बाइडन-हैरिस प्रशासन और भारत-अमेरिकी संबंध

बाइडन
शिव कांत, बीबीसी हिंदी रेडियो के पूर्व संपादक, लंदन

अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जोसेफ़ बाइडन ने 2006 में एक भारतीय पत्रकार को दिए इंटरव्यू में कहा था, ‘मेरा सपना है कि 2020 तक अमेरिका और भारत दुनिया के दो सबसे क़रीबी दोस्त बन जाएँगे।‘ वे उन दिनों अमेरिका के वरिष्ठ सेनेटर होने के नाते सेनेट की विदेश संबंध समिति के अध्यक्ष थे और राष्ट्रपति बुश की सरकार के लिए भारत के साथ 2008 में होने वाली परमाणु सहयोग संधि का दस्तावेज़ तैयार कर रहे थे।

जो बाइडन बुश प्रशासन के ज़माने से ही भारत के साथ दोस्ती गहरी करने के हिमायती रहे हैं। कहा जाता है कि सेनेटर ओबामा भारत के साथ परमाणु संधि के लिए बहुत उत्साहित नहीं थे। उन्हें जो बाइडन ने इस संधि के लिए तैयार किया और भारत के साथ सामरिक साझेदारी को आगे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाई। ओबामा सरकार को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के विस्तार और उसमें भारत को सदस्यता देने वाले प्रस्ताव के समर्थन में ला खड़ा करने का श्रेय भी बाइडन को ही दिया जाता है।

ओबामा-बाइडन सरकार ने ही भारत को एक प्रमुख रक्षा साझीदार का दर्जा भी दिया। भारत ऐसा पहला देश है जिसे अमेरिका के सामरिक गुटों में शामिल न होते हुए भी रक्षा साझीदार का दर्जा मिला है। इस पहल ने भारत के लिए अमेरिकी रक्षा सामान के साझा निर्माण और उसकी अत्याधुनिक रक्षा तकनीक के द्वार खोले हैं। ट्रंप सरकार ने इस समझौते को आगे बढ़ाते हुए इसके चारों चरण पूरे किए और एशिया-प्रशान्त में चीन की बढ़ती चुनौतियों का सामना करने के लिए अमेरिका-भारत-जापान और ऑस्ट्रेलिया की चौकड़ी को एक ठोस आधार दिया है।

लोगों को आशंका है कि ट्रंप सरकार की तुलना में बाइडन सरकार की नीतियाँ चीन के प्रति नरम होंगी। चीन के साथ ट्रंप की तरह सार्वजनिक रूप से उलझने की बजाय बाइडन सरकार कूटनीति से काम लेना चाहेगी। व्यापार घाटे को कम करने के लिए शुल्क और संरक्षण की दीवारें खड़ी करने के बजाय व्यापार को बढ़ाने के उपाय खोजे जाएँगे। बाइडन सरकार की पहली प्राथमिकता महामारी की रोकथाम करना और उसकी मार से धराशाई हुई अर्थव्यवस्था को उबारना है, चीन के साथ झगड़ों में उलझना नहीं।

यह बात एक हद तक सही है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि चीन की विस्तारवादी नीतियों पर अंकुश लगाने के लिए शुरू की गई घेराबंदी में ढील आ जाएगी। चीन से फैली महामारी से हुए विश्वव्यापी विनाश और उसका फ़ायदा उठाते हुए एशिया-प्रशांत, हिंद महासागर और भारत की सीमाओं पर चीन की आक्रामक चालों ने चीन के प्रति अमेरिका के दृष्टिकोण को बदल दिया है। राष्ट्रपति चुनाव में हार के बावजूद ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत सेनेट में बरकार है और प्रतिनिधि सभा में भी बाइडन-हैरिस की डेमोक्रेटिक पार्टी का बहुमत कम हुआ है।

