गांधी और धर्म संसद
वे वास्तव में संत कहे जाने के योग्य नहीं हैं
गांधी और धर्म संसद – हाल ही में आयोजित तथाकथित धर्म संसद में जिस तरह और जिस मक़सद से महात्मा गांधी को गालियाँ दी गयीं दिल्ली से गांधीवादी लेखक अशोक शरण का विश्लेषण।
अशोक शरण
महात्मा गांधी 12 अक्टूबर 1921 के यंग इंडिया में लिखते हैं ‘मैं अपने आपको सनातनी हिंदू कहता हूं क्योंकि मैं वेदों, उपनिषदों, पुराणों और समस्त हिंदू शास्त्रों में विश्वास करता हूं और इसलिए अवतारों और पुनर्जन्म में भी मेरा विश्वास है। मैं वर्णाश्रम धर्म में विश्वास करता हूं। इसे मैं उन अर्थों में मानता हूं जो पूरी तरह वेद सम्मत है, लेकिन उसके वर्तमान प्रचलित भोंडे रूप को नहीं मानता। मैं प्रचलित अर्थों से कहीं अधिक व्यापक अर्थ में गाय की रक्षा में विश्वास करता हूं। मूर्ति पूजा में मेरा विश्वास नहीं है।‘
हिन्दू धर्म के बारे में उनकी यह व्याख्या उस समय के हिंदुत्व से बिलकुल अलग थी जिसका प्रतिपादन हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ करते थे।
गांधी के सर्व धर्म प्रार्थना में कुरान, बाइबल गीता, बौद्ध, जैन, सिख धर्म का पठन होता था और आज भी हो रहा है जिसमे आज की सत्ता के शीर्ष नेतृत्व राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री का भाग लेना अनिवार्य जैसा हो गया है। गांधी का भारत हिंदू भारत ना होकर देश के समस्त धर्मों, जीवन पद्धतियों, उपासना पद्धतियों, रीति-रिवाजों का समावेश था।
गांधी जी स्वामी विवेकानंद द्वारा विश्व धर्म संसद में दिए गए हिंदू धर्म की उस परिभाषा के बिलकुल निकट हैं जो उन्होंने ११ सितम्बर १८९३ को शिकागो में दिया था। ‘मुझे गर्व है कि मै उस हिन्दू धर्म से हूं जिसने पूरी दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिकता की सीख दी। भारत की सभ्यता और संस्कृति सभी धर्मों को सच के रूप में मान्यता देती है और स्वीकार करती है। भारत एक ऐसा देश है जिसने सभी धर्मों और अन्य देशों में सताये हुए लोगों को भी अपने यहां शरण दी।‘ उन्होंने कहा हमने अपने ह्रदय में उन इजराइलियों की पवित्र स्मृतियां सजोंकर रखी है जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़ कर खंडहर में तब्दील कर दिया था. मुझे इस बात का भी गर्व है कि मै उस धर्म से हूं जिसने महान पारसी धर्म के लोगो को शरण दी. इसके बाद भी उन्हें पाल रहा है.
हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आदि हिंदू संगठनों के पास हिंदू भारत की अपनी कुछ व्याख्या थी जो उस समय स्पष्ट नहीं थी और आज भी बिल्कुल अस्पष्ट हैं। अभी हाल में ही हरिद्वार और रायपुर में संपन्न हुयी धर्म संसद में मुस्लिमों और ईसाइयों के प्रति जो घृणा फैलाई गयी और मरने मारने की बात कही गयी तो क्या ये माना जाये कि भारत के करोड़ो मुसलमानों को अरब सागर में बहा दिया जाएगा? क्या वे मानते हैं कि उनको आधुनिक हथियार से समाप्त कर दिया जाएगा? क्या वे मानते हैं कि ईसाई मतावलंबियों को देश से बाहर खदेड़ दिया जाएगा? यदि ऐसा संभव नहीं है तो क्या यह केवल राजनीतिक चाल बाजिया हैं जो चुनाव के समय में उभर कर आती हैं और वोटों का ध्रुवीकरण कर सत्ता प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा रखती है।
यह देश हित में बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि आम हिंदू जन यह जानता है कि हिंदू धर्म सहिष्णु है और समानता के अधिकार पर इस धरती पर सभी मतावलंबियों को जीने का अधिकार देता है। यह परम्परा पूर्व में रही है। प्रथम सहस्त्राब्दी में हिन्दू राजाओं ने भी कभी हिंदू राष्ट्र की बात नहीं की। धर्म की सत्ता और राज सत्ता अलग अलग थी। मोहन भागवत के इस विचार का संघ में ही स्वीकृति कठिन जान पड़ती है कि हिंदुस्तान में रहने वाले सभी लोग हिन्दू है चाहे में किसी भी धर्म के हो/ उनकी पूजा पध्यती कुछ भी हो। यदि यह मान भी लिया जाए तो क्या अन्य धर्म मतावलंबी इस परिभाषा को मानने के लिए तैयार होंगे। क्या वे स्वयं को हिन्दू कहलाना पसंद करेंगे?
