नेतृत्व की सच्ची परख के दिन
कोविड -19 विश्व महामारी
शिव कांत
बीबीसी रेडियो के पूर्व सम्पादक, लंदन से
नेतृत्व की सच्ची परख संकट के दिनों में ही होती है। कोविड-19 की महामारी नेतृत्व की सच्ची परख बनकर आई है। क्योंकि इस महामारी जैसा संकट दुनिया ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से नहीं देखा। लेकिन Is the American Century Over? और Do Morals matter जैसी प्रसिद्ध पुस्तकों के लेखक और हॉरवर्ड के प्रोफ़ेसर जोसेफ़ नाई जुनियर का कहना है कि अभूतपूर्व संकट की इस घड़ी में दुनिया का नेतृत्व निहायत बुरे तरीक़े से नाकाम रहा है। यहाँ तक कि वर्तमान अमरीकी राष्ट्रपति के ऊल-जलूल आक्षेपों-कटाक्षों की बौछार के बावजूद मौन रहने वाले पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा को भी मुँह खोल कर कहना पड़ा है कि महामारी से निपटने का इस सरकार का तरीक़ा एकदम अराजकता भरी तबाही था।
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अंतर्राष्ट्रीय मामलों के टीकाकार साइमन टिस्डल ने गार्डियन में छपे अपने लेख में ब्रिटन की शर्मनाक हालत के लिए बोरीस जॉन्सन की कंज़र्वेटिव सरकार की तीख़ी आलोचना की है। छह हफ़्तों से चल रही तालाबंदी के बावजूद ब्रिटन में लगभग दो लाख सोलह हज़ार लोग बीमार हो चुके हैं और 32 हज़ार की मौत हो चुकी है। यूरोप में महामारी से सबसे बाद में प्रभावित होने वाला देश होने के बावजूद ब्रिटन की हालत यूरोप में सबसे बुरी हो गई है। इटली, स्पेन, जर्मनी और फ़्रांस जैसे दूसरे यूरोपीय देशों में बीमार होने वालों और मरने वालों की संख्या में तेज़ी से कमी आ रही है और सरकारें पाबंदियाँ खोलती जा रही हैं। लेकिन ब्रिटन में बीमार होने वालों और मरने वालों की संख्या अभी भी इतनी धीमी नहीं पड़ी है कि स्कूलों और कारोबारों को खोला जा सके। ब्रिटन को एक बार फिर Sick Man of Europe या यूरोप का बीमार सदस्य कहा जाने लगा है।
अमरीका की हालत तो और भी ख़राब है। न्यूयॉर्क जैसे चंद राज्यों को छोड़ कर बाकी ज़्यादातर राज्यों में बीमार होने वाले और मरने वालों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन राज्य सरकारों में पाबंदियों और कारोबारों को खोलने की होड़ सी लग गई है। कारोबार, रेस्तराँ, शराबख़ाने, साज-शृंगार की दुकानें, पार्क और समुद्रतट सब खोल दिए गए हैं। लोग सामाजिक दूरी के नियमों को ताक पर रखकर मास्क पहने बिना घूमने लगे हैं और मास्क पहनने या सामाजिक दूरी रखने के नाम पर लड़ाई-झगड़े पर उतर आते हैं। राष्ट्रपति ट्रंप का मास्क पहनने से इंकार कर देना और सामाजिक दूरी की पाबंदियों का मज़ाक उड़ाना भी लोगों को उकसा रहा है। यह सब तो तब है जबकि 13 लाख 65 हज़ार लोग बीमार हो चुके हैं और 81 हज़ार मर चुके हैं। अमरीका जैसी बुरी हालत दुनिया के किसी देश की नहीं हुई है और हालात अभी और भी बुरे होने की आशंका है।
सशक्त नेता के गुण
