चमोली में एवलांच से तबाही : चिपको आंदोलन की जन्मस्थली से प्रकृति का उग्र संदेश

डायनामाइट विस्फोटों से पहाड़ों पर जमीं बर्फ और हिमखण्ड लुढक रहे हैं

चमोली में एवलांच हिमस्खलन से तबाही “मानवीय छेड़छाड़ का प्रचण्ड प्रतिकार” है. मतलब है कि उत्तराखंड में विकास और निर्माण की योजना बनाने वालों ने केदारनाथ हादसा और अन्य तमाम दुर्घटनाओं से सबक़ नहीं सीखा है. अनुभवी पत्रकार जय सिंह रावत ने इस खोजपूर्ण लेख में बताया है कि अब प्रकृति ने चिपको आंदोलन की जन्मस्थली रेणी गांव से एक बार फिर उग्र संदेश देकर विनाश से अपने आपको बचाने की चेतावनी दी है.

भारत तिब्बत सीमा से लगी नीती घाटी के रेणी गांव के निकट एवलांच गिरने से आई चमोली में तबाही और धौली गंगा की विनाशकारी बाढ़ ने एक बार फिर विश्वविख्यात चिपको आन्दोलन की याद ताजा कर दी है। सन् 1970 की अलकनन्दा की बाढ़ के बाद इसी रेणी गांव में गौरादेवी ने चण्डी प्रसाद भट्ट और गोविन्द सिंह रावत आदि के सरंक्षण में चिपको आन्दोलन की शुरुआत की थी। 

मानवीय छेड़छाड़ का प्रचण्ड प्रतिकार

चिपको आन्दोलन की जन्मस्थली में प्रकृति ने रविवार की सुबह एवलांच टूटने के बाद ऋषिगंगा और फिर धौली गंगा में आई विनाशकारी बाढ़ और तबाही ने एक बार फिर हिमालय से अत्यधिक छेड़छाड़ और मानवीय लापरवाहियों के प्रति अत्यधिक प्रचण्ड तरीके से आगाह कर दिया है।

जाहिर है कि कुछ देर के लिये नदी का पानी रुका होगा और जब रुका हुआ पानी अवरोधक तोड़ कर अत्यंत वेग से नीचे निकल गया तो पानी के साथ बह रही कच्ची बर्फ ने पहले ऋषिगंगा और फिर धौली गंगा में बाढ़ पैदा कर दी। जिससे ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट और फिर धौली पर बन रहे तपोवन विष्णुगाड पावर प्रोजैक्ट को लीलने के साथ ही उन परियोजनाओं पर बड़ी संख्या में काम कर रहे मजदूरों को उनकी कालोनियों  समेत निगल लिया। यही हालत केदारनाथ आपदा के समय भी चोराबारी ताल के टूटने से पैदा हुयी थी।

हिमालय पर महासागर के बराबर पानी

उत्तराखण्ड में 2010 में भी हालात काफी बदतर हो गये थे और दो साल बाद तो केदारनाथ के ऊपर ही बाढ़ आ गयी। हिमाचल प्रदेश में अगस्त 2000 में जब सतलुज में बाढ़ आयी तो नदी का जलस्तर सामान्य से 60 फुट तक उठ गया था। इसी तरह 26 जून 2005 की बाढ़ में सतलुज का जलस्तर सामान्य से 15 मीटर तक उठ गया था। इसके एक महीने के अन्दर फिर सतलुज में त्वरित बाढ़ आ गयी। हिमालय पर बर्फ के रूप में एक महासागर के बराबर पानी बर्फ के रूप में जमा है। अगर बर्फ का यह महासागर विचलित हो गया तो उस प्रलय की कल्पना भी भयावह है।

