जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी पर जीवन के समक्ष चुनौतियाँ
निरन्तर –क्षण-प्रतिक्षण परिवर्तन सार्वभौमिक नियम है। कुछ भी परिवर्तन नियम की परिधि से बाहर नहीं है। जलवायु भी, तब, कैसे इसका अपवाद हो सकती है? लेकिन, परिवर्तन, विशेष रूप से जीवन और इसकी निरन्तरता का प्रमुख आधार जलवायु, स्वाभाविक रूप से परिवर्तित हो, तो वह प्रायः कल्याणकारी होगा। यही वास्तविकता है।
इस स्थिति के बाद भी विश्व के हर भाग में, हर देश में, गत हजारों वर्षों की समयावधि में निरन्तर बढ़ती विकास-प्रक्रिया में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हुआ। वनस्पति का उपयोग हुआ। इससे प्रकृति, जो जलवायु की शुद्धता, स्थिरता और समृद्धि के लिए अतिमहत्त्वपूर्ण –निर्णायक भूमिका का निर्वहन करती है (पर्वत, नदियाँ और सभी प्राकृतिक स्रोत भी जिसमें सम्मिलित हैं), प्रभावित हुई। लेकिन विकास-प्रक्रिया में यह अपरिहार्य, आवश्यक और स्वाभाविक था, और है।
समुचित दोहन की स्थिति में प्रकृति अपना संतुलन बनाए रखने में पूर्णतः सक्षम होती है। अपने को संभालने रखती है। जलवायु को अनुकूल बनाए रखती है। हजारों वर्षों का इतिहास इस सत्यता का साक्षी है। उसी प्रकार, अनावश्यक-हिंसक उल्लंघन न होने की स्थिति में प्राकृतिक संसाधन वरदान बने रहते हैंI वनस्पति पोषक व रक्षक बनी रहती है।
अठारहवीं शताब्दी के उत्तर्रार्ध में, विशेषकर यूरोप से औद्योगीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। वर्तमान मानव सभ्यता के सम्पूर्ण इतिहास में वह एक अभूतपूर्व व परिवर्तनकारी घटना थी। विकास के दृष्टिकोण से ही नहीं, अपितु पृथ्वी पर भविष्य में जीवन को अकल्पनीय रूप से प्रभावित करने वाली भी थी। उस प्रभाव को आज हम सभी, निरन्तर बढ़ते वैश्विक तापन की स्थिति में, जब धरा पर जीवन के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग गया है, भली-भाँति जानते और समझते हैं।
भारी उद्योगों की स्थापना और उनके लिए सुविधाएँ जुटाने के उद्देश्य से प्राकृतिक संसाधनों का अनुचित-हिंसक दोहन, व प्रकृति से अन्यायी छेड़छाड़ प्रक्रिया का एक कदम था। वह आजतक भी जारी है। उद्योगों में विशाल पैमाने पर होने वाले उत्पादन के लिए कच्चे माल के आयात व तैयार माल के निर्यात हेतु परिवहन व्यवस्था, यातायात-सुविधा के लिए निरन्तर होड़ दूसरा दुष्प्रभावकारी कदम था, और है। इन दोनों ने पर्यावरण सन्तुलन और प्रकृति के स्वरूप को बुरी तरह बिगाड़ दिया है। जलवायु इतनी बिगड़ गई है कि धरावासियों के समक्ष अब यह प्रमुख और चुनौती भरी समस्या के रूप में है। धरा पर, जैसा कि कहा है, जीवन के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न है।
निरन्तर सूखती नदियाँ, तालाब और झरने, नीचे गिरता जल-स्तर,सिमटते वन (केवल 1990-2020 ईसवीं की समयावधि में ही 178 मिलियन हेक्टेयर वन कम हुए हैं) और ग्लेशियर, ध्रुवों पर भारी मात्रा में पिघलती बर्फ और, परिणामस्वरूप, तीव्रतापूर्वक बढ़ता समुद्र का जल स्तर आदि भयावह दुष्प्रभाव, बढ़ते वैश्विक तापन व अनियंत्रित जलवायु का ही परिणाम है।इससे ही मौसम की प्रकृति भी बदल गई है। मौसम अनिश्चित अवस्था में पहुँच गया है। बाढ़ व सूखे की अति असंतुलित स्थिति उत्पन्न हो गई है। इस स्थिति में स्वयं भारत में पच्चीस प्रतिशत भूमि रेगिस्तान बनने की ओर है।
