चमोली ऋषिगंगा-धौली प्रसंग : उत्तराखंड में आपदाओं का सिलसिला
उत्तराखंड के चमोली में पिछले महीने हुए भारी हिम – भूस्खलन और ऋषिगंगा नदी की प्रलयंकारी बाढ़ से जन धन की भारी हानि हुई थी. इस आपदा की तरह- तरह से व्याख्या हुई. प्रस्तुत है हिमालय क्षेत्र के विशेषज्ञ डा शेखर पाठक का गहन और समग्र विश्लेषण.
रविवार 7 फरवरी 2021 की सुबह लगभग साढ़े दस बजे नन्दादेवी अभयारण्य से बाहर निकलने वाली एक मात्र नदी ऋषिगंगा के गौर्ज में एक बड़े भू-हिमस्खलन के बाद उसकी सहायक और बांई ओर से उसमें मिलने वाली रौन्थी गाड़ में रुके पानी के मिट्टी-मलवे के साथ बाहर आने से जो बाढ़ आई उसकी तरह-तरह की व्याख्याएं हो रही हैं। दरअसल ऋषिगंगा की मुख्यधारा में भी मलवे ने अवरोध खड़ा किया है, जिसे अब खतरे से बाहर बताया जा रहा है। मुझे ऋषिगंगा के मिजाज पर शक है। क्योंकि उसका मिजाज उस कठिन जलागम से जुड़ा है जो 7817 मीटर ऊँचे शिखर तक गया जटिल भूगोल है और उसे बर्फ और धूप के साथ हवा भी प्रभावित करती है। भूकम्प उसके स्वभाव में हैं।
समाचार माध्यमों में कहा जा रहा है कि ग्लेशियर में मौजूद झील टूट गई है। कहीं कहा जा रहा है कि ग्लेशियर बहकर आ गया है। इससे ग्लेशियर और उनकी गतिशीलता की मीडिया की अधकचरी समझ उजागर होती है।
सबसे शुष्क और गर्म जाड़ा
प्लैनेट्स लैब ने सैटेलाइट इमेजरी का जो विश्लेषण किया है उसके अनुसार ऋषिगंगा के जलागम के पश्चिमी आन्तरिक ढाल में चट्टान का एक हिस्सा कुछ समय से टूटने की तैयारी कर रहा था। शायद इस बार बर्फ विहीन जाड़ों का मौसम इसका कारण था। क्योंकि 15 सितम्बर 2020 के बाद निचले इलाकों में साड़े तीन माह से अधिक समय तक वर्षा नहीं हुई या अत्यन्त मामूली और ऊपरी इलाकों में बर्फ बहुत कम गिरी। नवम्बर-दिसम्बर में छिपलाकोट, कुंवारी पास, औली या खलिया टाॅप जैसे इलाकों में पहली बर्फ दिखती थी, जो जनवरी-फरवरी में भी नहीं गिरी या बहुत कम। जाड़ों के ‘गर्म’ होने का एक संकेत दिसम्बर-जनवरी में लगी जंगलों की आग थी, जिसकी मीडिया में ज्यादा चर्चा नहीं हुई। ‘नियंत्रित आग’ के नाम पर भी इस बार बहुत जंगल जलाये गये।
वैज्ञानिक बता रहे हैं कि 6 दशकों में यह ‘सबसे गर्म जाड़ा’ था। रौन्थी ग्लेशियर से आने वाली रौन्थी गाड़ में मिट्टी-चट्टान और बर्फ 5600 मीटर से टूटकर 3800 मी. तक आ गिरी। यह स्खलन लगभग 2 किमी. लम्बाई का बताया गया है। इसने ऋषिगंगा में संगम से पहले ही रौन्थी गाड़ को रोक दिया और एक झील का निर्माण किया। सैटेलाइट चित्रों की व्याख्या कर वैज्ञानिक बताते हैं कि ऋषिगंगा में भी रोक लगी पर अब नदी ने मार्ग बना लिया है। निश्चय ही ज्यादा गम्भीरता से स्थिति पर नजर बनाई रखनी होगी। वैज्ञानिक ज्यादा स्पष्टता से बतायेंगे। नवीन जुयाल तथा नरेश राणा ने अपने इन्टरव्यू में इसे स्पष्ट कर ऋषिगंगा में बनी झील का दृश्य भी दिखा दिया है।
इस मलवा, मिट्टी, चट्टान और बर्फ के टुकड़ों के मिले-जुले ढेर ने रौन्थी गाड़ को रोका। सिर्फ बर्फ से यह सम्भव नहीं होता है। रौन्थी के बंध के टूटने से नदी की शक्ति बहुगुणित हो गई। जबकि इस मौसम में ऋषिगंगा मंे पानी कम होता है। इसी तर्क के आधार पर 1982 में चिपको आन्दोलन ने विष्णुप्रयाग परियोजना को चुनौती दी थी और शीघ्र ही इसे रोका गया था। 4 से 6 महीने विष्णु गंगा या पुष्पावती में इतना पानी नहीं होता कि वांछित टरबाइन चल सकें।
नन्दादेवी का प्राकृतिक किला
नन्दादेवी की पहली विशेषता इसका प्राकृतिक किला है। पूरे हिमालय में यह इस तरह की अकेली प्राकृतिक संरचना है। लगभग 630 वर्ग किमी. में फैला नन्दा देवी प्राकृतिक अभयारण्य 18000 फीट की औसत ऊंचाई के पहाड़ों से चारों ओर से घिरा है (बफर जोन इसके अलावा है), जिसके बीच में नन्दादेवी मुख्य (7817 मी.) और पूर्वी शिखर (7434 मी.) स्थित हंै। इनके दोनों तरफ अभयारण्य के उत्तरी तथा दक्षिणी हिस्से हैं, जहाँ ऋषि ताल के अलावा कुछ और ताल भी हैं, जो अनेक महीनों तक जमे रहते हैं। नन्दादेवी अभयारण्य का प्राकृतिक किला लाटा धूरा (6392 मी.), सकराम (6254 मी.), बमचू (6303 मी.), द्यो डोमरा (6020 मी.), नन्दाकना (6300 फीट), मगरौं (6569 मी.), कालंका (6864 मी.), चंगबंग (6864 मी.), देवतोली (6788 मी.), देवस्थान (6678 मी.), पँवाली द्वार (6662 मी.), नन्दाखाट (6011 मी.) आदि शिखरों और उनको जोड़ने वाली धार द्वारा बनता है। इसका विस्तार रौन्थी (6063 मी.), नन्दाघुंटी (6309 मी.), त्रिशूल (7120 मी.), बिथारतोली (6352 मी.), हनुमान (6075 मी.), दूनागिरि (7066 मी.), मृगथूनी (6855 मी.) तथा मैकतोली (6803 मी.) शिखरों तक फैला है। इन शिखरों की बाहरी ढालों से गोरी, पूर्वी रामगंगा, पिण्डर, नन्दाकिनी और पश्चिमी धौली तथा उनकी अनेक सहायक नदियां निकलती हैं। लेकिन अभयारण्य के भीतर से विभिन्न ग्लेशियरों का पानी सिर्फ ऋषिगंगा बाहर लाती है। जिसका लगभग 10 किमी. लम्बा गौर्ज नन्दादेवी की भूगर्भिक-भौगोलिक संरचना को विशिष्ट बनाता है।
