बने बैठें हैं ज़िम्मेदार सब अनजान दिल्ली में

मौजूदा दौर की चुनौतियों को रेखांकित करती एक ग़ज़ल

दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन और मौजूदा दौर की चुनौतियों के संदर्भ में भोपाल से से अपर्णा पात्रिकर की गजल

यूं बैठी है ये जनता किसलिए नादान दिल्ली में

मिलेगा ही नहीं राहत का कुछ सामान दिल्ली में //१//

तुम्हारे दर्द से कुछ फर्क अब पड़ता नहीं उनको

बने बैठें हैं ज़िम्मेदार सब अनजान दिल्ली में //२//

बड़े मायूस होकर लौट जातें हैं घरों को वो

लिए आतें हैं जो अपने सभी अरमान दिल्ली में //३//

ये आलम हो गया है अब नहीं आती सदा कोई 

कि संसद से सड़क तक हो गई सुनसान दिल्ली में //४//

जिसे देखो वही शह मात के चक्कर में उलझा है

नहीं इंसानियत की अब कोई पहचान दिल्ली में //५//

फ़ना अब हो गए हैं ख़्वाब सब आहिस्ता आहिस्ता

बचा कुछ भी नहीं है बेदिलो बेजान दिल्ली में //६//

चलन में आ गया है झूट इस तरह दिलेरी से

सभी सच बोलने वाले हैं अब हैरान दिल्ली में //७//

यहां हर शख़्स सहमा है किसी का खौफ़ हो जैसे

कहां गुम हो गई आवाम की मुस्कान दिल्ली में //८//

सभी वहमों गुमां मिल जाएंगे इक रोज़ मिट्टी में

किसी दिन आएगा ऐसा कोई तूफ़ान दिल्ली में  //९//

छुपाकर असलियत अपने इरादों की ज़माने को

दिखाएंगे जम्हूरीयत की झूठी शान दिल्ली में//१०//

अपर्णा पात्रिकर , भोपाल से

 सम सामयिक लेखन एवं गज़ल तथा काव्य लेखन

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