हजारों की सँख्या में वे वन्य जीव, जो प्रकृति-संरक्षण, वातावरण-संतुलन एवं जलवायु शुद्धता व अनुकूलता हेतु अपनी अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं, या तो विलुप्त हो गए हैं, अथवा वे विलुप्तता के कगार पर हैं। वर्ष 2016 ईसवीं की एक वैज्ञानिक रिपोर्ट के अनुसार सात सौ पच्चीस जीव-प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी थीं, और 22, 550 प्रजातियाँ विलुप्त होने की स्थिति में थी। स्वयं मानव जीवन के समक्ष प्रत्यक्षतः भयंकर खतरा विद्यमान है। बढ़ती वैश्विक तापन स्थिति में अनेक बड़े-छोटे समुद्र तटीय नगरों के अल्पावधि में जलमग्न हो जाने की सम्भावना है।
यह सारे संसार, प्रत्येक नारी व नर के लिए भयंकर चिन्ता का विषय है। विषय-विशेषज्ञ और वे सभी, जो इस अति गम्भीर स्थिति से चिन्तित हैं, वर्षों से निरन्तर सजातीयों को सचेत करने के साथ ही इस स्थिति से उबरने के लिए विभिन्न रूपों में कार्य कर रहे हैं। वे लिख रहें हैं। संगोष्ठियाँ व सम्मेलनआयोजित कर इस गम्भीर स्थिति से अवगत करा रहे हैं। अभी भी समय रहते सजातीयों का संभल जाने का आह्वान कर रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे सर्वोच्च वैश्विक संगठन सहित अन्य अन्तर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय, क्षेत्रीय-स्थानीय संस्थाएँ भी इस दिशा में कार्य कर रही हैं। लेकिन, अभी तक कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया हैI न ही बिगड़ चुकी स्थिति में कोई ठोस सुधार दृष्टिगोचर हुआ है। विपरीत इसके, वैश्विक तापन की स्थिति में शनैः-शनैः बढ़ोतरी की बात ही सामने आती है। अनुमानानुसार आने वाले तीन दशकों में 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर भीषण तबाही प्रकट हो सकती है।
तो अब ऐसे में क्या किया जाए? पहली बात, प्रत्येक जन, स्त्री और पुरुष, को स्थिति की गम्भीरता की अनुभूति कराई जाए। स्थिति के न सुधरने-संभलने के अन्तिम परिणाम से, जो पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व को अपनी चपेट में लिए हुए है, अन्तिम जन तक को अवगत कराया जाए।
तदुपरान्त, प्रकृति-संरक्षण को प्रत्येक जन का मूल कर्त्तव्य बनाया जाए। इसी कड़ी में प्रत्येक जन प्रदूषण उत्पन्न करने वाले यंत्रों-साधनों का, जो कथित विलासिता व कायिक सुख के लिए हैं, अविलम्ब कम-से-कम प्रयोग करना प्रारम्भ करे। ऐसा कहना कोई हवा-हवाई बात नहीं है। इस हेतु यह वांछित है। यह करना ही होगा।
इससे ही जलवायु शुद्ध-स्वच्छ और स्थिर होगी। वातावरण संतुलित होगा। प्रकृति संरक्षण को, जिसमें पशु-पक्षियों, जंतुओं और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा अनिवार्य रूप से सम्मिलित है, हमें प्राथमिकता से लेना ही होगा। हमें स्वयं अविलम्ब यह समझ लेना होगा कि जलवायु को अनुकूल बनाना हमारा परम कर्त्तव्य है। जलवायु को उसके मूल स्वरूप में स्थापित करना हम सभी का समान रूप से उत्तरदायित्व है। हम सभी को एक साथ एक नाव पर बैठकर पार उतरना है; अन्यथा, अपनी कर्त्तव्य विमुख स्थिति में डूब जाना है। सभ्यता के पतन की ओर बढ़ जाना है।
*पद्म श्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत इण्डोलॉजिस्ट डॉ0 रवीन्द्रकुमार चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के पूर्व कुलपति हैं; साथ ही ग्लोबलपीस अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिका के प्रधान सम्पादक भी हैं.