ऋषिगंगा गौर्ज के मार्ग से इस अभयारण्य में मनुष्य के न जा सकने की कहानी पर्वतारोहण के इतिहास का विशिष्ट अध्याय है। ट्रेल (1830) तथा एडोल्फ स्लगिन्टवाइट (1856) ने मात्र नन्दादेवी के किले के बाहर के दर्रे पार किये थे। डब्ल्यूडब्ल्यू ग्राहम ने 1883 में ऋषिगंगा के साथ अभयारण्य में जाने के प्रयास किये और दुरासी/डिब्रूघेटा नामक स्थान, जहां ऋषिगंगा एक भव्य और कठिन झरने के रूप में उतरती है, से उन्हें लौटना पड़ा। उसके बाद 1905 तथा 1907 में लौंगस्टाफ ने पहले सुराईढोटा और फिर जोहार घाटी में मरतोली के ऊपर की धार में पूर्वी नन्दादेवी के शिखर के करीब जाकर नन्दादेवी अभयारण्य में जाने की कोशिश की और सफल नहीं हुए। क्योंकि वहाँ भी खड़ी चट्टान थी। फिर 1932 मंे अलमोड़ा के डिप्टी कलेक्टर रटलैज ने सुन्दरढूंगा-मैकतोली की तरफ से कोशिश की। सफलता नहीं मिली।
अन्त में 1934 में तीन शेरपाओं-अंग थारके, पासांग और कुसांग-के साथ ऐरिक शिप्टन, बिल टिलमैन लाटा गांव तथा खरक से 1000 मीटर तक की खड़ी चट्टानों (ऋषिगंगा के ऊपर) से होकर धरासी पास, त्रिशूली नाला, रामनी, सरसों पातल होकर अभयारण्य के भीतर पहुंचने में सफल रहे और 1936 में टिलमैन तथा नाएॅल ओडेल आदि ने नन्दादेवी शिखर में पहुंचने में कामयाबी प्राप्त की। आधी सदी में फैले पर्वतारोहण के इस रोचक इतिहास को छोड़कर हम रेणी लौटते हैं, जो चिपको आन्दोलन का चर्चित गाँव है और वर्तमान आपदा का पहला शिकार भी।
लड़ाकू घाटियाँ, लड़ाकू गाँव
रेणी चिपको आन्दोलन का सुप्रसिद्ध गांव है। धौली और विष्णुगंगा या नीती और माणा घाटियों के गाँव चिपको तथा बद्रीनाथ में बिड़ला मंदिर विरोध सहित अनेक आन्दोलनों के हिस्सेदार रहे हैं। रेणी में ही 26 मार्च 1974 के दिन अपने पुरुषों की अनुपस्थिति में गौरा देवी और उनकी बहनों-बेटियों ने ठेकेदार के आदमियों से जंगलात विभाग तथा सामान्य प्रशासन की संयुक्त कूटनीति के बावजूद अपने जंगल को बचा लिया था। न पेड़ों से चिपकने की नौबत आई और न ही पराजय की। मण्डल और फाटा-रामपुर के बाद यह तीसरा चिपको प्रतिरोध था। पर रेणी ने चिपको को एक अलग ही ऊँचाई दे दी। महिलाओं ने उस जंगल में अपना मायका देखा था। उस मायके को खत्म करने सरकारें आतीं रहीं। कभी जंगल काटने, कभी चराई के अधिकार कम करने, कभी नन्दादेवी क्षेत्र में जाने पर रोक लगाने के बाद इस बार सरकार गलत और जबरन बनायी गयी हाइडिल परियोजना के रूप में आई और फिर से गाँव तथा इलाके को नष्ट कर गई। पर अब भी सरकार और उसके पैरोकार इसे ‘विकास’ कहते हैं।
इस रेणी गांव के नीचे ऋषिगंगा पश्चिमी धौली नदी में मिलती है। ऋषिगंगा का जो पुल बह गया है वह नीती तक के सीमान्त को जोड़ता था। पुल पार पल्ला रेणी और कुछ आगे लाटा गांव है। पर अभी हमें ऋषिगंगा में ही रहना है। इस बह गये पुल के पास से ही ऋषिगंगा के साथ पंैग और मुरंडा गांवों को रास्ता जाता है। पंैग और मुरंडा ऋषिगंगा के दांये-बांये स्थित अंतिम बसासतें हैं। यहां से लगभग 3 किमी. आगे रौन्थी ग्लेशियर से रौन्थी गाड़ नीचे आती है, जिसमें यह पहला भू-हिमस्खलन आकर ताल बना गया था। कुछ ही आगे बांई तरफ से त्रिशूली नाला भी आता है, जो बहुत विध्वंसक व्यवहार करता रहा है। ये दोनों ऋषिगंगा में मिलते हैं। इस भू-हिमस्खलन ने ऋषिगंगा को भी रोका पर नदी ज्यादा नहीं रुकी। रौन्थी गाड़ का मलवा, मिट्टी, चट्टानें और पानी कहर ढाने के लिए काफी था।
इस जगह से कुछ दूरी पर 13.2 मेगावाट की ऋषिगंगा परियोजना का बैराज था (मुरंडा गाँव के नीचे), जहाँ से पानी एक सुरंग के जरिये रेणी के नीचे बने पावर हाउस तक जाता था। अब यह भयावह बाढ़ बैराज तथा इस परियोजना के अन्य अनेक निर्माणों को ध्वस्त करते हुये आगे बढ़ती है। पाठकों ने इस आपदा के जीवन्त और डरावने वीडियो देखे होंगे पर स्थानीय लोगों से सुना वर्णन एक गहरा भय पैदा कर देता है। सुनाने वाले का भय सुनने वाले को भी भयभीत करता है। वीडियो में ऋषिगंगा से जो काले सफेद बादल उठते हैं वे बर्फ, पानी और धूल का मिलाजुला रूप थे और हाल के सालों में पहली बार लोग यह दृश्य देख रहे थे। ऐसा बरसात में नहीं हो पाता है। 1970 की बाढ़ को अनेक लोग भूल गये थे। सरकारें तो 2013 की महाआपदा को ही भूल गईं।
