डीप स्टेट और भारतीय राजनीति

विवेकानंद माथने  

Vivekanand mathne
Vivekanand Mathne

‘डीप स्टेट’ एक ऐसी ही अवधारणा है, जिसमें किसी देश की वास्तविक सत्ता, चुने गये प्रतिनिधियों के बजाय, गुप्त समूहों, नौकरशाही, कॉर्पोरेट घरानों या प्रभावशाली संस्थाओं के हाथों में होती है। ये शक्तियां लोकतांत्रिक संस्थाओं जैसे न्यायपालिका, मीडिया और नौकरशाही को प्रभावित करके अपना एजेंड़ा आगे बढ़ाती हैं। इतिहास में बार-बार देखा गया है कि बाहरी शक्तियां अपने हितों के लिये सरकारों में घुसपैठ करके सत्ता को अस्थिर करने या गिराने के प्रयास करती है।

सरकार के विरोध में आक्रोश उत्पन्न करने के लिये देश में आर्थिक संकट उत्पन्न करना, सेना या खुपियां एजेंसियों का उपयोग करके राजनीतिक साजिशें रचना, सरकारी विफलताओं को बढ़ा चढ़ाकर दिखाना, विदेशी धन पर पोषित एनजीओ के माध्यम से जनमत प्रभावित करना, मीडिया और अन्य माध्यमों से सरकार के खिलाफ झूठी खबरें फैलाना आदि तरीके अपनायें जाते है। इनका उद्देश्य जनमत को भ्रमित करके सरकारों को नियंत्रित करना या गिराना होता है।

किसी बदलाव के लिये नेता की आवश्यकता होती है। इसके लिये प्राय: प्रामाणिक जननेता का इस्तेमाल किया जाता है। बाहरी शक्तियों द्वारा इन नेताओं के आंदोलनों को संसाधनों और समर्थन से मजबूत किया जाता है। या कभी-कभी किसी व्यक्ति को योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ाया जाता है।  

एकाएक किसी आंदोलन का उभार होता है और आंदोलन को कथित रुपसे सफलता मिलती दिखती है। लेकिन जिन उद्देशों के लिये आंदोलन किया गया था, उनका समाधान नही होता। जन समस्याएं वैसे की वैसे बनी रहती है। क्योंकि बाहरी शक्तियों द्वारा अनजाने में ही क्यों न हो, आंदोलनों का इस्तेमाल किया जाता है। 

भारत और अमेरिका के सरकार प्रमुखों द्वारा डीप स्टेट के अस्तित्व की बात करने के बाद इसे केवल एक ‘साजिश सिद्धांत’ (कॉन्स्पिसरेशी थ्योरी) कहकर नकारा नही जा सकता। दुनिया भर में ऐसे कई उदाहरण देखे गये है, जहां सरकारें गिराने या अस्थिर करने के लिये यह रणनीति अपनाई गई है। 

रॉथ्सचाइल्ड, रॉकफेलर, मार्गन, इलूमिनाती समूह और अब जार्ज सोरोस जैसे समूहों पर सरकारों को अस्थिर करने और गिराने की साजिश करने के आरोप सरकारों द्वारा लगाये गये है। इराक, लिबिया, युक्रेन, आफ्रिकी देश, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश जैसे देशों में इन शक्तियों के प्रभाव से सत्तांतरण होते देखा गया है। युद्ध के पिछे भी अक्सर इसी तरह की नीतियां काम करती है।

स्वतंत्रता आंदोलन के बाद भारत में हुये दो बड़े आंदोलनों का जिक्र यहां किया जा सकता है। जेपी आंदोलन और अन्ना आंदोलन। जेपी आंदोलन बेरोजगारी के खिलाफ शुरु हुआ था, जबकि अन्ना आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरु हुआ था। दोनों आंदोलनों का उद्देश्य, संपूर्ण क्रांति और स्वराज प्राप्ति के लिये व्यवस्था परिवर्तन रहा है। दोनों आंदोलनों में नेतृत्व ऐसे प्रामाणिक व्यक्तिओं के पास था, जिनपर विश्वास किया जा सकता था। इसी कारण देश के प्रामाणिक और निष्ठावान लोगों का उन्हें भरपूर समर्थन मिला। 

दोनों आंदोलनों को मीडिया का असामान्य समर्थन मिला। मीडिया ने 24/7 कवरेज देकर इसे जनक्रांति के रुपमें प्रस्तुत किया। उद्योगपतियों, कारपोरेट घरानों का पूरा समर्थन प्राप्त हुआ। विदेशी धन से पोषित कई एनजीओ ने भी इस आंदोलन में अहम भूमिका निभाई। इन आंदोलनों को पश्चिमी एजेंसियों और दुनिया भर के बुद्धिजीवियों का समर्थन मिला। 