हिमालयी नदियों का मिजाज नहीं समझे  

अलकनन्दा के लगभग 1016 वर्ग कि.मी. में फैले कैचमेंण्ट में पांच प्रमुख नदियां तीव्र  गति से चल कर 5 प्रयागों में अलकनन्दा से मिलती है। इनसे भी ज्यादा खतरनाक वे छोटे बरसाती नाले होते हैं जो कि लगभग 60 डिग्री से भी अधिक की ढाल में बह कर गहरी घाटियों में दोनों और टकरा कर भारी बोल्डरों और पेड़ों को उखाड़ कर साथ ले चलती हैं। इनसे सबसे अधिक खतरा झीलें बनने का होता है जा कि काफी समय बाद टूट कर अलकनन्दा घाटी से लेकर हरिद्वार तक तबाही मचा देती हैं।

हिमालयी नदियां तो जितनी वेगवान होती हैं उतनी ही उच्छ्रांखल  भी होती है। इसलिये अगर उनका मिजाज बिगड़ गया तो फिर रविवार को धौली गंगा में आयी बाढ़ की तरह ही परिणाम सामने आते हैं। वास्तव में जिस नदी का जितना तीव्र  ढाल होगा उतना ही वेग उसकी जलधारा का होगा। हरिद्वार से नीचे बहने वाली गंगा झाल बहुत कम होने के कारण वेगहीन हो जाती है।

गंगा की ही दो श्रोत धाराओं में से एक भागीरथी का औसत ढाल 42 मीटर प्रति किमी है। मतलब यह कि यह हर एक किमी पर 42 मीटर झुक जाती है। अलकनन्दा का ढाल इससे अधिक 48 मीटर प्रति किमी है। जबकि इसी धौलीगंगा का ढाल 75 मीटर प्रति किमी आंका गया है। नन्दप्रयाग में मिलने वाली मन्दाकिनी का 67 मीटर  और रुद्रप्रयाग में इससे मिलने वाली मन्दाकिनी का ढाल 66 मीटर प्रति कि.मी. आंका गया है। 

कृपया सुनें https://anchor.fm/ram-dutt-tripathi/episodes/–eq6t6q #Chamoli

अब आप कल्पना कर सकते हैं कि जब कोई नदी या नाला इतने ढाल में बहेगा तो उसका वेग और उस वेग में कितनी शक्ति होगी। अलकनन्दा घाटी में इसी तरह कई बार अत्यन्त वेग से बहने वाली नदियों में पानी की असन्तुलित और अनियंत्रित मात्रा इस तरह की घटनाओं का कारण बन चुकी है। फिर भी हमारी सरकारें सावधानी बरतने को तैयार नहीं हैं। 

हिमखंड क्यों टूटकर गिरते हैं

पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट भी धौलीगंगा पर बन रहे 520 मेगावाट क्षमता की जलविद्युत परियोजना के बारे में कई बार शासन प्रशासन को आगाह कर चुके थे।

अलकनन्दा के कैचमेंट में यह नयी घटना नहीं

सन् 1857 में भारी भूस्खलन और बोल्डरों के कारण मन्दाकिनी का प्रवाह तीन दिन के लिये रूक गया था। जब वह झील टूटी तो अलकनन्दा घाटी में भारी तबाही मच गयी। 

इसी प्रकार सन् 1868 में चमोली गढ़वाल के सीमान्त क्षेत्र में झिन्झी गांव के निकट भूस्खलन से बिरही नदी में एक अन्य झील बन गयी, जिसे गोडियार ताल कहा गया। सन् 1886 में प्रकाशित ई.टी.एटकिंसन के हिमालयन गजेटियर के अनुसार गोडियार ताल में भूस्खलन से उसका एक हिस्सा टूट गया जिससे झील का काफी पानी निकलने से अलकनन्दा घाटी में भारी तबाही हुयी और 73 लोगों की जानें चलीं गयीं।

 सन् 1893 में  गौणा गांव के निकट एक बड़े शिलाखण्ड के टूट कर बिरही में गिर जाने से नदी में फिर झील बन गयी जिसे गौणा ताल कहा गया जो कि 4 कि.मी.लम्बा और  700 मीटर चौड़ा था। यह झील 26 अगस्त 1894 को टूटी तो अलकनन्दा में ऐसी बाढ़ आयी कि जिससे कई गांवों के साथ ही गढ़वाल की प्राचीन राजधानी श्रीनगर का आधा हिस्सा साफ हो गया। 

