क्लारीबेल आलेग्रीआ : जो लातीन अमेरिकी औरतों की आवाज़ थीं
मध्य अमेरिका में सन् 50 के मध्य दशक से लेकर सन् 60 के दशक के प्रारंभ तक प्रतिबद्ध पीढ़ी नामक साहित्यिक आंदोलन को बुद्धिजीवी वर्ग ने इसलिए चलाया ताकि उच्च और मध्यम वर्ग के लोग कम हैसियत वाले अपने देशवासियों को सामाजिक और राजनीतिक न्याय दिला सकें।
सन् 60 के दशक में पूरे मध्य अमेरिका में हिंसक आंदोलन हो रहे थे। क्लारीबेल की कविताएं उसी युग का प्रतिनिधित्व करती हैं। बिल्कुल सीधे रूप से अपना राजनीतिक संदेश देती हैं।
एल साल्वाडोर के गृहयुद्ध ने उन पर गहरा असर डाला था। वे वामपंथी गुरिल्ला संगठन सांदिनीस्ता राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा से जुड़ी रहीं जिसने सन् 1979 में निकारागुआ सरकार का तख्ता पलट दिया।
लातीन अमेरिकी समाज पुरुष प्रधान है। सदियों से वहां की औरतें न्याय और समानता के अधिकार के लिये संघर्ष कर रही हैं। क्लारीबेल ने उन्हें मुखर आवाज दी।उनका वास्तविक नाम क्लारा ईसाबेल आलेग्रीआ वीडेस था।क्लारीबेल आलेग्रीआ उनका छद्म नाम था।
वे निकारागुआ में जन्मी साल्वाडोरी थीं। पिता निकारागुआ और मां साल्वाडोर की थीं। उनका जन्म 12 मई 1924 को ऐस्तेली शहर में हुआ था।
बचपन में अपने घर की खिड़की से बराबर देखती थी कि किसानों का अंगूठा पीठ की ओर बांध कर सैनिक उन्हें कहीं ले जा रहे हैं। थोड़ी देर बाद गोली चलने की आवाज आती थी ।
उनका बाल मन समझने लगा था कि किसानों के साथ क्या हुआ होगा।
उनके पिता जी पेशे से चिकित्सक थे और अपने आसपास हो रहे अत्याचारों के खिलाफ मुहिम चला रहे थे। लिहाज़ा फासिस्ट शासन ने उन्हें देश निकाला दे दिया।
उन दिनों क्लारीबेल भी विद्रोह की कविताएं लिखने लगी थीं। उन्हें भी निर्वासित होना पड़ा। और वे अमरीका आ गयीं।
सन् 1943 में संयुक्त राज्य अमेरिका के जार्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय से दर्शन और साहित्य में स्नातक हुईं ।
वहां उनके गुरु के रूप में हुआन रामोन हिमेनेज मिले जो स्पेनिश भाषा के एक महान कवि थे। उन्होंने उन्हें सानेट और मीटर वाली कविताएं लिखने के लिये प्रेरित किया।लेकिन हिमेनेज के साथ उनके बड़े दुखदाई अनुभव रहे। क्योंकि वे उनकी कविताओं में बहुत बेदर्दी से दोष निकालते थे। वे अत्यंत पूर्णतावादी अध्यापक थे। वे चाहते थे कि क्लारीबेल जबर्दस्त कवियत्री बनें।
क्लारीबेल ने एक अमेरिकी कूटनीतिज्ञ डार्विन फ़्लैकॉल से विवाह किया, जो कभी पत्रकार भी रह चुके थे। वे उनकी साहित्यिक यात्रा में काफ़ी मददगार साबित हुए। उनके कई उपन्यासों और कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया।
उनकी कविताएं प्यार और मृत्यु पर केंद्रित हैं।
ओकलाहोमा विश्वविद्यालय ने उन्हें सन् 2006 में अपना प्रतिष्ठित न्यूस्टैट अंतरराष्ट्रीय साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया। सम्मान समारोह में उन्होंने “कविता की तलवार” विषय पर भाषण दिया। जिसमें बाइबल को उद्धृत करते हुए कहा कि ” आरंभ में शब्द था और शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ही ईश्वर था।’
इसलिये शब्द ही हमारी ताकत और तलवार है।
सन् 1995 में पति की मृत्यु के बाद वे अंदर से टूट गयीं। और एक बेहतरीन कविता लिखी जिसका शीर्षक था— सौरो ( दुःख)।जिसकी आरंभिक पंक्तियां हैं–
मैं अब हम नहीं रही
फिर से हो गयी हूं मैं
उसके सर्द
और खाली बोझ के साथ
लेकिन जैसे जैसे कविता आगे बढ़ती है उनका विद्रोह मुखर होता जाता है।उस स्थिति के ख़िलाफ़ जब उनके पति अब स्मृतियों में सिमट कर रह गये —
मैं नहीं चाहती
तिरोहित होती स्मृतियों को
चबाते हुए जीना…
ग़म मेरे साथ चल नहीं सकता
ले जाऊंगी मैं उसे ज़िन्दगी की ओर
और तब वह उड़ जायेगा…
पति की मृत्यु के बाद उन्होंने लिखा कि,” मौत मेरी दोस्त बन गयी है और मैं उससे बातें करती रहती हूं।”
विषाद के गहरे क्षणों में भी रोशनी है। ज़िन्दग़ी की उम्मीद। और यही बात क्लारीबेल को एक महान कवियों की पंक्ति में खड़ी कर देती है । उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिये भी नामित किया गया था ।
उनकी कविताओं के तेरह संकलन, चार लघु उपन्यास और बच्चों के लिये एक कथा संकलन प्रकाशित हो चुके हैं।
25 जनवरी 2018 को उनकी मृत्यु हो गयी।
प्रस्तुत हैं उस महान कवियत्री की कुछ रचनाएं:
रात सपनों में
रात
सपनों में
अनेक दिवंगत दोस्त
ज़िंदा हो उठते हैं
जागने पर
सोचती हूं
क्या उन लोगों ने भी मुझे
अपने सपनों में देखा होगा?