एकाएक जन आक्रोश खडा हुआ। कथित तौर पर आंदोलन सफल होते दिखे। परिणामस्वरुप सरकारें बदली। लेकिन व्यवस्था परिवर्तन का उद्देश्य धरा का धरा रह गया। जनता की समस्याऐं जस की तस बनी है। ना भ्रष्टाचार खत्म हुआ, ना बेरोजगारी हटी। 

क्या यह कहां जा सकता है कि जेपी और अन्ना आंदोलन डीप स्टेट के रणनीतियों के शिकार हुये? इन आंदोलनों में जनता का असंतोष था, लेकिन बाहरी शक्तियों ने इसे सत्ता परिवर्तन के लिये इस्तेमाल किया। दोनों आंदोलनों के बाद कांग्रेस सरकारें गिराई गई है। 

दोनों आंदोलनों में आरएसएस सक्रिय रुपसे शामिल थी। गांधी हत्या के बाद हाशिये पर चढी आरएसएस को जेपी आंदोलन के बाद वैधता मिली, जनसंघ को राष्ट्रीय राजनीति में स्थान मिला। अन्ना आंदोलन के बाद बीजेपी पुन: सत्ता में पहुंची। दोनों आंदोलनों का असली लाभ आरएसएस और जनसंघ/बीजेपी को मिला। 

Jay Prakash Narayan

बीजेपी जिस रणनीति से सत्ता तक पहुंची, संभवता उसी अनुभव के आधार पर वह सतर्क रही। उन्होंने एनजीओ की बाहरी मदद को नियंत्रित किया। जंतर मंतर पर आंदोलन को प्रतिबंधित या सिमित कर दिया। सरकार के खिलाफ उठने वाले हर विरोध को ‘बाहरी हस्तक्षेप’ कहकर दबाने की कोशिश की। 

किसान आंदोलन इसका उदाहरण है। यह आंदोलन किसानों के मूल अधिकारों, फसलों को न्यायोचित मूल्य और कृषि क्षेत्र को कारपोरेट नियंत्रण से मुक्त कराने के लिये लड़ा गया था। लेकिन इसे कार्पोरेट घरानों और मीडीया का समर्थन नही मिला। इसके विपरीत, उन्होंने किसानों की मांगों का विरोध और सरकार की नीतियों का बचाव किया। सरकार के इशारें पर कार्पोरेट मीडिया ने आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की और इसे विपक्ष की साजिश करार दिया।   

आज भारत में सरकार और विपक्ष एक-दूसरें पर बाहरी शक्तियों के हस्तक्षेप के आरोप लगा रहे है। पेगासस जासूसी मामला, अडानी विवाद और हिंडनबर्ग रिपोर्ट, और जार्ज सोरोस के मदद के आरोप हालियां उदाहरण है। कारपोरेट घरानों द्वारा चुनावी फंडिंग और मीडिया पर सरकार के पक्ष में जनमत प्रभावित करने के आरोप लग रहे है। सरकार पर सभी महत्वपूर्ण संस्थाओं, जैसे चुनाव आयोग, न्यायपालिका और अन्य संविधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग करने और मतदाता सूची, वोट प्रतिशत और इवीएम में गडबडी करके चुनाव में धांधली करने के आरोप लग रहे है।    

यह सवाल उठता है कि क्या भारत में भी वही रणनीतियां अपनाई अपनाई जा रही है, जिनका उपयोग अन्य देशों की सरकारों को अस्थिर करने के लिये किया गया था? क्या जिन सीढ़ियों से एक राजनीतिक शक्ति सत्ता में पहुंची, उसीका इस्तेमाल करके राज्यों की सरकारें अस्थिर करने या गिराने का काम किया जा रहा है? क्या भारतीय राजनीति में डीप स्टेट का प्रभाव बढ़ा है? क्या बाहरी शक्ति की जगह भारत के कोई अंदरुनी शक्ति काम कर रही है? 

हमें इन प्रश्नों के उत्तर खोजने होंगे। लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाएं रखने के लिये यह जरूरी है। जनता इन रणनीतियों को समझे कि किस प्रकार बाहरी शक्तियां जन आंदोलनों का इस्तेमाल करती हैं और अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिये लोकतंत्रिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करती है। जन आंदोलनों को जनहित के लिये रणनीतियां बनानी होगी, ताकि जनता की वास्तविक समस्याओं का समाधान हो सके और बाहरी और अंदरुनी शक्तियां उनका इस्तेमाल ना कर सके।  

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