भिखारी ठाकुर और लौंडा नाच

नाट्य जगत में युग प्रवर्तक

मीरा सिन्हा

जिस समय समाज मे नाच गाने को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता था खास तौर से बिहार मे, वहां पर तब के सारण आज के बलिया, छपरा, आरा जिले के ग्राम मे 18 दिसंबर 1887को दलशिन्गार और शिवकाली देवी के घर एक पुत्र भिखारी ठाकुर का का जन्म हुआ,किसको पता था कि यह बालक बडा होकर नाट्य जगत में युग प्रवर्तक बनेगा और लौंडा नाच को विख्यात करेगा, इनके बारे मे शोध करने वाले मार्च 1982को सिवान जिले में उत्पन्न डॉ. पांडे ने भिखारी ठाकुर के ही शब्दो मे लिखा है।

“बरजत रहलन बाप मतारी
नाच मे जन तू रहल भिखारी “

उनमे इस कला के प्रति समर्पण और प्रयोग ने इसे सामाजिक स्वीकृति दी इन्होने बंगाल से बाउल, जागा और लीला नाटको को देख कर अपने इलाके मे एक नये चलन का सपना देखा और रसूल मियां, भिखारी ठाकुर और चाइ ओझा का साथ पाकर ये कला पुनर्जीवित हो उठी। ये भोज पूरी इलाके के शेक्सपियर कहलाते थे, और भोजपुरी आँचल का प्रसिद्ध लौडा नाच जो भोजपुरियॉ की सांस्कृतिक पहचान है, और भिखारी ठाकुर इस विद्या के सर्वश्रेष्ठ नायक हैं। उस समय भोजपुरी में मंचन के लिए महिलाओँ का प्रवेश वर्जित था यहाँ तक कि मुम्बई में भी दादा साहब फाल्के ने अपनी पहली फिल्म हरीशचंद्र तारामती मे तारामती का रोल करने के लिए सालुखे नामक नौजवान को चुना ऐसे में भोजपुरी के नामचीन साहित्यकार डॉ. भगवती प्रसाद द्विवेदी के अनुसार
“सर्व प्रथम भिखारी ठाकुर ने कलात्मक युवाओं कोमंच पर उतार कर लौडा नाच को जगत्प्रसिद्दि दिलाई”।

महेश्वराचार्य ने लिखा “सच तो यह है कि विशेषत: आरा, बलिया, छपरा (तब के सारण) के क्षेत्र में भिखारी ठाकुर के मुकाबले न नाच हुआ है न है और न भविष्य में होगाभिखारी का नाच आया है सुनकर सामने रखे हुए खाना को छोड़कर चल देने वाले दर्शकों को लाखों की संख्या में देखा गया है, क्या बराबरी करेगा सिनेमा का कोई चित्र, भिखारी ठाकुर के नाच के सामने और क्या भीड़ एकत्र होगी कोई तानसेन या बैजू बावरा के संगीत पर, जब भिखारी ठाकुर स्वयं आते थे स्टेज पर”
यह नायक, कथा लेखक, निर्देशक, नृत्य निर्देशक सभी थे इनका नायकात्व पहले से प्रतिस्थापित लौडा नाच, नेटुआ, जाट जाटिन, समान्चकवा, झिन्झिया, पान्वरिया, लोरिकायान, गोडिय नाच, घंटी, कछ्नाया, लकडी, खेला नृत्य, महबौरि, झन्डा नृत्य, झूमर आदि मे नवीन प्रयोग कर इस नृत्य को भोजपुरी अंचल की लोक संस्कृति, भौतिक और सामाजिक संस्कृति से जोडा बाद में इसका पतन हो गया पर अनेक साहित्यकारो ने इसे अपनी लेखनी जैसे फणीश्वर नाथ रेणु ने ‘मारे गये गुल्फाम ‘जिस पर ‘तीसरी कसम ‘फिल्म बनी है का नायक हीरामन कहता है।

“कहां चला गया वह जमाना, हर महीने गाँव मे नाच वाले आते थे। हीरामन ने छोकरा नाच के चलते अपनी भाभी की न जाने कितनी बोली ठोली सुनी है। भाई ने घर से निकल जाने को कहा था। इसमे उसने नायिका की तुलना मनुआ नट से की थी पहले यह आर्थिक विपन्नता और सस्तेपन का द्योतक था पर भिखारी ठाकुर के हाथों इसके कलाकारो ने शोहरत पाई और रईस लोग शादी ब्याह मे लौडा नाच को प्राथमिकता देने लगे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी इनकी मृत्यु 10जुलाई 1971 को हुई इनके नाटक विदेशिया को बहुत ख्याति मिली इसके अलावा बेटी बेचवा और जबरचोर नाटक भी बहुत प्रसिद्ध हुए इनकी 29किताबे कविताएँ और नाटक की प्रकाशित हुई।

धीरे-धीरे करके समाज में लौडा नाच का महत्व घटने लगा और यह कला देखनेमें एक प्रकार से मृत प्राय हो गईं क्योंकि महिलायें बराबरी से नाटकों और फिल्मों में भागीदारी करने लगी थी लेकिन पुरुषो को स्त्रियो की वेशभूषा और लोच मे देख कर जनता को थोड़ा अलग प्रकार का मनोरंजन होता है तभी तो यह कला फिल्मों में किसी न किसी रूप में आज तक जीवित रही ।बडे से बडा अभिनेता भी अपने अभिनय काल में महिलाओँ की वेश भूषा हाव भाव और नृत्य के साथ अभिनय किया है और उनका यह रूप जनता को भाया भी बहुत है।

आज तो यह हाल है कि कई नामी गिरामी टी.वी. सिरियल में कलाकारो ने स्त्री की वेश भूषा और नाम अपना कर ही अच्छी खासी लोकप्रियता बटोरी है और उनकी कमाई काफी अच्छी-खासी है।कपिल शर्मा शो का कृष्णा जो प्रसिद्ध फिल्म एक्टर गोविन्दा का भंजा है और सिरियल में सपना बन कर आता है इसके अलावा अन्य कलाकार भी है जो पुरूष स्त्री दोनो के रोल निभाते हैं अपने मोहक हाव भाव और हास्य पूर्ण हरकतों से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करते हैं और इस प्रकार हम देखते हैं कि उस महान नायक भिखारी ठाकुर की कला किसी न किसी रूप में जीवित है भले ही वह आज लौंडा नाच न कहलाये पर जनता का मनोरंजन करने मे पूर्ण समर्थ है।

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