इस पत्ते की खिड़की से ज़रा सूरज को तो देखो
(14, मई 1980 को सुम्पुल नदी के तट पर हुए खौफ़नाक नरसंहार की याद दिलाती लंबी कविता का संक्षिप्त अंश )
मेरे पास आओ
ज्वालामुखी के मुहाने तक
कुहासा तोड़ना होगा तुम्हें
अंदर मुहाने में
इतिहास खदक रहा है
आत्लाकाल
आल्वारादो
मार्ती
और ये महान् लोग
जो आज हर चीज़ को दांव पर लगा रहे
बादलों के नीचे
जहां खेलती है हरी घास
आमातेस
सीबा
काफ़ी बगान
देख रहे उस बाज़ की ओर
मनाने के लिये ज़श्न
“मैं अरसे तक तूफ़ानी नदी में थी”
वह आगे समझाती है—
एक पांच साल का बच्चा
मुझसे पूछता था
. .. क्या मैं कभी बाहर निकल सकूंगा?
कसाईगीरी फैलाती जब सेना आयी
हमने चाहा था भाग जाना
वो चौदह मई थी!
जब हम भागे
मेरे तीन बेटों को मार डाला उन्होंने
पति का हाथ बांध कर खींच ले गये।
अपने छोटे बेटे को बांहों में लिये वह औरत
उनके लिये रोती है खामोश…
“जब सैनिक आते मैंने
मरने का स्वांग रचा
डरती थी कहीं रोने न लगे मेरा बबुआ
और उसे भी मार न दें वे?”
फुसफुसा कर बच्चे को करती है प्यार
पोंछती उसके आंसुओं को
एक पेड़ का पत्ता तोड़ कर
कहती है उससे:
“अरे, ज़रा इस पत्ते की खिड़की से
सूरज को तो देखो…।”
बच्चा मुस्कुराता है
वह ढक देती है उसका चेहरा
उन पत्तों से
ताकि वह रोते नहीं
वह देखे दुनिया को
पत्तों की ओट से
और रोते नहीं
जब पहरुए जायें
इलाके को छान कर…
एक बाज़, बेआवाज़
काटता है चक्कर उन पर
वह देखती है उसे
और उसके बच्चे भी ..
ठीक उनके सामने से
राकेट भरा बाज़ उड़ जाता है
बच्चे मुस्कराते हैं उसे देखते…
“मदर ने हमें बचा लिया’
औरत खुशी से चहचहाती है
और अपने घावों को
ज्यादा पत्तों से ढक लेती है
वह हो गयी है पारदर्शी
उसका बदन मिल गया है धरती से
वह धरती है
वह पानी है
वहीं है ग्रह
जिसे कहते हैं मां धरती
घायल मां धरती…
हमारा इतिहास
जो बन गया है लावा
धरती से मिल गये हैं
अदृश्य गुरिल्ले
पहरुए देख नहीं पाते उन्हें
न पायलट ही
मृतकों का हिसाब जोड़ते हुए
न यांकी उस्ताद
हथियारों से लैस अपने बाज़ों पर विश्वास धरे
न वे पांच मुर्दे ही
अपने काले चश्मे के पीछे से हुकूमत करते
जिन्हें नज़र नहीं आता वह लावा
वे उद्दीप्त लोग, वे गुरिल्ले
बूढ़े संतरियों
और खबरची बच्चों में छुपे
जिन पर है झोपड़पट्टियों की हिफाज़त करने का भार
गुप्त कोठरी, गंदे भिखमंगे
चर्च की सीढ़ियों पर बैठे
पहृरुओं की हर गतिविधि पर रखे नजर
वह औरत बैठी है
वहीं अपने बच्चों के साथ
एक सो रहा है उसकी बांहों में
बिल्कुल बेखबर
दूसरा ठुमक रहा है
” मुझे बता तूने क्या देखा?”
पूछता है पत्रकार
“मैं अरसे तक तूफ़ानी नदी में थी’
जवाब था उसका….