देहरादूनी बासमती: एक सुगंधित विरासत का इतिहास, संकट और संरक्षण की पुकार

बासमती बीज बैंक की स्थापना जरूरी

 शीशपाल गुसाईं

देहरादून की मिट्टी में बसी एक सुगंध

देहरादून, हिमालय की गोद में बसी वह दून घाटी है जिसकी जलोढ़ मिट्टी, समशीतोष्ण जलवायु और शुद्ध जलधाराओं ने भारत को एक अनमोल तोहफा दिया — देहरादूनी बासमती। यह सिर्फ एक चावल नहीं, बल्कि संस्कृति, स्वाद और सुगंध की जीती-जागती विरासत है। वर्षों तक यह चावल देहरादून के गांवों की फिजाओं में अपनी खुशबू बिखेरता रहा, लेकिन अब यह विरासत शहरीकरण, हाईब्रीड बीजों और उपेक्षा की मार झेल रही है।

1. अफगानिस्तान से दून तक: बासमती बीज की ऐतिहासिक यात्रा

सन् 1839 में अफगानिस्तान के शासक दोस्त मोहम्मद खान बरकजई को अंग्रेजों ने निर्वासित कर मसूरी भेजा। इस निर्वासन के दौरान उन्होंने अपने देश की यादों में रचा-बसा बासमती चावल मिस किया। देहरादून के स्थानीय चावल उनकी इच्छा को संतुष्ट नहीं कर सके, इसलिए उन्होंने अफगानिस्तान से बासमती बीज मंगवाए

जब ये बीज देहरादून की उपजाऊ मिट्टी में बोए गए, तो वहां की जलवायु और मिट्टी ने इसे एक नया ही रूप दे दिया। इसका स्वाद, सुगंध और बनावट इतनी बेहतरीन थी कि धीरे-धीरे यह चावल “देहरादूनी बासमती” के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

2. सुगंध का स्वर्ण युग: देहरादूनी बासमती की वैश्विक ख्याति

20वीं सदी में देहरादूनी बासमती की मांग इतनी बढ़ गई कि व्यापारी दूर-दूर से खेतों में खड़ी फसल खरीदने आने लगे। मोहकमपुर, माजरा, विकासनगर, और सेलाकुई जैसे क्षेत्रों में इसकी व्यापक खेती होने लगी। इसकी अनूठी विशेषताएं थीं:

• अत्यधिक सुगंधित दाने

• पकने पर अद्भुत मिठास और लचीलापन

• लंबे और पतले दाने

यह चावल केवल स्वाद का अनुभव नहीं था, यह देहरादून की सांस्कृतिक पहचान बन गया। आज भारत विश्व में बासमती चावल का सबसे बड़ा निर्यातक है, और इस नींव में देहरादूनी बासमती का ऐतिहासिक योगदान रहा है।

3. शहरीकरण की मार: खेतों से कंक्रीट तक

सन 2000 में उत्तराखंड के राज्य बनने के बाद देहरादून का तेजी से शहरीकरण हुआ। खेतों की जगह अब कॉलोनियां और कॉर्पोरेट ऑफिस बनते चले गए। जहां एक समय में बासमती की खुशबू बसी थी, अब वहां कंक्रीट की दीवारें खड़ी हैं।

उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड की रिपोर्ट (2018–2022) के अनुसार:

• 2018 में: 680 किसानों द्वारा 410.1 हेक्टेयर में बासमती की खेती

• 2022 में: सिर्फ 157.8 हेक्टेयर रह गई

• 1981 में 6000 एकड़ → 2019 में सिर्फ 11 एकड़

यह आंकड़े न केवल कृषि में गिरावट दर्शाते हैं, बल्कि देहरादूनी बासमती की लुप्त होती पहचान की कहानी भी कहते हैं।

4. हाईब्रीड बीजों का आगमन: शुद्धता पर संकट

बढ़ती मांग के चलते किसानों ने हाईब्रीड किस्में अपनाईं। इनसे उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन बासमती की मौलिक सुगंध और स्वाद में गिरावट आई। परिणामस्वरूप:

• पारंपरिक देहरादूनी बासमती अब मुश्किल से मिलती है

• उसकी पहचान अब केवल डीएनए फिंगरप्रिंटिंग से ही संभव है

• उपभोक्ताओं को अब मूल और नकली बासमती में फर्क करना मुश्किल होता जा रहा है

5. प्रकृति और संस्कृति का संगम: देहरादूनी बासमती का जादू

देहरादूनी बासमती को विशिष्ट बनाने वाले तीन तत्व थे:

• दून की जलोढ़ मिट्टी

• हिमालय से आने वाली शीतल नदियां

• समशीतोष्ण जलवायु और परंपरागत कृषि पद्धतियां

यही कारण है कि देश के अन्य हिस्सों में इसे उगाने के बावजूद वही स्वाद नहीं मिल सका। यह बासमती दून की आत्मा और पहचान बन गई थी।

6. संरक्षण की आवश्यकता: विरासत बचाने की पुकार

अब समय आ गया है कि इस ऐतिहासिक धरोहर को बचाया जाए। कुछ क्षेत्रों में जैसे:

केसरवाला

दूधली

पछवादून

अभी भी पारंपरिक और जैविक तरीकों से बासमती की खेती हो रही है। यह उम्मीद की किरण है।

🔹 जरूरी कदम:

बासमती बीज बैंक की स्थापना

किसानों को आर्थिक प्रोत्साहन

• शहरीकरण को नियंत्रण और भूमि संरक्षण नीति

• उपभोक्ताओं को मूल देहरादूनी बासमती की पहचान के लिए जागरूक करना

 एक सुगंध जो अब भी हवाओं में बाकी है

देहरादूनी बासमती केवल एक चावल नहीं, बल्कि इतिहास, स्वाद, परंपरा और प्रकृति का अनूठा संगम है। अफगानिस्तान से शुरू हुई इसकी यात्रा ने देहरादून की मिट्टी में नई पहचान पाई और विश्व पटल पर अपनी खुशबू बिखेरी।

आज यह विरासत संकट में है, लेकिन पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। हमें इस सुगंध को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत है। यह केवल कृषि की नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और पारिस्थितिक जिम्मेदारी है।

🌾 देहरादूनी बासमती बचाओ, संस्कृति और प्रकृति को संजोओ।

📚 संदर्भ

• दिनेश कुकरेती, प्रमुख संवाददाता, दैनिकजागरण, देहरादून

• उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड

• शूरवीर रावत, साहित्यकार, देहरादून

• भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR)

• लोकेश ओहरी, इतिहासकार, देहरादून

याकूब खान, दोस्त मोहम्मद खान बरकजई के पोते, ने देहरादून की बासमती को बढ़ाने में योगदान दिया।”

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