आगे नीती और सीमान्त को जाने वाला मोटर पुल ताश के पत्तों की तरह गिरता है। कुछ नीचे ऋषिगंगा-धौली संगम से पहले लकड़ी जमा कर रही रेणी की एक महिला और अपनी 100 से अधिक भेड़-बकरियों तथा गायों को चरा रहा एक ग्रामीण भी बाढ़ की चपेट में आ गये। उनका कुछ पता नहीं चला। धीरे-धीरे बवंडर बनती ऋषिगंगा ने शांत बहती धौली के साथ संगम के बाद जैसे धौली को अपना विध्वंसकारी चेहरा पहना दिया हो। संगम से पहले और बाद की धौली बिल्कुल अलग-अलग नदियों की तरह लगती थी। यह बाढ़ 4-5 किमी. नीचे ढाक-तपोवन में 530 मेगावाट की तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना के बैराज को कुछ तोड़ती और ज्यादा मलवे से भरती तथा बनाई जा रही सुरंगों तथा नदी की सतह को मलवे, मिट्टी, पत्थरों और सीमेंट के ढांचों से भरती आगे बढ़ रही थी। 15 किमी. आगे जोशीमठ की ओर जाने में भी नदी ने दोनों पाटों पर विध्वंस किया।
रविवार होने के बावजूद जिनकी ड्यूटी थी उनके अलावा ओवर टाइम वाले मजदूर आये थे। अपने परिवारों से दूर कार्यरत इन मजदूरों के लिए रविवार या छुट्टी का ज्यादा महत्व नहीं होता है। हां बिहार/झारखण्ड के मजदूर छठ उत्सव के मौके पर जरूर अवकाश लेते हैं। दोनों परियोजनाओं में मजदूर तथा नियमित स्टाफ के लोग कार्यरत थे। कुछ भविष्य बद्री तथा ढाक-तपोवन में अपने डेरों में लौटे थे तो कुछ काम पर आ गये थे।
निर्माणाधीन सुरंगों में तथा अन्यत्र 200 से 300 मजदूर काम कर रहे थे (उत्तराखण्ड के मुख्य सचिव ने यह संख्या पहले दिन 150-200 बताई, अगले दिन मुख्यमंत्री ने इसे 250-300 बताया)। मजदूर असंगठित क्षेत्र के और बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और अन्य प्रान्तों के अलावा नेपाल से थे। रविवार की सुबह काम में आने वालों का नाम तो रजिस्टर में चढ़ा पर ओवर टाइम करने वालों का नाम नहीं चढ़ा था। बैराज के गेट बंद थे जिससे पानी सुरंगों में घुस गया। उस सुबह साधारण आदमी हो सकता है ऐसी घटना की उम्मीद न करें पर बांध निर्माताओं (एनटीपीसी) को तो 115-120 दिन तक लगातार धूप और गर्मी को देखकर कुछ अनुमान तो लगाने चाहिए थे। ऐसे अनुमान केन्द्रीय जल आयोग या ग्लेशियरों पर नजर रखने वाली एजेंसियों द्वारा भी दिये जाने चाहिये थे। देश ने नदियों पर हर तरह की नजर रखने का जिम्मा इन विभागों को दिया है। आखिर ये तमाम विभाग आपदा आ जाने, सम्पदा और मानव जीवन को लील लिये जाने के बाद ही सक्रिय क्यों होते हैं ? क्या उन्हें नदियों को बेचने और लूटने का हक है ? क्या संरक्षण और सुरक्षा उनका दायित्व नहीं है ?? ये सवाल स्थानीय लोग और पूरा देश दोनों सरकारों से पूछना चाहेगा।
अब विकराल धौली आगे बढ़ती है। 15-20 किमी. आगे विष्णुप्रयाग आता है, जहां बद्रीनाथ से आने वाली विष्णुगंगा का धौली में संगम होता है। पानी जब मिट्टी, मलवा, पत्थरों और दो प्रोजेक्ट के लोहा-लक्खड़ को लेकर विष्णुप्रयाग पहुंचा तो नदी के सामान्य तल से 30 फीट या और अधिक ऊपर स्थित झूला पुल को यह बाढ़ उड़ा ले गई। यह पुल 2013 में बच गया था, क्योंकि तब धौली उतनी आक्रामक नहीं थी जितनी विष्णुगंगा, जिसने विष्णुप्रयाग परियोजना को पूरी तरह ध्वस्त करते हुए आगे भी अलकनन्दा और गंगा घाटी में कहर ढाया था। कृपया 17 जून 2013 के बाद के श्रीनगर का चेहरा याद करें। इससे पहले श्रीनगर ने 1803 के भूकम्प और 1894 तथा 1970 की बा़ढ़ में अपना बहुत कुछ खोे दिया था।
विष्णुप्रयाग से नीचे उतरकर इस बाढ़ ने अन्य परियोजनाओं को भी क्षति पहुंचाई, पर उसका विवरण अभी लेखक को उपलब्ध नहीं है। दिन का समय और साफ मौसम होने और नीचे अलकनन्दा घाटी में सूचना दी जाने के कारण लोगों ने अपने को बचा लिया पर खेतों, मकानों की कितनी क्षति हुई, इसे पता किया जाना है। बचाव और राहत कार्य शुरू हुआ पर बहुत कम लोगों को बचाया जा सका। सदा की तरह आईटीबीपी, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ तथा चमोली पुलिस ने बचाव का काम किया। पर सुरंगों मंे दबे मानव शरीरों को निकालने का कोई प्रशिक्षण उनके पास नहीं था। सुरंगों से हादसों में जीवितों को बहुत कम बार निकाला जा सका है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सिर्फ 70 मृत शरीर और विभिन्न शरीरों के 30 हिस्से बाहर निकाले जा सके हैं। कोशिश जारी है। पर अब किसी के जीवित होने की संभावना समाप्त हो गई है। जोशीमठ थाने में गुम हुये लोगों की जो रिपोर्ट लिखाई गई है, उसमें यह संख्या 205 है। अनेक माध्यमों से अनेक कम्पनियों में आये मजदूरों की सही संख्या कभी सामने आ भी सकेगी, कहा नहीं जा सकता है। 2013 की महाआपदा में नेपाल के मजदूरों की नाम की सूची कभी नहीं बनाई जा सकी। शासन की रुचि मृतक संख्या छिपाने और कम दिखाने में थी। यह सरकारों के अत्यन्त निर्मम होने का उदाहरण है।
