क्या कहते हैं देश में हुए उपचुनाव के नतीजे…
बीजेपी की नाराजगी का फायदा कांग्रेस को ही मिलेगा।
देश में 3 लोकसभा उपचुनाव और 29 विधानसभा उपचुनाव परिणाम आ चुके हैं। राजनीतिक पार्टियों और राजनीतिक विश्लेषक अपने अपने ढंग से इस चुनाव का विश्लेषण कर रहे हैं। समग्र रूप से देखने पर यह परिणाम क्या दर्शाते हैं? कहा जा रहा था कि महंगाई इस चुनाव में मुद्दा बनेगा। क्या कैसा हुआ? सिलसिलेवार ढंग से minutely analyse करते हैं…
-मनीष सिन्हा
अगर हम हिमाचल प्रदेश की बात करें तो वहां पर भारतीय जनता पार्टी को जबरदस्त नाकामी का मुंह देखना पड़ा। वहां संपन्न हुए 1 लोकसभा और 3 विधानसभा उपचुनाव नतीजे कांग्रेस के पक्ष में गए हैं। परिणाम के बाद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का बयान आया कि महंगाई के कारण हमारी हार हुई। लेकिन अगर महंगाई प्रमुख मुद्दा होता तो सारे देश में भारतीय जनता पार्टी को हारना चाहिए था।
सच्चाई है कि वहां पर तमाम कारणों के अलावे प्रमुख कारण सेब मंडियों के किसान की नाराजगी का खामियाजा भुगतना पड़ा। उच्च कोटि के सेब जिसे “सुपर प्रीमियम” कहते हैं, वह अब तक ₹88 प्रति किलो में जो बिकता था, इस बार उसे घटाकर ₹72 प्रति किलो कर दिया गया।
75 से 80% सेब वहां पर अडानी की कंपनी खरीदती है, इसलिए किसानों के पास कोई विकल्प नहीं था और जो साधारण सेब वहां की मंडियों में 12 से ₹16 में बिकता है, वह दिल्ली में जाकर 100 से ₹150 में बिकता है!
यह स्वाभाविक है कि बीजेपी की नाराजगी का फायदा कांग्रेस को ही मिलेगा। चर्चा यह है कि इस परिणाम का असर अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में न होने देने के लिए मुख्यमंत्री को बदला जा सकता है जैसा गुजरात और उत्तराखंड में संभावित खराब प्रदर्शन को भांपकर किया गया है।
पश्चिम बंगाल में 4 विधानसभा उपचुनाव होने थे और चारों विधानसभा क्षेत्र में तृणमूल कांग्रेस ने आसानी से भारतीय जनता पार्टी को करारी शिकस्त दी। भारतीय जनता पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव में जिस क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन किया था वहां पर भी सत्तारूढ़ दल ने लाखों की अंतर से सीट जीती। यह हार भारतीय जनता पार्टी के मनोबल को पश्चिम बंगाल में कम करेगी।
रोचक बात यह है कि बड़े ही कूटनीतिक तरीके से ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में महंगाई का ठीकरा पूरी तरह केंद्र सरकार पर फोड़ा। पश्चिम बंगाल में इस चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी के लिए एक राहत भरी खबर यह है कि उनका वोट प्रतिशत जो 4% से कुछ अधिक था, वह बढ़कर 8% से कुछ अधिक हो गया। इसका मतलब यह हुआ कि वामपंथी पार्टियों के जो वोटर भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में चले गए थे, उनकी “घर वापसी” हुई है!
कर्नाटक में 2 विधानसभा क्षेत्र के चुनाव हुए और एक चुनाव वर्तमान मुख्यमंत्री के गृह जिले में होने थे और वहां पर भारतीय जनता पार्टी के हार ने पार्टी को चिंता में डाल दिया। वैसे ही वहां पर पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा “दिल्ली” से बहुत खुश नहीं है!