प्रो जोसेफ़ नाई जूनियर लिखते हैं कि सशक्त नेता वे होते हैं जो संकट के दिनों में लोगों को उनके हित की बात सिखा कर एकजुट कर सकें। अपने लक्ष्य बनाने और उन्हें हासिल करने में लोगों की मदद करना ही नेतृत्व की निशानी है। लोगों को एक-दूसरे से भिड़ा कर अपना उल्लू सीधा करना नहीं। विंस्टन चर्चिल और नेल्सन मंडेला के पास लोगों को उनके हितों की ख़ातिर एकजुट करने की क्षमता थी। नेल्सन मंडेला ने दक्षिण अफ़्रीका के काले बहुसंख्यक लोगों को रंगभेदी दौर के अत्याचारों की दुश्मनी निकालने की बजाए उन्हें माफ़ करने और भाइचारे की भावना से नए गणतंत्र की नींव रखने के लिए तैयार किया। वे चाहते तो संख्याबल के आधार पर काली प्रभुसत्ता वाले लोकतंत्र की स्थापना भी कर सकते थे जिसमें रक्तपात का ख़तरा था।
इसी तरह चर्चिल ने ब्रिटन के लोगों को ऐसे समय में हिटलर के नात्सी जर्मनी के सामने घुटने न टेकने और युद्ध के कमर कसने को तैयार किया था जबकि ब्रिटन एकदम अकेला था। जर्मनी ने लगभग पूरे यूरोप पर कब्ज़ा कर लिया था और ब्रिटन पर चढ़ाई की तैयारी कर रहा था। अमरीका तब तक युद्ध में कूदने को तैयार नहीं था। ऐसे में चर्चिल ने लोगों को अपनी प्रभुसत्ता बनाए रखने के लिए अपना सब कुछ कुर्बान करने, देश के लिए बिना उफ़ किए जो कुछ बन पड़े करने और अकल्पनीय कठिनाइयाँ झेलने के लिए तैयार किया और बाद में अमरीका को भी युद्ध में उतारने में कामयाब हुए जिसके बिना हिटलर को मात दे पाना संभव नहीं था।
सामाजिक एकजुटता की ज़रूरत
संकट का सामना करने के लिए इस तरह की सामाजिक एकजुटता उन्हीं देशों और समाजों में संभव है जो द्वेष और विचारधारा की दुश्मनी से बँटे हुए न हों या फिर नेताओं में उन्हें एकजुट करने का सामर्थ्य हो। कोविड-19 की महामारी से निपटने में भी वही देश ज़्यादा कामयाब रहे हैं जहाँ सामाजिक और वैचारिक ध्रुवीकरण गहरा नहीं है। जैसे वियतनाम, दक्षिण कोरिया, चीन और जर्मनी। अमरीका, ब्रिटन और ब्रज़ील का हाल बुरा है और भारत भी उसी रास्ते पर है। ब्रिटन में सत्ताधारी कंज़र्वेटिव पार्टी ने यूरोपीय संघ से बाहर निलकने के लिए जो यूरोप विरोधी और आप्रवासन विरोधी ज़हर फैलाया था उसका असर बना हुआ है।
भारत में सामाजिक ध्रुवीकरण के दुष्परिणाम
भारत में भी वैचारिक ध्रुवीकरण इतना बढ़ चुका है कि समाज के बड़े तबके को सरकार के किसी काम और किसी सरकारी एजेंसी पर भरोसा नहीं है। इसलिए लाइलाज महामारी के लिए दुनिया भर में लगाई जा रही तालाबंदी को तुगलकी फ़रमान समझा जाता है। संक्रमण की जाँच-परख के लिए आने वाले स्वास्थ्य कर्मियों का आभार मानने की जगह उन्हें दुश्मन समझ कर उन पर पथराव और गाली-गलौज किया जाता है और थूका जाता है। तालाबंदी पर अमल कराने के लिए लगाए गए पुलिस कर्मियों पर भी पथराव और हमले किए जाते हैं। अविश्वास और प्रतिरोध की इसी भावना के चलते स्वास्थ्य कर्मियों के साथ-साथ भारत में बड़ी संख्या में पुलिस कर्मी भी कोविड-19 का शिकार बन रहे हैं। अमरीका में भी ऐसा हो चुका है। न्यूयॉर्क के पुलिस विभाग NYPD के 9 हज़ार से भी ज़्यादा पुलिसकर्मी महामारी की चपेट में आ गए थे। महामारी अमरीकी जंगी जहाज़ थियोडर रूज़वैल्ट और फ़्रांसीसी जहाज़ शार्ल डिगॉल समेत 25 जंगी जहाज़ों में भी फैल चुकी है।
