उड़ता बनारस : काशी – वाराणसी के हृदय स्थल का आँखों देखा हाल
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक सुरेश प्रताप की पुस्तक ‘उड़ता बनारस’ अपनी विशेषताओं के लिए जानी जा रही है.अभी पुस्तक प्रकाशन का एक हफ्ता भी नहीं हुआ है कि उससे लोग पूरी तरह परिचित होने लगे हैं. पुस्तक के जितने भी अध्याय हैं, वह अपनेआप में महत्वपूर्ण है.
उड़ता बनारस में धार्मिक – आध्यात्मिक और सांस्कृतिक शहर वाराणसी के विशेष रूप से उस भाग का वर्णन किया गया है, जो मूलतः उसका हृदय स्थल है. काशी, वाराणसी या बनारस की पहचान बाबा विश्वनाथ, मां गंगा और उनके सुन्दर घाटों से ही जानते हैं. बनारस दुनिया का अतिप्राचीन शहर भी है. इसलिए यहां की संस्कृति, धर्म, भाषा आदि का विशेष महत्व है.
काशी पर सर्वाधिक पुस्तकें लिखी गयी हैं. लोगों ने अपनी अपने अपने तरह से विवेचन किया है. वेदों, पुराणों, शास्त्रों से लेकर अन्य ग्रन्थों में काशी को प्रमुख स्थान दिया गया है. हम अन्य विस्तार में न जाकर ‘ उड़ता बनारस’ पर चर्चा कर रहे हैं. इस पुस्तक में लेखक ने जो देखा उसको लिखा. उसे प्राचीन संस्कृति से जोड़कर लिखा. बनारस की ओर जब जब लोगों ने आंखें तरेरी, तब तब यहां की जनता उसके खिलाफ खड़ी हुई.
इस पुस्तक में वर्णन को देखकर लगता है कि वह बनारस और आज के बनारस में बहुत बड़ा फर्क आ गया है. आज आन्दोलन की रूपरेखा बनाने और लड़ाई लड़ने वाला सरेन्डर कर जाता है. उस जमाने में लोग टूटते थे, लेकिन अकड़ कर चलते थे. जमीर बिकती नहीं थी. लेकिन आज बिक गयी. किसी अस्त्र- शस्त्र पर नहीं, वरन रुपये पर बिक गयी. उड़ता बनारस में ऐसे आन्दोलनकारियों के गालों पर लेखक ने तमाचा लगाया है. गिरती भहराती बिल्डिंग को लोग आंखों से देख रहे हैं, लेकिन कुछ कर नहीं सकते. मिट्टी में एक इतिहास का दफन हो रहा है, फिर भी लोग चुपचाप खड़े हैं.
अब सरस्वती फाटक को कौन जानेगा? कहाँ जानेगा? इसका उत्तर कहीं नहीं, ‘उड़ता बनारस’ में मिलेगा. इसी तरह लाहौरी टोला भी जमींदोज कर दिया गया. लोगों की सूनी आंखें देखती रह गयीं. कई और मुहल्ले धराशायी हो गये. बनारस की पहली लाइब्रेरी, जिसे कारमाइकल लाइब्रेरी के नाम पर जाना जाता था, उसे भी गिराकर नीरा राडिया का अस्पताल बना दिया गया. अरे भाई! अस्पताल तो कहीं बन सकता था, लेकिन धरोहर दूसरी जगह नहीं बन सकती.
उड़ता बनारस पढ़ेगें तो आंखें खुल जाएंगीं. लेखक सुरेश प्रताप की दृष्टि जहाँ तक गयी, उसे किताब के पन्नों में अक्षरों और आवश्यकता पड़ने पर चित्र के रूप में उतारा. इसलिए कि लोग पढें, तो देखें कि क्या था और क्या हो गया. उड़ता बनारस में एक से एक अनुत्तरित सवाल मिलेंगे. इस पुस्तक को पूरे मनोयोग से तैयार करने के लिए मैं सुरेश प्रताप को धन्यवाद देता हूं. वैचारिक मतभिन्नता की बात अलग और लेखन की अलग है. इसके बावजूद भी सुरेश प्रताप बधाई के पात्र हैं.