बेमानियाँ और गैर जिम्मेदारियाँ
भविष्य में कोई शोधकर्ता या निष्ठावान सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता जब उत्तराखण्ड के तथाकथित ‘विकास कार्यो’ की गहन जाँच पड़ताल करेंगे तो पता चलेगा कि यह अधिकांशतः बेमानियों और गैर जिम्मेदारियों का इतिहास है। जून 2013 तथा फरवरी 2021 में ध्वस्त परियोजनाओं के बारे में भी यह कहा जा सकता है। इस बीच चारधाम परियोजना के नाम पर जो विनाश हुआ, वह किसी से छिपा नहीं है। आने वाले सालों में आम लोग आपदाओं का सिलसिला झेलने को अभिशप्त रहेंगे।
2003-04 में शुरू हो चुकी तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना की पर्यावरण स्वीकृति एनटीपीसी को फरवरी 2005 में मिली थी। इसका कार्यकलाप इससे पहले शुरू हो गया था। 2011 में इस परियोजना को पूरा होना था पर यह नहीं हुआ। 2011, 12 तथा 13 में इसका काफर डैम टूटा और बैराज भी अनेक बार ध्वस्त हुआ। 12 किमी. लम्बी सुरंग से यह पानी जोशीमठ के पास स्थित पावर हाउस तक आना था। 2009 में मुख्य सुरंग में 200 करोड़ दाम की बोरिंग मशीन फस गई। 2016 में फिर यही स्थिति आ गई। यह मशीन अभी भी भीतर ही फसी है। इसी दौरान 2011 में जोशीमठ में सुरंग निर्माण के दौरान पानी का बड़ा स्रोत फूटा (600 लीटर प्रति सेकेंड) जो अब तक रुक नहीं सका है। फिर सुरंग का डिजायन बदला गया, जिसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है। क्या इसकी पर्यावरण प्रभाव समीक्षा (ईआइए) की गई थी ? निश्चय ही नहीं। की भी गई होगी तो विपकोस जैसी सरकारी ऐजेन्सी द्वारा, जिसकी विश्वसनीयता संदिग्ध है।
ध्यान दंे कि 1982 में नन्दादेवी राष्ट्रीय पार्क के बनने के बाद यह क्षेत्र पार्क के बफर जोन में या उसके बहुत करीब था। देश के पर्यावरण कानून इसकी इजाजत नहीं देते थे। भारतीय वन्यजीव संस्थान ने जिन 24 परियोजनाओं को पूरी तरह रोकने का सुझाव दिया था, उनमें से कम से कम चार इस क्षेत्र में नहीं आ सकीं वर्ना 7 फरवरी की आपदा बहुगुणित हो सकती थी। धौली और ऋषिगंगा दोनों नदी घाटियों में भू तथा हिम स्खलनों द्वारा नदी के रुकने और बाढ़ों का लम्बा इतिहास रहा है, जिसे इन नदियों के पाटों में भी जगह-जगह पढ़ा जा सकता है और गजेटियरों में भी। पुराने रिकार्ड बताते हैं कि रेणी-लाटा में मई-जून तक बर्फ रहा करती थी। बद्रीनाथ-केदारनाथ के तीर्थाटन के लिये मध्य मई में खुलने के पीछे भी यही कारण था।
लेकिन इतनी बड़ी परियोजनाओं की अवैज्ञानिक स्वीकृति के बाद भी सुरक्षा प्रबन्ध, अग्रिम सूचना देने का तंत्र और नदी के विस्तृत जलागम में नजर रखने का काम तो किसी न किसी संस्था या विभाग के जिम्मे होना ही चाहिए था। यही बात अन्यत्र बन रही या बन गई परियोजनाओं के बारे में कही जा सकती है, जिन्हें 2013 की महाआपदा ने पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था। या जो अनेक परियोजनायें आगामी आपदाओं में ध्वस्त होंगी, जैसा कुछेक विशेषज्ञों ने बार बार चेताया है।
तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना बाबत अन्य तथ्य
तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना के बारे में अन्य तथ्य भी सामने आ गये है। 15 साल से कार्यरत और अनेक अवरोध झेल चुकी एनटीपीसी कम्पनी के सुरक्षा इन्तजाम बहुत सामान्य थे। और तो और इस नवरत्न कम्पनी ने आपात्कालीन साइरन तक की व्यवस्था नहीं की थी। 7 फरवरी को वह कैसे बजता ? उत्तराखण्ड राज्य प्रदूषण बोर्ड ने एनटीपीसी को परियोजना क्षेत्र में मलवा-मक निस्तारण में मानकों के उल्लंघन का दोषी पाया था। जून 2020 में प्रदूषण बोर्ड ने परियोजना स्थलों का निरीक्षण कर सुधार के निर्देश दिये थे। चार महीने बाद अक्टूबर 2020 में जब प्रदूषण बोर्ड ने स्थिति को पूर्ववत पाया तो जुर्माना किया। एनटीपीसी ने सुधार और सावधानी के स्थान पर इस निर्णय के खिलाफ राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में अपील की, जिसे खारिज कर प्राधिकरण ने जुर्माना वसूलने का आदेश दिया। आपदा के दो माह पहले 7 दिसम्बर 2020 को एनटीपीसी ने 57 लाख 46 हजार रुपये का जुर्माना प्रदूषण बोर्ड को भुगतान किया था। यह भी पूछा जाना चाहिये कि क्या इससे पहले बोर्ड ने परियोजना स्थल का निरीक्षण किया था या क्या पहले भी चेतावनी दी थी ? क्या इस तरह का निरीक्षण ऋषिगंगा परियोजना का भी किया गया था, जबकि रेणी के ग्रामीणों ने अनेक बार इस परियोजना की शिकायत की थी।