जनजीवन और कारोबार पटरी पर लाने की चुनौती
अभी तक दुनिया तालाबंदी और टैस्ट और टोह की तरकीबों से महामारी की रोकथाम में लगी थी। लेकिन अब उसके सामने उससे भी बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है और वह है जनजीवन और कारोबार को पटरी पर लाने की। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि तालाबंदी अलग-अलग देशों में अलग-अलग समय पर लागू की गई है और उसे खोलने का काम भी अलग-अलग समय पर और अलग-अलग रफ़्तार से हो रहा है। इसमें ख़तरा इस बात का है कि अगर लोगों ने सामाजिक दूरी की सावधानी नहीं बरती तो जहाँ बीमारी फैल रही वहाँ से उन हिस्सों में दोबारा फैलने लग सकती है जहाँ इसका फैलना बंद हो चुका था। कई देशों से इस तरह की ख़बरें मिल रही हैं। मिसाल के तौर पर दक्षिण कोरिया की राजधानी सोल में 34 नए लोगों को वायरस लगने के बाद शहर के सारे बार बंद करने पड़े हैं। सिंगापुर और जर्मनी से भी पाबंदियों में ढील दिए जाने के बाद वायरस के नए केसों में उछाल आने की ख़बरे हैं।
ऐसे में कल्पना करें अमरीका और ब्रज़ील की। दोनों देशों के राष्ट्रपति कोविड-19 की महामारी को गंभीरता से नहीं लेते। दोनों मास्क पहनने और सामाजिक दूरी रखने जैसे बचाव के उपायों का मज़ाक उड़ाते हैं। अपने ही वैज्ञानिकों, आर्थिक सलाहकारों और ख़ुफ़िया विभाग की बातों को नहीं मानते। जिन राज्यों में दूसरी पार्टी के गवर्नरों की सरकारें हैं वहाँ को लोगों को पाबंदियाँ तोड़ कर अपनी आज़ादी के झंडे उठाने के लिए उकसाते हैं। वहाँ दुकानों, कारोबारों, रेस्तराओं और शराबख़ानों के खुल जाने और यातायात शुरू हो जाने की वजह से अगले महीने तक यदि महामारी और तेज़ी से फैलने लगी तो इसका बाकी दुनिया पर क्या असर होगा? चीन से पूछा जा रहा है कि उसने जनवरी में ही वूहान का हवाई यातायात बंद क्यों नहीं किया? हवाई यातायात के ज़रिए वायरस को पूरी दुनिया में क्यों फैलने दिया? राष्ट्रपति ट्रंप की नीतियों की बदौलत यदि अमरीका में महामारी इसी तरह फैलती रही और अमरीका ने हवाई यातायात खोल दिया तो क्या होगा? दुनिया के हर देश का अमरीका के साथ आना-जाना है। क्या हर देश अमरीकी हवाई यात्रियों के साथ आने वाली महामारी को रोक पाएगा? चीन से कम से कम सवाल तो पूछ सकते हैं कि उसने जनवरी में अपने हवाई यातायात को बंद न करके पूरी दुनिया को संकट में क्यों डाला? क्या यही सवाल आप अमरीका से पूछ सकेंगे? दुनिया में कितने ऐसे देश हैं जो अमरीका से आने वाले हवाई यातायात को और जिन देशों के साथ अमरीका का हवाई यातायात चल रहा होगा, उन सभी देशों के हवाई यातायात को बंद कर सकेंगे?
