बंगलौर की बाढ़ : प्रकृति बनाम प्रगति
बंगलौर की बाढ़ में भारत में अर्बन गवर्नेंस की पोल खोल दी है
राम दत्त त्रिपाठी
आधुनिक भारत में प्रगति और विकास का प्रतिमान बना बंगलौर इन दिनों बाढ़ की प्राकृतिक आपदा से जूझ रहा है. लेकिन क्या इसे प्राकृतिक आपदा कहना उचित है? अत्यधिक बारिश बंगलौर में अभूतपूर्व बाढ़ या जल भराव का एक छोटा कारण हो सकता है , लेकिन असली कारण हमारे टाउन प्लानिंग की ख़ामियॉं , कुप्रशासन और भ्रष्टाचार है. औद्योगिक क्रॉंति के बाद से दुनिया में शहरीकरण बढ़ा है . शहर न केवल प्रशासन और व्यवसाय बल्कि शिक्षा , स्वास्थ्य सेवाओं और रोज़गार के केंद्र बनते जा रहे हैं . गॉंव इन सब मामलों में पिछड़ते जा रहे हैं . इसलिए तेज़ी से शहरों की ओर पलायन हो रहा है.
नियोजित शहरी क्षेत्र इस बढ़ती मॉंग को पूरा नहीं कर पा रहे , इसलिए प्राइवेट बिल्डर अग़ल – बग़ल के गॉंवों में खेती की ज़मीन ख़रीदकर कालोनियों बसा रहे हैं और बाद में नगरीय सीमा के विस्तार की औपचारिकता पूरी की जाती है. पैसे की बदौलत लैंड यूज चेंज हो जाता है. गाँवों के बाग बगीचे, तालाब और झीलें सब ख़त्म हो जाते हैं . इस प्रकिया में कच्ची ज़मीन का दायरा सिकुड़ जाता है और मकान या सड़क निर्माण में अधिकॉंश ज़मीन पक्की हो जाती है. इसलिए बारिश होते ही पानी मिट्टी में सोखने और तालाबों या झीलों में भरने के बजाय सीधे सड़कों पर आता है , शहरों और गाँवों का प्राकृतिक ढाल समाप्त हो चुका होता है . इसलिए बारिश का पानी नालों , बरसाती और बड़ी नदियों में जाने के बजाय घरों , इमारतों में भरता है. यह कहानी केवल बंगलौर की नहीं है . बंबई , गुड़गॉंव , गोरखपुर, बनारस और इलाहाबाद जैसे तमाम शहर इसी तरह डूबते उतराते हैं .
आँकड़ों के अनुसार सन 1901 में भारत में शहरी आबादी ग्यारह फ़ीसदी थी जो अब बढ़कर क़रीब चालीस फ़ीसदी पहुँच रही है. उद्योग व्यवसाय और सेवा क्षेत्र को शहरों में सस्ती लेबर फ़ोर्स चाहिए इसलिए सरकार भी जानबूझकर कर ग्रामीण क्षेत्रों और क़स्बों के विकास की उपेक्षा कर शहरों की ओर पलायन को बढ़ावा देती है. लेकिन उसी अनुपात में शहरों के नियोजन पर ध्यान नहीं देती.
पहले शहर नदियों के किनारे ऊँचाई पर बसाये जाते थे जिधर नदी प्राकृतिक रूप से मिट्टी छोड़ती है. दूसरी ओर यानी बालू की तरफ़ शहर नहीं बसाये जाते थे. अब नदी के दोनों तरफ़ शहर बसाकर बारिश में नदी के प्राकृतिक फैलाव को रोक दिया जाता है , इससे शहर के ऊपर और नीचे दोनों तरफ़ बाढ़ आनी ही आनी है. इसके अलावा नदी के डूब क्षेत्र में भी कालोनियॉं बस जाती हैं और बारिश का पानी जल भराव का कारण बनता है.
कई शहरों में यातायात को सुगम बनाने और शहर में अवॉंछित वाहनों को आने से रोकने के लिए रिंग रोड बनायी जाती हैं या नयी कालोनियों के लिए सड़कें बनाया जाती हैं , लेकिन पर्याप्त पुलिया न बनाने के कारण पहले से चल रहे प्राकृतिक जल निकासी के चैनल रुक जाते हैं और बाढ़ का कारण बनते हैं . गौर करने की बात है कि बंगलौर के पुराने इलाक़ों में बाढ़ का प्रकोप क्यों न के बराबर रहा और नये इलाक़ों में ज़्यादा रहा .
वास्तव में टाउन प्लानिंग में कई तरह के विशेषज्ञों का योगदान होता है , जिसमें सर्वाधिक ज़रूरी है भूगोल या ज्योग्राफ़ी का ज्ञान . यानी ज़मीन कैसी है , पानी की उपलब्धता क्या है , पानी का ढलान किधर है और कितने जलाशय चाहिए. इसके बाद सिविल इंजीनियर , आर्किटेक्ट , सिविल सर्वेंट्स और पॉलिटिशियंस का नंबर आता है. जबकि अभी सब उल्टा होता है.
पिछले कुछ दशकों में अर्बन रिजेनरेशन के लिए धन तो बहुत आबंटित हुआ, लेकिन अर्बन प्लानिंग और गवर्नेंस पर ध्यान नहीं दिया गया. प्रशासन का केंद्रीकरण होता गया और लोकल कम्यूनिटी की भागीदारी नगण्य है.
होना तो यह चाहिए कि अब महानगरों का चारों तरफ़ लगातार फैलाव करने के बजाय सौ से डेढ़ सौ किमी दायरे में आने वाले छोटे – छोटे क़स्बों का बुनियादी ढॉंचा मज़बूत कर विकास किया जाये. तेज लोकल ट्रांसपोर्ट, बिजली , इंटरनेट , स्कूलों और अस्पतालों की सुविधा छोटे नगरों में बढ़ायी जाये और इनमें रहने वालों को प्रोत्साहन दिया जाये.
हम बंगलौर को कैलिफ़ोर्निया या सिलिकॉन सिटी तो बनाना चाहते हैं लेकिन वहॉं के अर्बन गवर्नेंस पर ध्यान नहीं दे रहे . दो सालों से बंगलौर नगर निगम का चुनाव जानबूझकर टाला जा रहा है.
अर्बन गवर्नेंस की ज़रूरत केवल जलभराव की समस्या के लिए नहीं है. आज शहरों में कचरा प्रबंधन, विशेषकर प्लास्टिक बहुत बड़ी चुनौती है. इसी तरह अत्यधिक शोर और वायु प्रदूषण. ट्राफिक जाम . गाँवों से रोज़गार की तलाश में आने वाले मज़दूरों के रहने की जगह न होने से स्लम बढ़ते जा रहे हैं . उनके लिए जहॉं घर बनाये जाते हैं वहाँ रोज़गार नहीं होता . स्लम्स में साफ़ सफ़ाई , पानी , टॉयलेट , शिक्षा और स्वास्थ्य का भी प्रबंध नहीं होता .
बंगलौर की बाढ़ में भारत में अर्बन गवर्नेंस की पोल खोल दी है . ज़ाहिर है देश में आर्थिक विकास का जो मॉडल है उसमें शहरीकरण और रोज़गार के लिए गाँवों से पलायन आने वाले दिनों में और बढ़ना ही है . इसलिए विकेंद्रित अर्बन गवर्नेंस को मज़बूत बनाया जाये और शहरों के नियोजन में प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए जल की उपलब्धता , जल निकासी, सीवर , जंगल और खेती का भी समुचित समायोजन किया जाये.