रेणी और लाटा के स्थानीय निवासी तथा कार्यकर्ता बताते रहे हैं कि ऋषिगंगा परियोजना नन्दादेवी अभयारण्य के भीतर घुसपैठ थी और सरकार द्वारा अपनी ही बनाई लक्ष्मण रेखा की अवमानना भी। ऋषिगंगा में आने वाले रौन्थी गाड़ तथा त्रिशूली नाला पहले से ही अपने अप्रत्याशित व्यवहार से ऋषिगंगा का मिजाज बदलते तथा विनाशक बनाते रहे हंै। 1968 में इसमें ताल बना और टूटा था। फिर एक और ताल (बरीताल) बना, जो 1970 में टूटा था। बाढ़ों से ही रेणी पुल के पास का वह मैदान बना जिसमें 26 मार्च 1974 से बाद के वर्षों तक चिपको आन्दोलन की सभाएं होती रहीं। यह रेणी का सार्वजनिक आंगन था। इसी को ऋषिगंगा परियोजना ने हथिया लिया था। 13.2 मेगावाट की यह परियोजना अनेक दुर्घटनाओं का शिकार हुई। इसके एक निर्माता की एक दुर्घटना में यहीं पर मृत्यु हुई। डाॅ. वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता वाली रेणी चिपको कमेटी (1975-77) की रिपोर्ट में भी ये बातें कही गईं थीं और इस क्षेत्र में किसी तरह की छेड़छाड़ न करने का सुझाव दिया गया था।
जनता द्वारा विज्ञान सम्मत विरोध
कुछ लोगांे को जरूर याद होगा कि चिपको आन्दोलन ने 1982 में विष्णुगंगा परियोजना का विज्ञान सम्मत विरोध किया था और तत्कालीन सरकार ने उसे माना था। कुछ स्थानीय समर्थन भी परियोजना को था। इस परियोजना के दुष्परिणामों को चांई गाँव के अनेक बाँध समर्थक निवासी भी गाँव की बरवादी के बाद समझे। शेष 2013 में समझ में आया। कम से कम स्थानीय समाज को। 1990 के बाद जब निजीकरण और कारपोरेटीकरण का दौर शुरू हुआ तो यह परियोजना जेपी कम्पनी के हाथ लगी। इस क्षेत्र का भूगर्भ-भूगोल तथा वैज्ञानिक तथ्य पूर्ववत अपनी जगह पर थे पर नदियों को बेचे जाने का सिलसिला शुरू हो चुका था। चण्डी प्रसाद भट्ट, के.एस. वल्दिया, नवीन जुयाल, एस.पी. सती और उनके साथी वैज्ञानिक, हरीश चन्दोला, अतुल सती सहित तमाम जानकार लोगों द्वारा लगातार इन परियोजनाओं के विरोध में कहा और लिखा गया। इसी तरह स्थानीय ग्रामीणों द्वारा जिले से लेकर देश के सर्वोच्च प्रशासनिक तथा राजनैतिक पदों पर बैठे लोगांे से अनुनय-विनय किया गया। तमाम लेख और शोध पत्र लिखे-छपे। प्रदेश और देश के न्यायालयों में प्रतिवेदन पेश किये गये। प्रत्यक्ष आन्दोलन भी किये गये। सीपीआई (माले) ने तो 2005 से ही लगातार विरोध किया था और अनेक धरने-प्रदर्शन भी आयोजित किये थे। अन्य राजनैतिक दलों के कुछ कार्यकर्ता भी विरोध प्रकट करते रहे थे, हालांकि उनके दल सदा की तरह भ्रम के दलदल में थे।
हमारी व्यवस्था इतनी सम्वेदनाहीन है कि सिर्फ आपदा के आने पर ही उसकी आँख खुलती है। हालांकि देख उसके बाद भी वह नहीं पाती है। दिल्ली और देहरादून में प्रकृति हो या मनुष्य उसका दुख महसूस करना तो अलग, उसका प्रशासनिक या सम्वैधानिक नोटिस लेना भी गवांरा नहीं होता है। पिछले कुछ सालों में तो यह शून्य ही हो गया है। उत्तराखण्ड में बारी बारी से राज कर रहे दोनों दलों पर यह बात लागू होती है। जब सरकार दिल्ली में नागरिकता कानून विरोधी आन्दोलन या वर्तमान में चल रहे असाधारण किसान आन्दोलन की अवमानना ही नहीं, इनके खिलाफ प्रपंची अफवाह फैला सकती है, निरा झूठ बोल सकती है तो उत्तराखण्ड के दूरस्थ दुर्गम इलाके के लोगों की पुकार कौन सुनेगा ? और प्रकृति पर कृपा करने की तो सरकारें सोच भी नहीं पाती हैं।
2013 की आपदा ने 1970, 1977, 1978 के बाद फिर जोर की घंटी बजाई थी, जिसे तब सबने सुना। अत्यन्त बहरों ने भी। जल्दी भुला भी दिया। पर न्यायालयों ने नहीं भुलाया। नागरिकों और संस्थाओं की अपील पर सर्वोच्च न्यायालय ने उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया। इसी तरह की दूसरी उच्चाधिकार समिति का गठन सर्वोच्च न्यायालय ने हर मौसम (आल वैदर) चारधाम राजमार्गों के बाबत किया। न्यायालय ने इन समितियों के सुझावों को माना और कार्यान्वयन हेतु सरकार से कहा भी पर पता नहीं क्यों जरूरी जोर नहीं दिया। इस ढील के कारण सरकार और उसके विभाग मनमानी करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे है। न्यायालयों का देरी से संज्ञान लेना या किसी अपील का इन्तजार करना भी शायद इसका कारण है। विनाश हो चुकने के बाद हुआ न्यायालय का हस्तक्षेप भविष्य के लिये तो सावधान करेगा पर पिछले विनाशों की भरपाई नहीं।