चुनाव की राजनीति
यदि अमरीका के अपने ही वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियाँ सही साबित हुईं तो अमरीका में अगले महीने तक कुल सवा लाख से ज़्यादा लोग कोविड-19 से मारे जा चुके होंगे और हर चौथा व्यक्ति बेरोज़गार हो चुका होगा। अमरीका के इतिहास में कोई राष्ट्रपति इतने शानदार प्रदर्शन के बाद चुनाव नहीं जीत पाया है। ट्रंप साहब इस बात को अच्छी तरह समझते हैं। इसलिए उन्होंने चीन को चुनावी मुद्दा बना लिया है। उनकी अपनी रिपब्लिकन पार्टी की सेनेट प्रचार शाखा ने 57 पन्नों की एक कोरोना प्रचार पुस्तिका जारी की है जिसमें पार्टी के उम्मीदवारों से कहा गया है कि वे अपने चुनावी वार का पहला निशाना चीन को बनाएँ। पुस्तिका में सलाह दी गई है कि यदि कोविड-19 महामारी की रोकथाम में नाकामी के सवाल पर घिर जाएँ तो राष्ट्रपति ट्रंप का बचाव करने की बजाय चीन पर हमला बोल दें। फ़ॉक्स न्यूज़, इपॉक टाइम्स और ब्रेटबार्ट न्यूज़ नेटवर्क जैसे रिपब्लिकन पार्टी के भोंपू तंत्र पिछले महीने भर से लोगों के मन में यह धारणा जमाने की कोशिशें करते आ रहे हैं कि सार्स-कोवी-2 वायरस वूहान के मछली बाज़ार से नहीं बल्कि वूहान की वायरस प्रयोगशाला से फैला है या कहिए कि फैलाया गया है।
ट्रंप और उनकी रिपब्लिकन पार्टी के इस छद्म चीनयुद्ध की नवीनतम तोप विभिन्न आरोपों पर अमरीका के कई प्रतिष्ठानों से निकाली गई जैवरसायनवेत्ता जूडी माइकोविट्स हैं जिन्होंने कोरोनावायरस पर लगभग आधे घंटे की डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म बनाई है Plandemic यानी योजनाबद्ध महामारी। जूडी माइकोविट्स का आरोप है कि सार्स कोवी-2 वायरस वूहान की प्रयोगशाला में बनाया गया है और चीन ने उसे जान बूझ कर छोड़ा है। उनका यह भी दावा है कि मास्क इस वायरस से बचाव करने की बजाए फैलने में उसकी मदद करते हैं। उनकी इस फ़िल्म की मक़सद अमरीका के सबसे बड़े वायरस विशेषज्ञ एंटनी फ़ाउची के साथ पुरानी दुश्मनी निकालना भी है जो पिछले ग्यारह सालों से HIV वायरस के टीके के शोध के दिनों से चली आ रही है। एंटनी फ़ाउची भी अपनी वैज्ञानिक सलाह पर अड़े रहने की वजह से ट्रंप की आँखों की किरकिरी बने हुए हैं। इसलिए जूडी माइकोविट्स के ज़रिए एक तीर से दो शिकार हो रहे हैं। लोगों को चीन के ख़िलाफ़ गुमराह करने में मदद मिल रही है और एंटनी फ़ाउची की साख पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं।
एंटनी फ़ाउची समेत अमरीका के लगभग सारे बड़े वायरस वैज्ञानिक और शोध संस्थान, सार्स कोवी-2 वायरस के वूहान की प्रयोगशाला से फैलने की धारणा का खंडन कर चुके हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इसका खंडन कर चुका है। चीन की जिस प्रयोगशाला से वायरस के रिसाव या फैलाव का आरोप लगाया जा रहा है उसमें फ़्रांस भी एक साझीदार है और वह विश्व स्वास्थ्य संगठन की देखरेख में काम करती है। लेकिन चुनाव प्रचार एक ऐसी चीज़ है कि उसमें इस तरह की मामूली बातों पर ध्यान नहीं दिया जाता। न ही इस बात पर कोई ध्यान दिया जाता है कि जब 1918 के स्पेनी फ़्लू का वायरस, सार्स, मर्स, इबोला, बर्ड फ़्लू और स्वाइन फ़्लू फैलाने वाले सारे वायरस जानवरों से फैले थे तो सार्स कोवी-2 में ही ऐसी क्या ख़ास बात है कि वह जानवरों से फैल ही नहीं सकता? केवल उसे ही प्रयोगशाला में बना क्यों माना जाए?
