विज्ञान और आत्मज्ञान का समन्वय जरूरी
विनोबा का आज का वेद चिंतन
ईशावास्य उपनिषद बताता है कि पश्चिम में व्यूह और भारत में समूह, इन दो कामों में से इन दिनों, पश्चिम के लोगों ने एक अंग को ज्यादा विकसित किया है।
वहां पर व्यूह का,फैलाने का कार्य चला है। विविध काम करना, विविध विषयों में जाना, यह काम उन्होंने काफी कर लिया है।
इधर हिंदुस्तान में समूहन का, अंदर खींचने का काम काफी हुआ है । इसका मतलब यह नहीं है कि वहां पर समूहन कार्य नहीं हुआ या यहां पर व्यूह का कार्य नहीं हुआ।
लेकिन वहां के लोगों ने प्रामुख्येन, प्राधान्येन विविधाग्रता में काफी विकास किया है।
उन्होंने विज्ञान को विकसित किया है तो उसका भी काफी लाभ हुआ है।
क्लोरोफॉर्म की खोज हुई, वह दया से प्रेरित कार्य हुआ। मानवता के लिए कितना उपयोगी कार्य हुआ।
जैसे पत्थर काटते हैं वैसे ही बिल्कुल अंदर की हड्डी को काटा जाता है लेकिन मनुष्य को कुछ भी पता नहीं चलता।
विज्ञान और आत्मज्ञान के समन्वय से पूर्ण जीवन ईशावास्य ने व्यूह और समूह कहकर बड़ा बोध दिया है।
जहां दोनों शक्तियां मौजूद हैं, वहीं पूर्णता है । वाहय शक्ति और अंतर की शक्ति, दोनों का विकास होना चाहिए।
इसलिए मैं बार-बार कहता हूं कि विज्ञान और आत्मज्ञान के समन्वय की जरूरत है ।उसके बिना दुनिया का उद्धार नहीं होगा।
यह सब चीजें मुझे ईशावास्य से मिलती हैं। दोनों शक्तियों का योग होना चाहिए।
घड़ी को खोल कर उसके पुर्जे अलग अलग करने के लिए कहा जाएगा तो मैं तो वह नहीं कह सकता हूं ऐसा है जो कर सकता है।
परन्तु एक शख्स ऐसा है, जो कर सकता है। उसे कहा जाए, उन पुर्जों को जोड़ दो, घड़ी पूरी कर दो।
और अगर वह कहे कि मैं यह नहीं कर सकता, मैंने खोल दिया पर मैं जोड़ नहीं सकता, तो उसका ज्ञान एकांगी है। उसने व्यूह जाना लेकिन समूह नहीं जाना।
घड़ी के हिस्से अलग करना जाना परंतु जोड़ना नहीं जाना। और मैंने कुछ ही नहीं जाना, सिर्फ घड़ी देखना और उसे इस्तेमाल करना जाना।
और मैंने कुछ ही नहीं जाना, सिर्फ घडी देखना और इस्तेमाल करना जाना।
ये सारी चीजें खोलने का काम विज्ञान करता है। लेकिन जोड़ने का काम अध्यात्म को करना है ।
दोनों मिलकर जो बनेगा, वह पूर्ण जीवन होगा।