ऋषिगंगा/धौली के इस कहर को हिमालय की सबसे ताजा चेतावनी माना जाना चाहिए जो हिमालय के कुरूप विकास के नियन्ताओं को उसने दी है। हालांकि प्रत्यक्ष सजा सिर्फ और सिर्फ स्थानीय प्रकृति और समाज को मिली है, बिना उनके किसी अपराध के। वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ताओं और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समितियों सहित अनेक उच्च अधिकार समितियों के विश्लेषणों और सुझावों के बाद भी उनका पालन न होना भी यहां उजागर हुआ है। सरकार, नौकरशाही, सरकारी वैज्ञानिकों के साथ-साथ राजनीतिज्ञों द्वारा हिमालय के स्वभाव के नाजुक और एकाएक आक्रामक होने वाले मिजाज को न समझ पाना भी। एक वैज्ञानिक ने यह लिखा कि यदि ये दो बांँध नहीं होते तो दुर्घटना और बड़ी होती। उन्हें यह पता करने की याद नहीं रहीं रही कि ये दोनों बाँध नहीं थे बैराज थे, जो पानी को सुरंग में डालते हैं। इसी कारण इन योजनाओं को ‘रन आॅफ द रिवर’ कहा जाता है। उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि अनेक किमी. लंगी सुरंग बनाने तथा अन्य कायों में जो मक और मलवा निकलता है उसे नियमों के बावजूद नदी तट के आसपास ही जमा रखा जाता है। ऐसी अप्रत्याशित आपदा के समय नदी का आक्रामक रूप इस मक-मलवे को अपनी प्रवाह में समेट कर अत्यन्त विकराल रूप ले लेता है।
यह भी कहना उचित होगा कि रौंथी ग्लेशियर और चट्टान के टूटकर आने का बदलते मौसम और व्यापक जलवायु परिवर्तन से रिश्ता होगा और वैज्ञानिक इसको बतायें। वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी यदि एक कारण है तो अवैज्ञानिक कटान, सतत विस्फोट आदि इसके स्थानीय कारण हैं। यदि ये परियोजनायें इन नदियों में नहीं होती और अन्य परियोजनाओं द्वारा नदी में फैका गया मलवा, मिट्टी और चट्टानें इसमें योग नहीं देते तो निश्चय ही आपदा कम संहारक होती। यह याद रखना जरूरी होगा कि अलकनन्दा की 1894 की बाढ़ पूरी तरह प्राकृतिक थी। 1970 में इसको ज्यादा संहारक बनाने में कारण सड़कों का अवैज्ञानिक निर्माण तथा नाजुक इलाकों में जंगलों का विनाश था। 2013 में इसको बांधों के निर्माण ने संहारक बनाया। जलवायु परिवर्तन भी अपना काम करता रहा होगा। 2021 में सभी मायनों में स्थिति खराब होती गई।
कम से कम अब हमें हिमालय की नदियों के मिजाज और स्वयं हिमालय के मिजाज को समझने की कोशिश करनी चाहिये। जलवायु परिवर्तन के दौर में ये संकट बढ़ते जायेंगे- जल्दी और ज्यादा भी। गतिशील भूगोलों, जो हिमालय में सबसे ज्यादा हैं, में जलवायु परिवर्तन का अधिक संहारक मिजाज होना ही होना है।
हे हिमालय हमें सद्बुद्धि दे
बताया गया था कि इस आपदा से 4000 करोड़ की क्षति हुई। मृतकों की कीमत तो हर्जाना भर है। प्रकृति को जो झेलना पड़ा उसकी कोई कीमत नहीं। नेता लोग ऐसे मौकों पर रोते ही हैं। पर उन्हें न अपनी कम समझ पर ग्लानि होती है और न उनमें प्रायश्चित्त करने का साहस होता है। 1970 की बाढ़ के बाद देेश की संसद में सम्बंधित मंत्री ने कहा था कि अलकनन्दा बाढ़ कोई अलग नहीं है। देश में तो हर साल बाढ़ आती रहती है। अतः हम कोई विशेष मदद नहीं दे पा रहे हैं। तब राहत का काम चमोली के सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों ने मिलकर किया था।
जिसे चंडी प्रसाद भट्ट ‘डिजास्टर टूरिज्म’ कह रहे हैं, वह 2013 की महाआपदा के समय शुरू हो गया था। 2013 में जिम्मेदार लोग कैसे हेलीकाप्टर में केदारनाथ यात्रा कर रहे थे, यह बहुतों को याद होगा। यह गैर जिम्मेदारी भरी सैर थी। ये लोग दिनरात काम में लगे जिला और पुलिस प्रशासन को काम नहीं करने दे रहे थे। दूसरी तरफ लगभग दो दर्जन सैनिक, वायु सैनिक, अन्य जवान और एक एसडीएम ने अपनी जिन्दगी को कुरबान किया था। इस महाआपदा पर सरकार एक श्वेत पत्र तक नहीं ला सकी। महाआपदा ने सरकार की विकास दृष्टि नहीं बदली सिर्फ मुख्यमंत्री बदला। इस बार मुख्यमंत्री बदलेगा भी तो इस आपदा के कारण नहीं, अपनी सरकार की तमाम नाकामियों के कारण बदलेगा।
