कोरोना विश्व महामारी : जिसका डर था वही हुआ यारो!
शिव कांत
बीबीसी हिंदी रेडियो के पूर्व सम्पादक लंदन से
इस सप्ताह कोविड-19 की महामारी पर चिकित्सा विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्रिका लान्सेट के संपादक रिचर्ड हॉर्टन की एक पुस्तक प्रकाशित हो रही है – The Covid-19 Catastrophe: What’s gone wrong and how to stop it happening again. अपनी इस बेबाक पुस्तक में रिचर्ड हॉर्टन ने कोविड-19 महामारी की रोकथाम के ब्रितानी सरकार के प्रयासों को वर्तमान युग में विज्ञान नीति की सबसे बड़ी नाकामी बताया है. उनका कहना है कि महामारी की रोकथाम के लिए बनाए गए आपात कालीन विज्ञान सलाहकार दल – सेज – ने सरकार की जन प्रचार शाखा की भूमिका निभाने के अलावा कुछ नहीं किया. सलाहकार दल सेज के साथ-साथ उन्होंने ब्रितानी रॉयल कॉलेजों, चिकित्सा विज्ञान अकादमियों, ब्रिटिश चिकित्सा संगठन और पब्लिक हैल्थ इंगलैंड को भी महामारी की गंभीरता के बारे में मुखरता से न बोलने के लिए आड़े हाथों लिया है.
रिचर्ड हार्टन अपनी साफ़गोई के लिए जाने जाते हैं. वे त्वचा के केंसर मेलेनोमा की चौथी और चरम अवस्था से जूझ रहे हैं और थोड़े ही समय के मेहमान हैं. इसलिए उनकी आलोचना ख़ास वज़न रखती है. उनका कहना है कि ब्रितानी चिकित्सा संस्थाओं ने विश्व स्वास्थ्य संगठन की जनस्वास्थ्य आपदा की चेतावनी को पूरी गंभीरता से नहीं लिया. हालाँकि विश्व स्वास्थ्य संगठन पर भी चेतावनी जारी करने में देरी करने के आरोप लगते रहे हैं. लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 को फ़रवरी में जनस्वास्थ्य आपदा घोषित कर दिया था. लान्सेट में रिचर्ड हॉर्टन भी जनवरी के महीने से ही महामारी की गंभीरता के बारे में लिखते आ रहे थे. ब्रितानी चिकित्सा संस्थाएँ महामारी की गंभीरता का अंदाज़ा लगाने के लिए चीनी चिकित्सा संस्थाओं से सीधा संपर्क भी कर सकती थीं. लेकिन न तो चिकित्सा संस्थाओं ने ऐसा कुछ किया और न ही सरकार ने किसी की बात सुनी.
रिचर्ड हॉर्टन का कहना है कि चिकित्सा संस्थाओं और सलाहकारों के दब्बूपन और सरकार की लापरवाही की वजह से लॉकडाउन लगाने में तीन से चार हफ़्तों की देरी हुई. महामारी की गंभीरता को और उससे बचाव करने के लिए मास्क, दस्ताने और गाऊन जैसे पीपीई उपकरणों के महत्व को न समझ पाने के कारण सरकार समय रहते बचाव के लिए ज़रूरी साधन नहीं जुटा पाई. इस भूल की कीमत हज़ारों लोगों को अपनी जान से चुकानी पड़ी. रिचर्ड हॉर्टन का मानना है कि समय रहते कदम उठा लिए जाते तो ब्रिटन में मारे गए
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41,700 लोगों में से कम से कम आधे लोगों की जानें बचाई जा सकती थीं. ब्रिटन ने अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें बंद करने और बड़े शहरों में सार्वजनिक यातायात बंद करने में बहुत देर की.
लान्सेट के संपादक की यह आलोचना केवल ब्रितानी सरकार और उसकी चिकित्सा संस्थाओं पर ही नहीं बल्कि अमरीका, ब्रज़ील, इटली, स्पेन, रूस और भारत जैसे और भी बहुत से ऐसे देशों पर सटीक बैठती है जो बुरी तरह महामारी का शिकार हुए हैं. मिसाल के लिए कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं है. इटली और ग्रीस दोनों आमने-सामने के देश हैं बीच में संकरा सा एड्रियाटिक सागर पड़ता है. इटली में लॉकडाउन करने में देरी और टैस्ट-ट्रेस-आइसोलेट करने की प्रक्रिया में देरी होने की वजह से 2,36,651 लोगों को यह महामारी लगी और 34,301 लोग मारे गए. जबकि ग्रीस में समय रहते मुस्तैदी से कदम उठाने के कारण केवल 3,121 लोगों को बीमारी लगी और 183 लोग ही मारे गए. इटली की आबादी ग्रीस से छह गुना है. लेकिन ग्रीस आर्थिक मामले में इटली से बहुत कमज़ोर है और उसकी अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह पर्यटन पर आश्रित है.