बद्रीनाथ के निकट 1930 में अलकनन्दा फिर अवरुद्ध हुयी थी, इसके खुलने पर  नदी का जल स्तर 9 मीटर तक ऊंचा उठ गया था।

 सन् 1957 में धौलीगंगा की सहायक द्रोनागिरी गधेरे में भापकुण्ड के निकट एवलांच आने से 3 कि.मी. लम्बी झील बन गयी थी।

 1967-68 में रेणी गांव के निकट भूस्खलन से जो झील बनी थी उसके 20 जुलाई  1970 में टूटने से अलकनन्दा की बाढ़ आ गयी जिसने हरिद्वार तक भारी तबाही  मचाई। उस बाढ़ से गंगनहर में इतनी गाद भरी कि उसे साफ करने में ही करोड़ों रुपये खर्च करने पड़े।

चिपको आंदोलन का प्रारम्भ 

माना तो यह भी जाता है कि 1970 की अलकनन्दा की बाढ़ के कारण ही विश्वविख्यात चिपको आन्दोलन  खड़ा हुआ था। इस बाढ़ की जननी रेणी ही चिपको की जननी भी मानी जाती है, जहां चण्डी प्रसाद भट्ट एवं अन्य सर्वोदयी नेताओं की प्रेरणा से गौरा देवी ने अपनी साथी संग्रामी देवी आदि को साथ मिलकर पेड़ों पर चिपक कर पेड़ बचाये थे।

हिमालय के वनावरण हरण का नतीजा

अगर आप भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की 1995 और 2017 की वन स्थिति सर्वे रिपोर्टों पर गौर करें तो आप अंदाज लगा सकते हैं कि हम हिमालयवासी अपने आश्रयदाता हिमालय के तंत्र को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के अलावा उत्तर पूर्व के शेष हिमालयी राज्यों में देश का लगभग 25 प्रतिशत वन क्षेत्र निहित है। 

लेकिन पिछले दो दशकों में उत्तर पूर्व के इन हिमालयी राज्यों में से किसी एक में शायद ही कोई साल ऐसा गुजरा हो जब वह वनावरण न घटा हो। उत्तराखण्ड हिमालय में भले ही वृक्ष आवरण बढ़ा हो मगर वनों के घनत्व में तेजी से वृद्धि हुयी है।

डायनामाइट विस्फोटों से हिमाच्छादित पहाड़ कांप रहे 

जलविद्युत परियोजनाओं और सड़क चौड़ीकरण ने पहाड़ों की चूलें हिला दीं। डायनामाइट विस्फोटों से हिमाच्छादित पहाड़ कांप रहे हैं जिस कारण पहाड़ों पर जमीं बर्फ और हिमखण्ड लुढक रहे हैं। इसी का परिणाम है चमोली में एवलांच से तबाही.

केदारनाथ में हैलीकाप्टरों की गड़गड़ाहट वन्यजीवों के साथ ही हिमाच्छादित पहाड़ों को भी विचलित कर रही है। उच्च हिमालयी क्षेत्र स्थित रेणी गांव के लोग पहले से ही ऋषिगंगा पावर प्रोजैक्ट निर्माण में हो रहे विस्फोटों से परेशान और भयभीत थे। जब राज्य सरकार ने उनकी नहीं सुनी तो वे इन विस्फोटों को रोकने और उसके मलबे को हटाने की फरियाद लेकर 2019 में हाईकोर्ट भी गये मगर राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के आदेशों को भी अनसुना कर दिया। जिसका परिणाम चमोली में एवलांच से तबाही आज सबके सामने है।

-जयसिंह रावत, वरिष्ठ पत्रकार, देहरादून

कृपया इसे भी देखें :

https://mediaswaraj.com/shankarachary-swaroopanand-offers-help-to-chamoli-victims/

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