरन पये पगि आई
अर्थात पतित चमार जाति में जन्म लेकर संत रविदास ने हरि की महिमा का ऐसा गान किया की वे श्रेष्ठ पुरुष बन गए और चरों वर्णो के लोग उमके पांव पड़ने लगे।
संत रविदास जन्मजात ब्रह्मज्ञानी थे परन्तु अपने गुरु रामानंद की यात्रियों में साथ रहने पर सत्संग करते रहने पर वे शास्त्रज्ञानसे भी परिपूर्ण हो गए थे। झाली रानी रतन कुअँरि तथा मीराबाई संत रविदास के शिष्यों में प्रमुख थे। संत रविदास की रामभक्ति से वर्णाश्रम व्यवस्था की नीव हिल गई थी। वेद -विद्वान् ,वेदांग निष्णात ब्राह्मण इस दलित संत को दण्डवत करने लगे थे।
मोसों सकुचत छुई सब छाहून –मैं इतना बड़ा अछूत हूँ की मेरी छाया तक छूने में लोग संकोच करते हैं ऐसा तुलसी रामनाम की महिमा से सुखी हुआ —
कहा न कियो कहाँ न गयो सीस काहि न नायो
राम रावरो बिन भये जन जनमि जनमि जग दुःख दशहु दिसि पायो
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दशरथ के समरथ तुहिन त्रिभुवन जसु गायो
तुलसी नमत अवलोकिये बाँह -बोल दै बिरुदावली बुलाओ
तुलसी की भावना देखिये -मैंने क्या नहीं किया ?कहाँ नहीं गया किसके सामने सिर नहीं झुकाया किन्तु जबतक राम की शरण में नहीं गया तबतक दुसह दुःख पाया। हे दशरथनन्दन आपका सुयश सुनकर आपकी शरण में आया हूँ। यदि आप भी न अपनाते हैं तो आपके सुयश को ही कलंक लगेगा। राम के निर्गुण सगुण रूप का समन्वय करते हुए युगानुरूप मानवीय मूल्य और अलौकिक ईश्वरी स्वरूप का संश्लेषण कर तुलसी ने राम के रूप में ऐसे नायक को मानस में प्रस्तुत किया की मानव का इससे अधिक उदात्त चरित्र विश्वसाहित्य में दुर्लभ था। तुलसी अपने गुरु रामानंद की रामोपासना को चरमोत्कर्ष तक बृहत्तर किया। निरक्षर से विद्वान् तक कुटिया से महल तक राममय होते गए। जिसकी रही भावना जैसी ,प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। तुलसी के राम सरिस कोई है ही नहीं –ऐसो को उदार जग माहि बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाही।
अपने अपने सब के राम का आज के सन्दर्भ में यही सन्देश है की –सबसों सनेह सबहि को सन्मानिये। राम वह तत्व है जो सबसे स्नेह करता है –इर्षा द्वेष का कारण नहीं बनता |रामराज का यही उद्देश्य था –सब नर करहिं परस्पर प्रीति चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति। सभी प्राणियों में प्रेम रहे और सब ऋत -ब्रह्मांडीय नियमों के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन करते रहें यही रामराज है यही ईश्वरीय सत्ता है |अंत में –
जड़चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि
बंदउँ सब के पदकमल सदा जोरि जुग पानि