हरियाणा में भी 1 विधानसभा क्षेत्र में चुनाव हुए थे और यहां से आईएनएलडी के प्रमुख नेता अभय चौटाला ने कृषि कानून के विरोध में इस्तीफा दे दिया था और पुनः इस सीट को जीत ली। रोचक बात यह है कि इस प्रदेश में किसानों के विरोध को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक पराभव की बात कही जा रही है लेकिन चुनाव में 25,000 से अधिक वोट लाकर बीजेपी ने साबित कर दिया है कि राज्य की सत्तारूढ़ दल अभी भी “प्रमुख खिलाड़ी” बनी रहेगी।
असम में 5 विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव हुए थे और उनमें से तीन पर बीजेपी और दो पर उनकी सहयोगी पार्टी ने कब्जा कर लिया। दो क्षेत्र पर कांग्रेस के वर्तमान विधायक इस्तीफा देकर बीजेपी में शामिल हो गए तथा उन्होंने ही बीजेपी उम्मीदवार की हैसियत से उन क्षेत्रों में पार्टी को जीत दिलाई, जो कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है।
मुख्यमंत्री हेमंत विश्व सरमा लगातार अपने संप्रदायिक नीतियों के द्वारा वोटों का ध्रुवीकरण करने में सफल होते रहे हैं। इसके अलावा कांग्रेस अपने पिछले विधानसभा चुनाव में हार के बाद अपने मनोबल को उठाने में पूरी तरह नाकाम रही है। अखिल गोगोई की स्वीकार्यता पूरे राज्य में नहीं हो पाई है। अन्य प्रमुख पार्टी नेताओं को कांग्रेस आगे उसी तरह नहीं कर रही है जिस तरह तरुण गोगोई के कारण उसने “कांग्रेसी” हेमंत विश्व सरमा को नहीं किया।
अन्य उत्तर-पूर्व राज्यों में भी जो उपचुनाव हुए हैं वहां पर भी बीजेपी या उनके सहयोगी पार्टी की जीत हुई है। पश्चिम बंगाल में वह भले कमजोर दिख रहे हो लेकिन उत्तर-पूर्व राज्यों में उनकी पकड़ अभी भी मजबूत है। आंध्र प्रदेश के 1 विधानसभा सीट पर सत्तारूढ़ वाईएसआर कांग्रेस की जीत ने साबित कर दिया है कि अभी चंद्रबाबू नायडू को काफी संघर्ष करना है।
तेलंगाना के 1 सीट को भारतीय जनता पार्टी ने जीतकर इस दक्षिण राज्य में अपने पैर मजबूत होने का दावा कर रही है। लेकिन अगर हम गंभीरता पूर्वक विश्लेषण करें तो हम पाएंगे की इस क्षेत्र में जीतने वाला उम्मीदवार हाल तक राज्य में सत्तारूढ़ टीआरएस का मंत्री रह चुका है और उस पर कुछ भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे थे।
भारतीय जनता पार्टी ने उनके “दाग” को धुलकर टिकट दिया और अपने व्यक्तिगत प्रभाव का इस्तेमाल करके उसने जीत हासिल की।
जहां तक मध्य प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी की जीत की बात है तो इसमें कोई दो राय नहीं कि शिवराज सिंह चौहान विपक्ष तथा अपनी पार्टी के विरोधियों को चुप कराने में सफल रहे हैं। हालांकि वहां पर जिस एक लोकसभा क्षेत्र में उपचुनाव हुए वहां पर पिछले चुनाव में भारतीय जनता पार्टी पौने तीन लाख के अंतर से जीती थी अब वह घटकर 80 हजार के आसपास रह गया है।
ठीक उसी प्रकार 3 विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस जिस एक सीट को जीती है, वह भारतीय जनता पार्टी का 31 साल से परंपरागत सीट रहा है।
हालांकि बीजेपी ने भी जो विधानसभा चुनाव जीता है वह क्षेत्र कांग्रेस का गढ़ रहा है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि मध्य प्रदेश में अगर विपक्ष अपनी गुटबाजी पर लगाम लगा सके, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे पुराने घोड़े पर दांव लगाना छोड़ दें तो दूरदर्शी नीति के तहत यह पार्टी के हित में होगा।
बात अगर बिहार की करें तो दोनों विधानसभा क्षेत्र को नीतीश कुमार की पार्टी ने एनडीए के तौर पर जीत ली है। बिहार की जीत से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मजबूत हुए हैं और राष्ट्रीय जनता दल जो कम से कम 1 सीट जीडीयू से छीन कर(दोनों सीट पर सत्तारूढ़ दल के विधायक के मौत के बाद चुनाव हो रहे थे) अपने मनोबल को बढ़ा सकती थी, नाकाम रही है।
बिहार में एक चीज जो देखने को मिल रही है कि अभी भी गैर यादव संपूर्ण ओबीसी का अधिकांश वोट और गैर पासवान दलित (महादलित) वोट नीतीश कुमार के साथ है!
