चर्चा: इस निज़ाम में पुराना सिर्फ कबाड़ है…
सभ्यतायें या तो विकास की ओर जाती हैं या विनाश की ओर
आजकल इतिहास को दोबारा लिखने के प्रयास हो रहे हैं. या ये कहा जाये कि अलग इतिहास लिखा जा रहा है, जो पुराने इतिहास से बहुत अलग है. और जो नया इतिहास लिखने वाले हैं, उनका प्रयास ये है कि जो पुराने इतिहास की महिमा थी, उसका कुछ न कुछ खंडन भी करते चलो और हो सके तो उसे ध्वस्त भी करते चलो. ये चीजें कई बार दुख भी देती हैं, दर्दनाक भी होती हैं. सभ्यतायें या तो विकास की ओर जाती हैं या विनाश की ओर जाती हैं. उनमें ऐसे पीरियड्स बहुत कम ही आती हैं जब वे बिल्कुल सीधी रेखा में चलें. आज के युग को हम एक संक्रमण काल के रूप में बोल सकते हैं जहां कम से कम इतिहास लिखने की जो बात है तो हम विकास की ओर तो नहीं जा रहे हैं. क्योंकि सभ्यताओं का विकास सिर्फ आर्थिक विकास नहीं हुआ करता है, उनका विकास राजनैतिक भी है, सामाजिक भी है और उनसे कहीं ज्यादा भावनात्मक भी है. इन्हीं मुद्दों पर न्यूज टाइम के दिनेश कुमार वोहरा जी ने कई वरिष्ठ पत्रकारों को चर्चा करने के लिये बुलाया, आइये जानते हैं, किसने क्या कहा?
कुछ नई चीजें, कुछ नई मान्यतायें, कुछ नई रवायतें, नई सोच, कुछ नई इमारतें, क्या कहा जाये, बहुत कुछ हो रहा है इस भारत में. पहली टिप्पणी इस सवाल पर हमारे माननीय वरिष्ठतम पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी से..
वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी
एक बहुत मशहूर कहावत है कि अपने दिमाग की खिड़कियां खोलकर रखनी चाहिये और अच्छे विचार जहां से भी आयें, उनको ग्रहण करना चाहिये, तभी आपकी तरक्की होती है, ग्रोथ होती है. और दूसरा तरीका ये है कि जैसा कि हमारे यहां कहते हैं कि कूप मंडोक यानी कुंअे का मेढक, और वो अपने आपको समझता है कि इससे बड़ा तो कुछ हो ही नहीं सकता. और एक बार वहां जब मेढक समुद्र से आ गया था तो उसे बड़ा ताज्जुब हुआ कि ये समुद्र क्या होता है?इससे बड़ा कैसे हो सकता है? ये कोई आज की बात नहीं है. आप देखिये, जब ये पासपोर्ट, वीजा नहीं था, तो लोग इसी जिज्ञासा में कि और जगह क्या है… घूमने फिरने आते थे, जाते थे. चीन के लोग यहां आते थे, यूरोप के लोग यहां आते थे, हमारे लोग वहां जाते थे, ये भी माना जाता है कि जीजस क्राइस भी कश्मीर आये थे. इसी तरह सभ्यतायें, या लोग, एक दूसरे के यहां आना जाना, बहुत सारी चीजें हैं. भाषाओं का विकास ऐसे ही होता है, संस्कृतियों का विकास ऐसे ही होता है. लेकिन हमको जब अहंकार हो जाता है या तो हम कूप मंडोक रहना चाहते हैं, या हमारे अंदर एक अपना और पराये की भावना आ जाती है कि जो हम हैं वही सर्वश्रेष्ठ है और दूसरे से हमें कुछ नहीं लेना. तो उसी में इस तरह की फूहड़ और ट्रैजडी होती है कि अच्छा खासा भजन, जो 1950 से चला आ रहा था, बीटिंग रीट्रीट में अबाइड बाय मी और जो हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और गांधी जी को प्रिय था, बहुत लोगों को प्रिय है. अब आज जो पढ़ाई हो रही है, आप प्रैक्टिकल बात करिये. आज एक एक परिवार के लोग तीन तीन महाद्वीपों में हैं, तीन तीन देशों में हैं. कुछ चीजों की यूनिवर्सल वैल्यू होती हैं, जो मानवीय प्रार्थना, संगीत है, उनको भी लेकर के. ये एक फूहड़ उदाहरण है.
दूसरे, आपने जो इतिहास की बात की तो इतिहास में कुछ भूल हुई लोगों से कि जो वे स्वतंत्रता आंदोलनों में शामिल नहीं हुये और इतने ही नहीं, बल्कि उन्होंने बाकायदा ब्रिटिश हुकूमत की मदद की. अब जब देश की आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनानी है या गांधीजी की 150वीं जयंती मनानी है तो उन लोगों को प्रॉब्लम ये है कि एक तो जब वे दूसरी दुनिया में जाते हैं तो लोग उनसे पूछते हैं महात्मा गांधी के बारे में. क्योंकि वहां उनके जो विचारक हैं या उनके जो पुरखे हैं, उन्हें तो कोई जानता नहीं है. ऐसी विचारधारा, जिसके कारण महात्मा गांधी की हत्या हुई, उसी विचार से प्रेरित होकर…, लेकिन आज महात्मा गांधी को मानते हैं लेकिन महात्मा गांधी का चरित्र हनन भी करते हैं. पहले प्रधानमंत्री जो फ्रीडम स्ट्रगल के हीरो थे, उनका भी चरित्र हनन होता है और कोशिश करते हैं कि उनके पास चूंकि कोई पुरखा नहीं था, आजादी की लड़ाई का, तो किसी को ले लें. तो सरदार पटेल को कोशिश किया बहुत लेने की, लेकिन वो जमा नहीं, अब सुभाष चंद्र बोस को लिया. अब पता चला कि सुभाष चंद्र बोस को ले तो लिया है, लेकिन वे गले की हड्डी बन गये क्योंकि जो उनके भाषण हैं, वो सारा सांप्रदायिकता के खिलाफ है. तो बड़ा एक विचित्र है, एक विरोधाभास है. ये एक बड़ी फूहड़ कोशिश है. एक जमाना था कि आप टेक्सट बुक में जो चाहे लिखते, अब ऐसा नहीं है. टेक्सट बुक चाहे आप कुछ भी बना लीजिये. बच्चों को पढ़ने के लिये और भी स्रोत हैं जानकारी के लिये.
दिनेश कुमार वोहरा
बिल्कुल आपका सही कहना है और जो सुभाष जी की बात की वो तो असल में काफी लेफ्ट की विचारधारा थी…
आगे की चर्चा जानने के लिये क्लिक करें…