उखड़ती साँसों के बीच ऑक्सीजन की तलाश

अनुपम तिवारी, स्वतंत्र, लेखक
अनुपम तिवारी

यह भी सोचने का वक़्त नही कि हर सेकंड के साथ कमजोर होते कंधे इस ऑक्सिजन के सिलिंडर का बोझ उठा पाएंगे भी या नही? एक बेबसी, एक शून्यता कोरोना वायरस से भी तेजी से समाज को खोखला किये दे रही है. रेगिस्तान की रेत सरीखे तपते शरीर एक अदद मदद की तलाश में भटक रहे हैं. कोई सोशल मीडिया पर गुहार लगा रहा है, कोई पड़ोसियों से, कोई प्रशासन के पैरों में गिरा पड़ा है कोई नेताओं के. किंतु मदद मृग मरीचिका ही साबित हो रही है. 

दोष किसका?

दोष किसको दें? देश के प्रधान को दें? क्योंकि सारा विश्व उसकी ओर उंगली उठा रहा है. कह रहा है कि उसने आपदा प्रबंधन से ज्यादा चुनावी रैलियों को गंभीरता से लिया था. या फिर इस प्रधान के उन क्षेत्रीय अनुचरों को दें जिनके पास ऐसे-ऐसे जवाब हैं कि आप प्रश्न करना भूल जाएंगे. किसी के अनुसार उसके प्रदेश में कोविड की लहर ही नही है भले ही रोज सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही करीब 3 हज़ार लोग मारे जा रहे हैं. दूसरा कहता है कि मरने वाले की चिंता करनी ही क्यों? क्या वह वोट देगा? या फिर दोष जनता को दें क्योंकि कितना भी समझा लो वह कोविड गाइडलाइंस को मानने को तैयार ही नही होती.

या फिर दोष दें उस माध्यम को जिससे अपेक्षा की जाती है सच दिखाने की, जागृति लाने की, किंतु जो प्रथम दृष्टया सरकारी भोंपू ही लगता है. लगातार इस भोंपू ने अपनी बेसुरी आवाज में आपको सुना-सुना कर यह विश्वास दिलाया था कि एक महामानव के अथक प्रयासों से हमने कोरोना की जंग जीत ली है. शायद सकारात्मक पहलू दिखाना अच्छा होता होगा इसीलिए उसने पाकिस्तान से लेकर कुलधरा के शापित भूतों तक की कथाएं बाँची पर मजाल है कि कभी नकारात्मकता दिखा देता, गलती से भी.

फैशन में चुनाव आयोग भी है. कहा जा रहा है कि सारी गलती उसी की है. बेचारा देश, उसके मासूम हुक्मरान, चुनाव थोड़े ही लड़ना चाहते थे, वो तो आयोग से बंधे थे. चलो अगर देश सेवा में चुनाव करवा भी दिया तो क्या जरूरत थी जनता को सड़क पर आने की? और मास्टरस्ट्रोक तो यह कि एक दल प्रचार इसलिए करता है, भीड़ इसलिए इकट्ठी करता है क्योंकि दूसरा भी तो करता है. ऋण और ऋण मिला कर धन बना ही लिया.

तुलनात्मक आपदा

इस आपदा काल मे हिन्दू-मुसलमान, अगड़े-पिछड़े, अमीर-गरीब में बांट पाना आसान नही था. इसलिए हमने खुद को क्षेत्रों में बांट लिया. तुलना करके ‘सैडिस्टिक’ खुशियां ढूँढ़ लिए. महाराष्ट्र में यह बुराई है तो दिल्ली में वह, उत्तर प्रदेश नही लड़ पा रहा तो क्या हुआ, बंगाल भी तो जूझ रहा है. दूसरे की बर्बादी देख हम खुश हो लेते हैं. कोई कह रहा है सिर्फ 11 राज्यों में स्थिति खराब है बाकी सुखी हैं. मतलब हर जगह ‘सैडिस्टिक प्लेजर’. कोई आश्चर्य नही कि इनके पीछे उन्ही सत्ताधारियों, विपक्षियों और उनके भक्तों/भोंपुओं का हाथ है जो आपको यह ‘प्लेजर’ दिन रात देते रहते हैं अलग अलग माध्यम से.