लालू यादव जिन्हें हम बिहार में सामाजिक न्याय (ब्राह्मणवाद के खिलाफ) को आगे बढ़ाने में 10 में से 10 नंबर दे सकते हैं, लेकिन 15 साल का उनका ऐसा शासन जो कानून और व्यवस्था के तौर पर कुख्यात था, जिसे हाईकोर्ट ने भी “जंगल राज्य” का दर्जा दिया था, अपहरण और वसूली एक उद्योग के रूप में उभरा था और लालू यादव अपने शासन के अंत में एक जाति विशेष के नेता बन कर रह गए थे। उनकी यह इमेज इसके बावजूद अब तक नहीं सुधर पाई है कि वह और उनके पुत्र तेजस्वी यादव बार-बार ऐसी शासन पुनः न देने की बात बार-बार करते रहे हैं।
दूसरी तरफ नीतीश कुमार के दौर में कानून व्यवस्था कोई आदर्श तो नहीं है लेकिन जिस तरह से शेष भारत में सामान्य तौर पर रहती है उसे कायम करने में सफल रहे हैं। सड़कें जो लालू जी के समय गड्ढे रूपी रूप में थे इन चीजों में नीतीश कुमार ने शुरुआत में जो सुधार किया उसी को लगातार कैश कराते रहे हैं वरना भ्रष्टाचार के मामले में वह लालू यादव के शासन से बीस पड़ेंगे। नीतीश कुमार के पक्ष में एक और बात जो जाती है वह वह महिलाओं को पंचायत में 50% तथा राज्य स्तरीय नौकरियों में 35% आरक्षण देना।
बात अगर राजस्थान की 2 विधानसभा सीट की करें तो यह बात सही है कि कांग्रेस के खुश होने के केवल यह कारण नहीं है कि उनकी जीत हुई बल्कि एक और कारण यह है कि प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी दूसरे स्थान पर भी नहीं आई। इसके बावजूद कांग्रेस को इस खुशफहमी से जल्द ही बाहर आना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी उस क्षेत्र में भी नहीं जीत सकी जो संघ परिवार का गढ़ रहा है।
दरअसल, राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी का मतलब आज के दिन वसुंधरा राजे सिंधिया है। वसुंधरा राजे को नेपथ्य में करके बीजेपी वहां चुनाव नहीं जीत सकती और वही करने की कोशिश इस बार पार्टी ने किया। कांग्रेस को इस जीत का फायदा उठाकर अपनी गुटबाजी को समाप्त कर शासन व्यवस्था को दुरुस्त करने देने पर होना चाहिए वरना वहां एक नारा चल रहा है कि “मोदी तुझसे बैर नहीं वसुंधरा तेरी खैर नहीं”!
महाराष्ट्र में एकमात्र सीट पर हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत महाअघारी को संजीवनी दिया है। वरना जिस “अप्राकृतिक गठबंधन” के तहत वह सरकार चल रही है उस पर हमेशा खतरे की घंटी कई कारकों के द्वारा लगी रहती है! भारतीय जनता पार्टी का प्रयास लोकसभा चुनाव के पहले इन तीनों गठबंधन को साथ नहीं रहने देना है वरना लोकसभा चुनाव में बीजेपी की सीट की संख्या कम होने की प्रबल संभावना है।
दादर और नगर हवेली में भी एक लोकसभा चुनाव हुआ था जिसे शिवसेना ने जीती है। वहां पर तत्कालीन सांसद को केंद्र सरकार के द्वारा तथाकथित प्रताड़ित करने के एवज में आत्महत्या करने के कारण यह सीट खाली हुई थी और सहानुभूति वोट के रथ पर सवार होकर उनके प्रत्याशी पुत्र ने चुनाव जीता।
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अगर हम समग्र आकलन करें तो पाएंगे कि “महंगाई” पर अभी “मोदी फैक्टर” हावी है! यह बात सही है कि पूरे देश में जहां पर बीजेपी जीती है वहां पर भी उनका वोट कम हुआ है लेकिन लोकसभा चुनाव के परिपेक्ष में देखें तो प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में भले कमी आई हो किंतु अभी भी विपक्ष के किसी नेता की लोकप्रियता प्रधानमंत्री की लोकप्रियता से ऊपर नहीं हुई है।
हालांकि इस देश में महंगी प्याज के चलते सरकार गिरी है और जिस ढंग से लगातार आर्थिक मोर्चों पर हुकूमत असफल हो रही हैं, आप सत्तारूढ़ दल के रूप में बार बार राष्ट्रवाद, हिंदू मुसलमान, पाकिस्तान आदि के नाम पर चुनाव नहीं जीत सकते हैं। उनकी सोशल इंजीनियरिंग अभी काफी हद तक सफल साबित हुई है।
अंत में कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार का वोट कम होने से लोकसभा चुनाव उनके लिए खतरे की घंटी तो है लेकिन नरेंद्र मोदी की जनता के प्रति कनेक्टिविटी और विपक्ष का बिखरा बिखरा रहना (खासकर कांग्रेस पार्टी का) उनके लिए सुविधाजनक स्थिति को प्रदान करता है। वैसे भी हमारे प्रधान सेवक और उनका पूरा कुनबा जनसेवा कम और “ब्रांड की राजनीति”(प्रबंधकीय कौशल) ज्यादा करता है!
(लेखक इलाहाबाद पीयूसीएल में सचिव हैं)