गांधी और धर्म संसद : ध्रुवीकरण का खेल
वर्ष २०२२ में विभिन्न राज्यों के चुनाव आते ही ध्रुवीकरण का खेल आरंभ हो गया है जो खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है। हरिद्वार के धर्म संसद में कई उग्र संतो ने मुस्लिमों के कत्लेआम का आह्वान किया है। हिंदू महासभा के महामंत्री और निरंजनी अखाड़ा के महामंडलेश्वर अन्नपूर्णा ने हिंदू सनातन धर्म को बचाने के लिए हथियार के प्रयोग की धमकी दी है। डासना देवी मंदिर, गाजियाबाद के यति नर्सिंघानंद ने भी धर्म, समाज मे नफरत फैलाने में कोई कमी नहीं छोड़ी। ऐसे धर्म संसद से लोगो को बच कर रहने की आवश्यकता है। धर्म संसद में उपस्थित कई संतो ने नाथूराम गोडसे का गुणगान किया और संत धर्मदास महाराज ने यह कहकर सनसनी फैला दी कि यदि वे लोकसभा में होते तो पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के सीने में छह गोली दाग देते क्योंकि उन्होंने कहा था कि राष्ट्रीय संपदाओं पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है।
रायपुर की धर्म संसद में महात्मा गांधी को अपशब्द
अभी हरिद्वार के धर्म संसद की सनसनी समाप्त नहीं हुई थी कि रविवार को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की धर्म संसद में हिंदू नेता कालीचरण ने महात्मा गांधी के बारे में अपशब्द कहते हुए उनके कातिल नाथूराम गोडसे की प्रशंसा की और उन्हें धन्यवाद दिया। राष्ट्र पिता महात्मा गांधी के खिलाफ अपशब्दों का प्रयोग किया। ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति पर केंद्र सरकार की खामोशी कई सवाल खड़े करती है। ऐसी घटनाओ के खिलाफ सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है अन्यथा धार्मिक उन्माद फैलाकर देश की सत्ता तो प्राप्त की जा सकती है परन्तु विकास संभव नहीं है। धर्म का उद्देश्य समाज मे विभेद पैदा करना नही बल्कि लोगों के मध्य समरसता पैदा करना है। छत्तीसगढ़ सरकार ने हिन्दू नेता कालीचरण को मध्य प्रदेश के खजुराहो से गिरफ्तार कर लिया है। मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ सरकार आमने सामने खड़ी हो गयी है हालांकि कोर्ट ने उन्हें १५ दिन के लिए पुलिस कस्टडी में भेज दिया है और उनके जमानत पर अगले सप्ताह सुनवाई होगी।
यह दुखद है कि राजनैतिक पार्टियां तुच्छ राजनैतिक लाभ के लिए ऐसे घटनाओं को प्रश्रय दे रही है। कांग्रेस पार्टी के सदस्य ने तो रायपुर संसद में भाग भी लिया और मुख्यमंत्री समापन समारोह मे भाग लेने वाले थे पर विवाद की स्थिति मे भाग नहीं लिए। आयोजन कर्ताओं में कांग्रेस और बीजेपी दोनों के विधायक शामिल थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में अपशब्द कहने और नफरत फैलाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाने की आवश्यकता है। भारत सहित पूरे विश्व मे गांधीजी को मानने वाले लोग हैं। देश के जानेमाने वकीलों द्वारा उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को स्वतः संज्ञान लेने के लिए लिखा गया पत्र यह जाहिर करता है कि देश मे संवैधानिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए अभी भी प्रतिबद्धता है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे उन्मादी लोगो पर FIR करने मे भी राजनीति की गयी। जहां हरिद्वार में FIR के अंतर्गत सख्त धाराएं लगाई गई हैं जिसमें 5 साल तक की कैद का प्रावधान है, वहीं रायपुर में एफ आई आर करते समय हल्की धाराएं लगाई गई है जिसमें 3 साल तक के कारावास का ही प्रावधान है। ऐसे लोगों से सख्ती से निपटने की आवश्यकता है चाहे वहां किसी भी दल की सरकार हो।
ऐसी घटनाएं देश में नफरत की आंधी चला सकती है। यह एक अच्छी बात है कि हरिद्वार के विभिन्न अखाड़ो के संतो ने जिनमे महानिर्वानी अखाड़ा के महंत रविन्द्र पुरी, जयराम आश्रम के पीठाधीश्वर ब्रहमचारी ब्रह्मास्वरूप ने उन संतो के भड़काऊ और घृणित बयानों की निंदा की है जो धर्म संसद में कहे गये। उनका कहना है कि सार्वजनिक स्थानों पर अपनी बात कहते हुए संतो को भाषा पर संयम रखना चाहिये, वे वास्तव में संत कहे जाने के योग्य नहीं है। देश के राजनीतिज्ञों को भी इन संतो का अनुसरण करते हुए ऐसी घटनाओं की निंदा करना चाहिए।
लेखक सर्व सेवा संघ के प्रबंधक ट्रस्टी हैं.