सड़ चुका सिस्टम

चाहे इसे सिस्टम का नाम दें, चाहे प्रशासन, चाहे हुक्मरानों को दोष दें, चाहे विदेशी शक्तियों का हाथ. सच यह है कि यह व्यवस्था का विद्रूप चेहरा है जिसके सामने आम नागरिक की जान का कोई महत्व नही है. सब बराबर के दोषी हैं, प्रधान से लेकर प्रशासन तक. हस्पतालों में बेड की कमी का हवाला देकर भर्ती न करने वालों से गली मोहल्ले में आवश्यक वस्तुओं का भंडारण करने वाले तक. पक्ष-विपक्ष, दक्षिणपंथ-वामपंथ, पूंजीवाद-मार्क्सवाद का भेद मिट चुका है क्योंकि श्मशान के बाहर लगी कतारें कोई भी ‘वाद’ नही समझतीं.

उम्मीद की किरणें

उम्मीद की किरणें सिर्फ उन फरिश्तों में दिखती हैं जो दूसरों की जान बचाने की खातिर दिन रात एक किये हुए हैं। उनका न कोई नाम है न धर्म न जाति न भाषा न दल न व्यवसाय। उनको अपने लिए क्या चाहिए? क्षेत्र, धर्म, राजनीति आदि से परे कुछ फरिश्तों ने मानवता की उखड़ती सांसे अपने कंधों पर लदे सिलिंडर से वापस ला देने का जिम्मा उठा लिया है. वहीं वास्तविक देशभक्त, यानी हमारे सैनिक भी आपदा के इस भीषण राक्षस से सीधे मोर्चा लेने मैदान पर कूद रहे हैं.

मानवता के नायक

सोशल मीडिया, मोबाइल फ़ोन आदि के माध्यम से लोगो की पुकार सुन रहे यह युवा, दिन रात अपने स्वार्थ भुला कर लोगो को अस्पताल में बेड और ऑक्सीजन जुटाने में मदद कर रहे हैं. दलगत राजनीति से परे जा कर दिन रात मानव सेवा में लगे हुए है. सिस्टम से तौबा कर रहे समाज की आशा अब इन्ही कंधों पर टिकने लगी है. 

आप उन्हें पहचान नही पाएंगे, क्योंकि वह सामने भी मास्क लगा के ही आते हैं. सिर्फ आलोचना नही करते, वह काम करते हैं. उनके लिए राजनीति का कोई महत्व नही है, उन्हें पता है कि इस काम से उन्हें वोट नही मिलेगा. शायद वह चुनाव भी न लड़ें. उन्हें अपने मजहब का भी कोई इल्म नही रह गया. तभी तो मुस्लिम कंधों पर हिन्दू जनाजा भी दिख रहा है और इसके उलट भी.  खालिस्तानी बुलाये जाने पर अपमानित महसूस करने वाले सिख युवक आज बिना यह सोचे सिलिंडर ले कर भाग रहे हैं कि कल को फिर उन पर बेनामी फंडिंग का आरोप लगाया जा सकता है. कोई बिना खाये-पिये-सोए ऑक्सीजन टैंकर हजारों मील दूर सड़क से पंहुचा रहा है, तो कोई दिन रात बिना थके हस्पतालों में मरीजों की सेवा में लगा है। 

भारत का शास्वत सिस्टम

यही ताकत है भारत की क्योंकि यही भारत का ‘सिस्टम’ है जो सनातन रहा है. कोई भी तथाकथित वायरस इस मानवतावादी भारत की ऑक्सीजन को नही छीन सकता। उन हुक्मरानों से, प्रशासन से, भोंपुओं से, व्यवस्था से इस देश का कद कहीं बड़ा है. सोनू सूद, श्रीनिवास, दिलीप पांडे, कुमार विश्वास, ममता भयाना जैसे नाम सोशल मीडिया से निकल धरातल पर देवदूत बन जाते हैं. तो हर गली मोहल्ले में न जाने कितने निस्वार्थ युवक जनसेवा में स्वयं को झोंक जाते हैं. यही तो है असली भारत. किंतु भारत इस बार चुप नही रहेगा, आपदा से जीतेगा और सवाल करेगा, हर उस सिस्टम से जिसने उसकी साँसे बोझिल की हैं.

(अनुपम तिवारी वायुसेना से अवकाशप्राप्त अधिकारी हैं। स्तंभ लेखन के अलावा तमाम मीडिया चैनलों पर रक्षा एवं सामरिक मामलों के विशेषज्ञ के तौर पर अपनी बेबाक राय रखते हैं)

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