पशु फार्म उग्योग का निहित स्वार्थ
क्योंकि न मानने पर चोट उस सुनियोजित पशु फ़ार्म उद्योग पर पड़ने का ख़तरा है जिसकी जेबें काफ़ी गहरी हैं और अमरीका के कई सांसद और सेनेटर उन जेबों से बँधे हुए हैं। फ़ार्म उद्योग के पास वोटों की ताकत भी है। इसलिए बात थोड़ी गहरी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें बीमार करने वाले सत्तर प्रतिशत बैक्टीरिया और वायरस जानवरों से आते हैं। पिछले दो दशकों के भीतर ही छह ऐसे नए वायरस फैल चुके हैं जो जानवरों से आए हैं। सार्स, मर्स, इबोला और सार्स कोवी-2 चमगादड़ों से या चमगादड़ों से दूसरे जानवरों में जाकर उनके माध्यम से फैले हैं। बर्ड फ़्लू औ स्वाइन फ़्लू मुर्गियों और सूअरों से फैले थे। इतनी जल्दी-जल्दी नए वायरसों के फैलने की वजह जानवरों के माँस को लेकर हमारी बढ़ती भूख है। दुनिया में ख़ुशहाली बढ़ने के साथ-साथ मांस खाने का चलन और मांस की माँग बढ़ती जा रही है। जिसे पूरा करने के लिए अमरीका और ब्रज़ील जैसे देशों में फ़ैक्टरीनुमा फ़ार्म बन गए हैं जिनमें मुर्गी, सूअर और गाय जैसे जानवरों को माँस के लोथड़ों की तरह बेहद तंग और बर्बर हालात में पाला जाता है। उन्हें बीमारियों से बचाने के लिए उनपर एंटीबायोटिक दवाओँ की बरसात की जाती है। जिसके कारण उनमें ऐसे बैक्टीरिया पनप रहे हैं जिनपर एंटीबायोटिक दवाएँ बेअसर हो जाती हैं। साथ ही उनका माँस खाने वालों पर एंटीबायोटिक दवाएँ असर करना बंद कर देती हैं। यानी यदि आप बीमार पड़ जाते हैं तो आपको ठीक करने के लिए हर दवा काम करना बंद कर देती है।
लेकिन इस घोर बर्बर फ़ार्मिंग का असली नुकसान यह हो रहा है कि इस दमघोंटू वातावरण में वायरसों को पनपने और नया रूप धारण करने का मौका मिल रहा है। जो लोग इन फ़ार्मों में काम करते हैं उनके ज़रिए ये नए वायरस महामारियाँ बनकर फैल रहे हैं और हमारे लिए नई चुनौतियाँ खड़ी कर रहे हैं। फ़ैक्टरीनुमा फ़ार्मिंग के अलावा पूर्वी एशियाई देशों में वेट मार्किटों या ऐसे मछली बाज़ारों का चलन है जहाँ जानवरों को सब्ज़ियों की तरह नेट जाल में भर-भर कर ज़िंदा लाया जाता है और ग्राहकों के सामने काट-काट कर बेचा जाता है। इन जानवरों में मछलियों और जलजीवों के साथ-साथ, साँप, नेवले, पैंगोलिन, जंगली बिलाव और चमगादड़ जैसे जंगली जानवर भी बिकते हैं जिनके संपर्क में मनुष्य सहज रूप से नहीं आता। इनमें से चमगादड़ ख़ास तौर पर वायरसों के घर माने जाते हैं क्योंकि वे एकमात्र ऐसे स्तनधारी हैं जो उड़ते हैं। उड़ान के लिए बनने वाली ऊर्जा की वजह से उन पर वायरसों का असर नहीं होता। इसलिए वे वायरसों की नर्सरी माने जाते हैं। मछली बाज़ार में दूसरे जानवरों के साथ उनके ख़ून, चर्बी में पड़े रहने के कारण उनके वायरस दूसरे जानवरों को लग जाते हैं और उनसे उनके संपर्क में आने वाले इंसानों को। वूहान के मछली बाज़ार में यही हुआ जिससे सार्स कोवी-2 वायरस फैला है।
तो यदि सच में कोविड-19 जैसी महामारियों की रोकथाम करनी है तो हमें अपनी मांस खाने और उसके लिए जानवरों को पालने की प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव लाना होगा। मछली बाज़ारों में काम करने वाले और फ़ैक्टरी फ़ार्म चलाने वाले लोग इसके लिए तैयार नहीं है। सिगरेट उद्योग ने सिगरेटों से होने वाले नुकसान के शोध को पचास वर्षों तक सर्वमान्य नहीं होने दिया था। एक बार फिर वही कहानी दोहराई जा रही है। इस बार दोहराने वाला सिगरेट नहीं माँस और फ़ार्म उद्योग है। लेकिन समस्या की जड़ को समझने और स्वीकार करने के लिए अभी और कितनी महामारियों की मार झेलनी होगी यह देखना बाक़ी है। बीबीसी के ज़माने के पुराने दोस्त उबैद सिद्दीक़ी साहब का शेर है:
अभी कुछ और करतब देखने भी हैं दिखाने भी,
तमाशा-गाह-ए-आलम हम तुम्हें आबाद रखेंगे।