इस बार की आपदा से भी कोई सीखने नहीं जा रहा है। हेलीकाप्टर में प्रभावित क्षेत्र में जाने वाले मुख्य मंत्री के मन में ‘विरोधाभासी विकास’ सम्बंधी जो विचार आने चाहिये थे, नहीं आये। इतने नाजुक प्रदेश के मुख्यमंत्री के मन में बदलते मौसम, जलवायु परिवर्तन, परियोजनाओं की बिना व्यापक पड़ताल के शुरूआत, बढ़ती लागत, बिजली या मोटर मार्ग की जरूरतों का विश्लेषण, पुरानी तकनीक के खोट, वैकल्पिक रास्ते, देश और प्रदेश के पर्यावरण कानूनों का ठीक से कार्यान्वयन न होना, देश और प्रदेश के न्यायालयों के निर्णयों और आदेशों की अवमानना आदि जैसे विषय नहीं आये। उनका सार्वजनिक वक्तब्य बहुत मामूली था कि ‘कहीं विकास विरोधी इस आपदा का लाभ न उठायें। हम विकास विरोधियों को बोलने का मौका नहीं देना चाहते हैं।’ यह सोच की क्षुद्रता थी, जो प्रदेश और देश में सर्वत्र और सभी नीतियों में लगातार दिखाई दे रही है।
ग्रामीणों, पीड़ितों, जन प्रतिनिधियों, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ताओं, वैज्ञानिकों आदि से सम्वाद करने के बदले वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की शैली में सिर्फ अपनी बात करते रहे। वे अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों की तरह मामूली तात्कालिक लचीलापन भी नहीं प्रकट कर सके। उन्हें समझना चाहिये कि हमंे बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, चिकित्सा, सामाजिक सुरक्षा, न्याय, आर्थिक विकास, नौकरियाँ सब चाहिये। इस हेतु देश में संविधान है, नियम कानून हैं और उनका पालन करके भी यह सब हो सकता है। जितना हम इन योजनाओं से पा रहे हैं यदि उससे ज्यादा खो देंगे तो उसकी भरपाई कौन करेगा। उत्तराखण्ड का वर्तमान नेतृत्व कहीं भी स्वतंत्र नहीं है। केन्द्र सरकार और उसे चलाने वाली कारपोरेट शक्तियों के सामने इस प्रदेश के अदने मुख्यमंत्री की क्या हैसियत ? कभी न कभी आम जनता को और कुछ दिगभ्रमित युवाओं को यह समझ में आयेगा। पर तब तक बहुत देर तो नहीं हो जायेगी ?
नन्दादेवीः ऊँचा होने की सजा
इस आपदा ने नन्दोदेवी शिखर के पास 1965 में खो गये उस परमाणु ऊर्जा से संचालित यंत्र को चर्चा में ला दिया है, जो आज भी ग्ल्ेशियर के भीतर कहीं सोया पड़ा है। हालांकि अभी विस्तार में जाने की गंुजायश नहीं है फिर भी नन्दादेवी के संदर्भ में उस परमाणु संचालित यंत्र के नन्दादेवी शिखर के पास खो जाने का जिक्र किया जाना चाहिये। एक प्रकार से नन्दादेवी को अपने ऊँचे होने की सजा मिली। क्योंकि उसके शिखर पर इस संयत्र को रखकर वहाँ से तिब्बत तथा ंिझंजियांग (चीनी तुर्किस्तान) में नजर रखी जा सकती थी।
यह दुनियाँ के स्तर पर शीतयुद्ध का दौर था। भारत में यह 1962 के युद्ध में चीन से हार के बाद का दौर था। चीन एक शक्ति के रूप में उभर रहा था। पश्चिमी देशों में साम्यवादी देशों के प्रति एक अविश्वास और भय का माहौल था। रूस और विशेष रूप से चीन की बढ़ती सैन्य क्षमता पर नजर रखना जरूरी समझा जा रहा था। साम्यवादी देश भी अपने को बनाये रखने के तमाम काम कर रहे थे।
1964 में चीन ने पश्चिमी तिब्बत से लगे ंिझंजियांग प्रान्त में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया। इसकी सूचना मिलते ही अमेरिकी खूफिया ऐजेन्सी सी.आई.ए. ने चीन के परमाणु कार्यक्रम पर नजर रखने की योजना बनाई। तब सैटेलाइटों का इस्तेमाल नहीं शुरू हुआ था। सी.आई.ए. ने सोचा कि भारत के ऊँचे शिखरों से यह काम किया जा सकता है। परमार्णु इंधन से चलने वाला एक सुदूर सम्वेदन यंत्र (रिमोट सैन्सिंग डिवाइस) को उच्च शिखर में स्थापित कर तिब्बत तथा ंिझंजियांग क्षेत्र के कतिपय हिस्सों की हलचल पर नजर रखी जा सकती है। इस तरह 1965 में सी.आई.ए. तथा भारतीय खूफिया ब्यूरो ने मिलकर अमेरिकी तथा भारतीय पर्वतारोहियों की मदद से नन्दादेवी शिखर पर इस यंत्र को स्थापित करने का निर्णय लिया।
पर्वतारोहियों से शुरू में सच्चाई छिपाई गई। भारतीय पर्वतारोहियों को प्रशिक्षण हेतु अमेरिका बुलाया गया और दोनों देशों के पर्वतारोही मिले। यह गुप्त मिशन एक भिन्न किस्म की जासूसी थी, जिसमें स्थापित किये जाने वाले यंत्र को निरन्तर चलाये रखने के लिये परमाणु ईंधन (प्लूटोनियम) का प्रयोग किया जाने वाला था। इस यंत्र को भारत के दूसरे सबसे ऊँचे शिखर पर स्थापित करना था। लगभग 10 फीट ऐन्टेना वाले 56 किलो भार के इस यंत्र में 2 आवाज रिकार्ड करने वाले सैट और परमाणु ऊर्जा से चलने वाला जनरेटर लगा था। इस हेतु 7 प्लूटोनियम कैपशूल लगे थे।
अभियान को भारत और अमेरिका की हवाई सेना का अभ्यास बताया गया था। अभियान दल में भारत के 4 और अमेरिका के 14 पर्वतारोही थे। कुल 150 नेपाली पोर्टर इस दल हेतु नियुक्त किये गये थे। कुछ पोर्टर स्थानीय भी थे। अभियान का असली मकसद किसी को नहीं बताया गया था। सबसे शर्मनाक पक्ष यह था कि भारत तथा अमेरिका के पर्वतारोही दुर्भाग्य से गैर पर्वतारोही लक्ष्य के लिये नन्दादेवी में आरोहण कर रहे थे।