इसलिए बाइडन-हैरिस की सरकार पर चीन प्रति नीतियाँ कड़ी रखने का राजनीतिक दबाव बना रहेगा। भारत के ख़िलाफ़ चीन की आक्रामक चालों को लेकर भी अमेरिकी नीति में बदलाव आने का कोई कारण दिखाई नहीं देता। अलबत्ता यह संभव है कि बाइडन सरकार ट्रंप सरकार की तरह की खुली बयानबाज़ी से बचे और कूटनीति से काम ले। विदेश मंत्री पद के लिए संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की पूर्व राजदूत सूज़न राइस का नाम आगे चल रहा है। जो इस बात का संकेत है कि खुली बयानबाज़ी की जगह कूटनीति का युग लौट रहा है।

दिलचस्प बात यह भी है कि बाइडन-हैरिस के लिए अब तक तमाम बड़े देशों के राष्ट्राध्यक्षों के बधाई संदेश आ चुके हैं। पर रूस के राष्ट्रपति पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग अभी तक ख़ामोश हैं। कूटनीतिक समीक्षकों का मानना है कि यह देरी इस बात का संकेत देती है कि ट्रंप के चुनाव प्रचार में खुले प्रहार झेलने के बावजूद शायद ये दोनों देश उनकी हार के लिए तैयार नहीं थे। रूस और चीन में पाए गए ट्रंप के कारोबारी खातों की बात से भी इन आशंकाओं को बल मिलता है कि चीन और रूस के साथ ट्रंप के दिखावटी झगड़ों के पीछे सच कुछ और था। बाइडन-हैरिस सरकार से कम से कम इस तरह की दोमुँही नीति की आशा नहीं है।

ईरान और उसके साथ हुई परमाणु संधि भी बाइडन सरकार के लिए बड़ी प्राथमिकता होगी जिसे ट्रंप सरकार ने मानने से इनकार कर दिया था। भारत के साथ हुई परमाणु सहयोग संधि की तरह ही ईरान की परमाणु संधि में भी बाइडन की प्रमुख भूमिका रही है। इसलिए वे इस संधि को पुनर्जीवित करने का प्रयास ज़रूर करेंगे। इसके पुनर्जीवित होने से भारत को अफ़ग़ानिस्तान में अपनी चाबहार बंदरगाह योजना को पूरा करने का मौक़ा मिलेगा जो खाड़ी क्षेत्र में चीन की बढ़ती चुनौती का सामना करने के लिए आवश्यक है। ईरान पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के ढीला होने पर भारत वहाँ से तेल और गैस का आयात भी बहाल कर पाएगा।

जो बाइडन ने अपने चुनावी जीत के वक्तव्य में जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए हुई पैरिस संधि पर लौटने का वादा भी किया है। भारत ने ओबामा सरकार के अंतिम महीनों में अमेरिका के दबाव में आकर इस संधि पर हस्ताक्षर कर दिए थे, इस शर्त पर कि अमेरिका और यूरोप के विकसित देश स्वच्छ और नई तकनीक देने के लिए तय हुए सौ अरब डॉलर के कोष की स्थापना करेंगे। लेकिन ट्रंप ने सत्ता संभालते ही कई दूसरी अंतर्राष्ट्रीय संधियों की तरह पैरिस संधि से भी हाथ खींच लिए थे। पैरिस संधि में अमेरिका का लौटना स्वच्छ और नई तकनीक के विकास के द्वारा जलवायु परिवर्तन की रोकथाम में मदद करेगा।

इस समय विश्व के सामने सबसे बड़ा संकट कोरोना की महामारी और उससे हुए आर्थिक विनाश का है। एक चीन को छोड़ कर दुनिया के हर बड़े देश की अर्थव्यवस्था मंदी के भँवर में जा गिरी है। बाइडन-हैरिस सरकार ने महामारी की रोकथाम और अर्थव्यवस्था की बहाली को अपनी पहली प्राथमिकता बनाया है। बाइडन एक कार्यदल का गठन करने वाले हैं जिसमें भारतीय मूल के डॉ विवेक मूर्ति की अग्रणी भूमिका होगी। उनके अलावा नई बाइडन-हैरिस सरकार में ऊर्जा मंत्रालय के लिए स्टेनफ़र्ड के प्रो अरुण मजूमदार और वित्त एवं निवेश विभागों के लिए राज चेट्टी के नाम भी आगे चल रहे हैं।

