पित्त internal fire संतुलित हो तो बढ़ाता है बुद्धि intellect एवं आत्मबल
शरीर में पित्त (internal fire) सूर्य या अग्नि का प्रतिनिधि होता है
शरीर में पित्त (internal fire) सूर्य या अग्नि का प्रतिनिधि होता है। त्रिदोषों में दूसरे नंबर के दोष ‘पित्त’ की निष्पत्ति संस्कृत के अग्निकर्म सूचक धातु ‘तप संतापे’ से हुई है, इससे स्पष्ट होता है कि पित्त का कार्य शरीर में गर्मी, ऊष्मा, अग्नि उत्पन्न करना है। जिस प्रकार अग्नि विभिन्न पदार्थों का दाह (burn) और पाक (cook) कर, उसका विघटन कर उन पदार्थों को दूसरे रूप (ऊर्जा) में परिवर्तित करती है, उसी प्रकार, पित्त भी लिए गए आहार और रस धातु का दाह और पाक कर्म कर उसे ऊर्जा में परिवर्तित कर शरीर का पोषण करता है। आयुर्वेद में वात के बाद पित्त को स्थान इसलिए दिया गया है क्योंकि जहां वात के कुपित (विकृत) होने पर 80 प्रकार के रोग होते हैं वहीं पित्त के कुपित होने पर 40 प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं।
पित्त के स्वरूप का वर्णन करते हुए आचार्य चरक सूत्र स्थान (20/17) में लिखते हैं कि पित्त अपने शुद्ध रूप में उष्ण, तीक्ष्ण, हल्का, द्रव (liquid), न अधिक चिकना न अधिक रूखा, नीला-पीला रंग का, सड़न सी गंध वाला कटु और अम्ल रस युक्त तथा प्रसार (फैलने वाला) गुण युक्त होता है।
पित्त का विश्लेषण करते हुये आचार्य डॉ मदन गोपाल वाजपेयी ने कहा कि जब पित्त प्राकृत (natural) अवस्था में रहता है तो शरीर की कोमलता, चमक, कान्ति, मन की प्रसन्नता, बुद्धि (intellect), आत्म बल (self confidence) की वृद्धि करता है तथा रस धातु का रक्त में परिवर्तन, शौर्य (ओजस) और हर्ष को उत्तम रखने का कार्य करता है।
पित्त की व्याख्या करते हुये प्रो.(डॉ.) ब्रजेश मिश्र ने कहा कि पित्त का कार्य शरीर के भीतर ऊष्मा उत्पन्न करना है, लेकिन अधिक मिर्च, मसाला, कटु एवं तिक्त गुण वाले पदार्थों का सेवन करने के साथ साथ साथ क्रोध, शोक, चिंता, भय और दु:ख जैसे मानसिक कारणों से प्रकुपित होता है।
आयुर्वेद के मूल सिद्धांतों – वात, पित्त एवं कफ की चर्चा की इसी श्रंखला में आज श्री रामदत्त त्रिपाठी के साथ आयुषग्राम ट्रस्ट, चित्रकूट के संथापक आचार्य डॉ. मदन गोपाल वाजपेयी के साथ प्रो. (डॉ.) ब्रजेश मिश्र, आयुर्वेद महाविद्यालय, नागपुर पित्त दोष के विषय में विस्तार से चर्चा कर रहे हैं।
रिपोर्ट : आलोक वाजपेयी