18 अक्टूबर 1965 को जब यंत्र सहित यह दल कैम्प चार (24000 फीट) पर पहुंचा तो असह्य ठण्ड के साथ भयंकर तूफान आया। टीम लीडर एम.एस. कोहली के सामने संकट खड़ा हो गया कि आदमियों को बचायंे कि यंत्र को। उन्होंने टीम के सदस्यों को बचाने का निर्णय लिया क्योंकि तभी यंत्र को सुरक्षित स्थापित किया जा सकता था। यंत्र को 24000 फीट पर बर्फ और जमीन में गाड़कर वे वापस आ गये। 56 किलो के इस बड़े बोझ को ढोते समय पोर्टरों को अपनी पीठ में बहुत गरमाहट लगी थी पर वास्तविकता का भान उन्हें नहीं हुआ। यह भी बताया गया कि उनमें से कुछ की कैन्सर से मृत्यु हुई।
मई 1966 में जब पुनः अभियान दल उस जगह पहुचा तो उन्होंने यंत्र को अपनी जगह नहीं पाया। शायद शिखर का वह हिस्सा किसी हिम स्खलन में टूट कर नीचे विशाल ग्लेशियर में चला गया था। या परमाणु विकीरण के कारण वह घस गया था। अत्यन्त घातक प्लूटोनियम कैपशूल भी यंत्र में थे। यह प्लूटोनियम हिरोशिमा में डाले गये बम की आधी क्षमता जितना था। इस संयत्र का क्या हुआ यह कभी पता नहीं चला। अमेरिकी टीम को भारतीय पर्वतारोहियों पर भी शक हुआ। तब तक भारत ने परमाणु विस्फोट नहीं किया था। इसकी खोज जारी रही और लगभग एक दर्जन पर्वतारोहण अभियान खो गये संयंत्र की खोज में गये। पता कुछ नहीं चला।
भारतीय खूफिया ब्यूरो को उस समय बी.एन. मलिक और आर.एन. काव देख रहे थे। उन्होंने तत्काल कोहली तथा टीम को बुलाया। उन्हें 1965 के सफल एवरेस्ट अभियान का नेतृत्व करने के लिये अर्जुन पुरस्कार दिया जाना था। सभी पर्वतारोही शीेघ्र खोज में गये। कुछ पता नहीं चला। कोहली की आठवीं आईटीबीपी बटालियन के जवान अनेक सालों तक धौली घाटी में तपोवन के पास नदी के पानी की मानीटरिंग करते रहे कि उसमें कोई परमाणु विकीरण के संकेत तो नहीे हंै।
1967 में इस अभियान का अगला शिकार नन्दाकोट शिखर बना। वहाँ एक नया पर ऐसा ही यंत्र स्थापित हो गया और कुछ समय उसने काम किया पर फिर वह बन्द हो गया। जब उसको देखने एक टीम गई तो पाया गया कि यंत्र ने गहरा गड्डा बना दिया था और स्वयं इसमें घस गया था। इसे वापस लाया गया। पर नन्दादेवी शिखर के पास से गायब संयंत्र ने खतरे की घंटी तो बजा ही दी। फिर शीतयुद्ध समाप्त हुआ। अमेरिका और चीन की दोस्ती शुरू हुई और इस कार्य का औचित्य नहीं रहा। पर पर्वतारोहण की आड़ में एक खतरनाक काम किया तो गया ही था। पाठक इस बाबत कैनेथ कानबाय और एमएस कोहली की किताब ‘स्पाइज इन द हिमालयाज’ पढ़ सकते हैं।
फिर नन्दादेवी को पर्वतारोहण हेतु बन्द किया गया। 1982 में इसे नेशनल पार्क बनाया गया, जिसे 1988 में यूनेस्को ने अपनी प्राकृतिक धरोहरों में शुमार किया। 1977 में जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे तो इस खो गये संयंत्र पर संसद में सवाल उठा। देसाई ने तुरन्त जाँच के आदेश दिये। पर कुछ भी आधिकारिक रूप से नहीं बताया गया। 2004 से 2007 तक के ऋषिगंगा/धौली के पानी के नमूने दो अमेरिकी प्रयोगशालाओं में भेजे गये। बताया जाता है कि एक की रपट में पानी सामान्य मिला और दूसरे ने उसमें प्लूटोनियम का अंश पाया गया। पर कोई सरकारी वक्तव्य नहीं आया। वास्तविकता अभी सामने नहीं आ सकी।
प्लूटोनियम की रेडियों सक्रियता सैकड़ों साल तक रहती है।
अतः नन्दादेवी के ग्लेशियर में दबे इस यंत्र की खोज तो होनी चाहिये। क्योंकि यदि यह कभी सक्रिय होता है तो पूरी गंगा नदी घाटी यानी नन्दादेवी के ग्लेशियर से गंगा सागर तक के पानी और उस पर निर्भर जीवन को खतरा हो सकता है। क्या पता कभी ज्यादा बर्फ पिधलने या कोई भूभौमिक हलचल में वह प्रकट और सक्रिय हो जाय। वह यंत्र कोई दफन पर्वतारोही नहीं अपार घातक क्षमता से लैस खतरे का पिटारा है। ऋषिगंगा इसी जलागम से बाहर निकलती है। सरकार को पूरी स्थिति सामने रखनी चाहिये। फिलहाल वर्तमान आपदा को किसी आणविक प्रक्रिया से नहीं जोड़ा गया है।
डा. शेखर पाठक उत्तराखंड से एक भारतीय इतिहासकार, लेखक और विद्वान है। वह 1983 में स्थापित हिमालय क्षेत्र अनुसंधान के लिए पीपुल्स एसोसिएशन (पहाड़) के एक संस्थापक, कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल में इतिहास के पूर्व प्रोफेसर और नई दिल्ली में तीन मूर्ति पर समकालीन अध्ययन के लिए केंद्र में एक नेहरू फैलो हैं।[1]
उन्हें भारत की सरकार द्वारा 2007 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया।
पता : ‘परिक्रमा’, तल्ला डांडा, तल्लीताल, नैनीताल-263002