अमेरिका के पूर्वोत्तरी राज्य वॉशिंगटन से प्रतिनिधि सभा में लौटीं प्रमिला जयपाल को बाइडन-हैरिस सरकार का राजनीतिक एजेंडा तैयार करने के लिए बनी प्रवर समिति में रखा गया है। प्रमिला जयपाल अमेरिका की संसद में भारतीय मूल के प्रगतिवादी डेमोक्रेट नेताओं के गुट की सह अध्यक्ष भी हैं जिसे समोसा गुट के नाम से जाना जाता है। यह गुट भारत से जुड़े विषयों पर राजनीतिक समर्थन जुटाने और आमराय बनाने की कोशिशें करता है। पिछले साल प्रमिला जयपाल ने ही जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन के विरोध में निंदा प्रस्ताव रखा था जिसका सेनेटर कमला हैरिस ने भी पुरज़ोर समर्थन किया था। इस पर भारत सरकार इतनी नाराज़ हुई थी कि विदेशमंत्री जयशंकर ने प्रमिला जयपाल से मिलने से इनकार कर दिया था।

अमेरिका के सबसे बड़े राज्य कैलीफ़ोर्निया की सेनेटर बनने से पहले कमला हैरिस उस राज्य की महाधिवक्ता रही हैं और मानवाधिकारों के लिए लड़ना और खुल कर बोलना उनके स्वभाव में रहा है। इसलिए उन्होंने भारत के नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों के दौरान भी मोदी सरकार की मानवाधिकार और अल्पसंख्यक विरोधी नीतियों की निंदा की थी। कमला हैरिस का ननिहाल तमिलनाडु में है जहाँ प्रधानमंत्री मोदी की भारतीय जनता पार्टी को हिंदी और हिंदू राष्ट्रवादियों की पार्टी के रूप में देखा जाता है। इसलिए मोदी सरकार को उनसे मानवाधिकारों और अल्पसंख्यक विरोधी नीतियों पर तीख़ी आलोचना का सामना करना पड़ सकता है।

वैसे जो बाइडन भी अपने चुनाव प्रचार के दौरान मोदी सरकार की मानवाधिकार और अल्पसंख्यक नीतियों को लेकर चिंता जता चुके हैं। लेकिन समन्वयवादी होने के कारण उनकी आलोचना की भाषा में उतनी धार नहीं होती जितनी कमला हैरिस और प्रमिला जयपाल के बयानों में देखने को मिलती है। संभव है कि सत्ता की बागडोर संभालने के बाद कमला हैरिस और जो बाइडन तथा उनकी मंत्रिपरिषद के लोग खुली निंदा से बचें और अपनी चिंताओं को आपसी बैठकों के दौरान की प्रकट करने लगें। लेकिन आवाज़ उठाने के लिए उन पर डेमोक्रेटिक पार्टी के वामपंथी और मुस्लिम नेताओं का दबाव बना रहेगा।

इसका मतलब यह नहीं है कि कश्मीर, मानवाधिकार और अल्पसंख्यकों को लेकर उठने वाली चिंताओं का आर्थिक और सामरिक संबंधों पर कोई ख़ास असर पड़ेगा। भारत.अमेरिका संबंधों को लेकर अमेरिका में पिछले दो दशकों से दोनों पार्टियों के भीतर आमराय बन चुकी है। फ़र्क इतना है कि बाइड-हैरिस सरकार के दौर में रिश्तों का हाउडी मोदी और नमस्ते ट्रंप जैसा सार्वजनिक प्रदर्शन शायद न देखने को मिले। जो बाइडन रिश्तों की गहराई में विश्वास रखते हैं, उनके दिखावे में नहीं। लेकिन जनता में हवा बाँधने के लिए जो काम दिखावा कर सकता है, वह गहराई नहीं कर सकती।

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