भगवान गौतम बुद्ध का अवतरण –बुद्ध पूर्णिमा
डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज
बैशाख माह की पूर्णिमा –श्रावस्ती से साठ मील उत्तर रोहिणी नदी के पश्चिम तट पर स्थित शाक्यों के संघराज्य की राजधानी कपिलवस्तु में संघ प्रमुख शुद्धोदन के गृह में माता महामाया के गर्भ से मानवता के कल्याणार्थ गौतम बुद्ध का अवतरण इस धरा धाम पर हुआ।
बालक सिद्धार्थ की मनोवृत्ति चिंतनशील और वैराग्य की ओर झुकी हुयी थी। आषाढ़ मास की पूर्णिमा को सिद्धार्थ राजवैभव ,पत्नीपुत्र का त्याग कर महाभिनिष्क्रमण पर चल पड़े।
सिद्धार्थ ने छह वर्षों तक पंचवर्गीय ऋषियों के साथ कठोर तपस्या की परन्तु मन अशांत ही रहा। अंततः सिद्धार्थ ने हठयोग के तापसी जीवन का त्याग कर ,सामान्य जीवन बिताने लगे। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे की मानवी जीवन को अत्यधिक त्रस्त करना उतना ही हानिकारक है जितना उसे सुख देना। पीपल के वृक्ष के नीचे साधना रत सिद्धार्थ को सुजाता लगातार पांच दिनों तक इन्हे वृक्षदेवता समझ कर पायस का पान कराती रही।
यह बैशाख पूर्णिमा का ही दिन था जब बोधिवृक्ष की छाया में सिद्धार्थ को बुद्धत्व की प्राप्ति मानव की पापी वासनाओं को जीतकर होती है। यह वह दिन है जब गौतम बुद्ध को अनुभूति हुयी की संयमसहित सत्याचरण और जीवन ही धर्म का सार है ,जो इस संसार के सभी यज्ञ ,शास्त्रार्थ और तपस्या से बढ़कर है।
बुद्धत्व प्राप्त करने के तीन सप्ताह तक महात्मा बुद्ध बोधिवृक्ष की छाया में इस उहापोह में रहे की जो बोध उन्हें प्राप्त हुआ है ,उसे अपने पास ही रखें या इसे सारे संसार को प्रदान करे। उन्हें ब्रह्मज्ञान हुआ की बोध का कर्तव्य है उत्थान और अप्रमाद –बोध को सतत उद्योगरत रहना चाहिए और कभी भी प्रमादग्रस्त नहीं होना चाहिए।
गौतम बुद्ध ने धर्मचक्रप्रवर्तन सारनाथ -वाराणसी से प्रारम्भ किया। अपने पांच तापसों के समक्ष अपने धर्म का प्रचार करते हुए तथागत बुद्ध ने कहा की सन्यासियों को दो बातों का ध्यान रखना चाहिए –एक बिषय वासना न फॅसे दूसरे शरीर को व्यर्थ कष्ट न दे। बुद्ध ने माध्यम मार्ग के अनुशरण का आवाहन किया।
महात्मा बुद्ध ने भिक्षुयों के बुद्धसंघ की स्थापना प्रजातान्त्रिक रूप में कीजहाँ व्यक्ति नहीं समूह की सत्ता प्रभावी थी।
एक नए विचारप्रणाली और ज्ञान को प्रतिपादित करने वाले भगवान तथागत को कोटि कोटि नमन।