महामारी के ख़तरे को समय रहते भाँपने और चेतावनियों से सजग होकर तत्काल क़दम उठाने के बावजूद वही देश रोकथाम में कामयाब रहे हैं जहाँ सामाजिक और राजनीतिक मतभेदों के कारण लोग बँटे हुए नहीं थे और सब ने मिलजुल कर महामारी का सामना किया. इसीलिए न्यूज़ीलैंड, वियतनाम, ताईवान और दक्षिण कोरिया महामारी की रोकथाम में कामयाब रहे. जबकि अमरीका, ब्रज़ील, ब्रिटन और भारत बुरी तरह नाकाम. अमरीका और ब्रज़ील में तो सरकारें अपनी ही वैज्ञानिक संस्थाओं के ख़िलाफ़ मोर्चे खोले हुए हैं. पार्टी विचारधाराओं को लेकर देश के लोग इतने बँटे हुए हैं कि एक-दूसरे के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं. ब्रज़ील में हालात इतने ख़राब हो चुके हैं कि अस्पतालों और मरघटों में जगह नहीं है. राष्ट्रपति जाइर बोल्सोनारो को कोविड-19 महामारी अपनी सरकार के ख़िलाफ़ साज़िश नज़र आती है. इसलिए सरकार ने अब महामारी से मरने वालों और बीमार होने वालों की सूचना देना ही बंद कर दिया है. पेरू, चिली और मैक्सिको के हालात भी गंभीर हैं.
लोग चीन में मरने वालों की संख्या पर सवाल उठाते रहे हैं. लेकिन चीन सही-ग़लत सूचना तो देता रहा है. रूस में पता ही नहीं लग पा रहा है कि कितने लोग कहाँ मर रहे हैं. सवा पाँच लाख से ज़्यादा लोगों को महामारी लग चुकी है. लेकिन मरने वालों की संख्या सात हज़ार से नीचे है जिस पर बाकी देशों के आँकड़ों को देखते हुए भरोसा कर पाना मुश्किल है. भारत में देशव्यापी लॉकडाउन के बावजूद अब कारोबार खुलने के साथ-साथ बीमारी तेज़ी से फैल रही है. मृत्युदर दूसरे देशों की तुलना में अभी तक बहुत कम है. लेकिन मॉनसून में बुख़ारों का मौसम आने के बाद हालात कितने काबू में रह पाएँगे कहना मुश्किल है. सरकार ने यदि प्रवासी कामगरों की समस्या का हल करते हुए फ़रवरी में लॉकडाउन किया होता तो शायद हालात बहुत बेहतर होते. लेकिन देश में राजनीतिक कड़वाहट इतनी है और लोगों की आपाधापी की आदतें इतनी ख़राब हैं कि यह सब कर लेने पर भी कितनी रोकथाम हो पाती यह कहना मुश्किल है.
कुल मिला कर होता वही नज़र आ रहा है जिसका डर था. अमीर और विकसित देशों के बाद अब महामारी ने ग़रीब और विकासशील देशों को निशाने पर ले लिया है. भारत, ब्रज़ील, रूस, मैक्सिको, दक्षिण अफ़्रीका, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नाइजीरिया ये सब बड़ी आबादियों वाले कम विकसित देश हैं जहाँ की स्वास्थ्य सेवाएँ महामारी से बीमार पड़ने वाले लोगों के बोझ से चरमरा सकती हैं. उससे भी बड़ा बोझ अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान का है. अमरीका, यूरोप और जापान तो आसान दरों पर बाज़ार से कर्ज़ लेकर अर्थव्यवस्था को मंदी के दौर से निकाल ले जाएँगे. लेकिन ब्रज़ील, भारत, रूस, दक्षिण अफ़्रीका और नाइजीरिया जैसे देशों को डॉलर में कर्ज़े लेकर अपनी मुद्रा के घटते दामों की वजह से ऊँची दरों पर चुकाने होंगे. इंद्र सराज़ी का शेर है:
जिसका डर था वही हुआ यारो,
वो फ़क़त हम से ही ख़फ़ा निकला…