बाबरी विध्वंस : सुप्रीम कोर्ट, लिब्रहान और सेशंस कोर्ट के निष्कर्ष में अंतर क्यों?
बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सेशंस कोर्ट ने पिछले हफ़्ते सभी अभियुक्तों को बाइज़्ज़त बरी कर दिया . अदालत ने कहा यह घटना सुनियोजित नहीं थी . अदालत ने इस कांड के लिए अराजक तत्वों को ज़िम्मेदार बताया. लाल कृष्ण आडवाणी के बारे में अदालत ने कहा कि वह मस्जिद को बचाने की कोशिश कर रहे थे जबकि वह बाबरी मस्जिद के ख़िलाफ़ आंदोलन के अगुआ थे .
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट में इसे आपराधिक कृत्य बताया था और जस्टिस लिब्रहान जॉंच आयोग ने सुनियोजित षड्यंत्र.
पढ़िये वरिष्ठ पत्रकार राम दत्त त्रिपाठी का विश्लेषण.
छह दिसम्बर बानवे को अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस कुछ अराजक तत्वों द्वारा अचानक हुई
घटना थी अथवा यह की सालों के सुनियोजित और संगठित प्रयास का परिणाम था?
इतिहास में यह सवाल हमेशा पूछा जाएगा.
हमारे वेदों में कहा है कि सत्य का मुख सोने के पात्र से ढका हुआ होता है.
सत्य की खोज श्रमसाध्य एवं अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है.
सत्य अलग अलग कोण से अलग दिखता और देखने वाले की नज़र से भी.
बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्मभूमि प्रकरण में मैं एक दर्शक रहा हूँ.
चालीस साल से प्रत्यक्ष और उसके पहले का फ़ाइलों और पुस्तकों के ज़रिए.
वास्तव में यह कहानी दिसम्बर उनचास से शुरू होती है, जब रात में पुलिस के पहरे में मस्जिद में
भगवान राम की मूर्तियाँ प्रकट हुईं. अथवा जैसा कि पुलिस रपट में है कि चोरी से रखकर मस्जिद को अपवित्र कर दिया गया.
एक धर्म के लोगों द्वारा जबरन दूसरे धर्म के प्रार्थना गृह में क़ब्ज़ा.
लेकिन सी बी आई उतना पीछे नहीं गयी. सी बी आई की कहानी पिछले शिलान्यास के आसपास
शुरू होती है. चार्जशीट में उल्लेख किया गया कि हाईकोर्ट ने 14 अगस्त 1989 और फिर 7 नवम्बर 1989 को विवादित राम जन्म भूमि परिसर में यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था, जो छह दिसम्बर 1992 तक जारी था.
इसके बाद भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने विवादित स्थल पर राम मंदिर बनाने के पक्ष में समर्थन जुटाने और आंदोलन चलाने के लिए सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा शुरू की.
1 अक्टूबर 1990 को शिव सेना अध्यक्ष बाल ठाकरे ने मुंबई में श्री आडवाणी का स्वागत किया और उन्होंने वहाँ की जन सभा में यह संकल्प दोहराया.
इसके बाद जून 1991 में भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में सत्ता में आ गयी. मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने पूरे मंत्रिमंडल और डा मुरली मनोहर जोशी के साथ अयोध्या में राम जन्म भूमि का दर्शन कर वहीं मंदिर निर्माण का संकल्प लिया.
17 जुलाई 1991 को शिव सेना सांसद मोरेश्वर सावे ने कल्याण सिंह को पत्र लिखकर राम मंदिर निर्माण तत्काल शुरू करने की बात कही.
जवाब में कल्याण सिंह ने 31 जुलाई को पात्र लिखकर कहा कि ज़रूरी कार्यवाही हो रही है.
इसके बाद कल्याण सरकार ने वहाँ मस्जिद के सामने ज़मीन और कई मंदिर अधिग्रहीत कर हाइवे से चौड़ी सड़क बनवायी.
साथ ही कांग्रेस सरकार द्वारा बगल में राम कथा पार्क के लिए अधिग्रहीत 42 एकड़ ज़मीन विश्व
हिंदू परिषद को दे दी.
देश भर से आए कार सेवकों को छह दिसम्बर को तम्बू कनात लगाकर यहीं टिकाया गया. यहीं पर लाठी डंडों से लैस कार सेवकों ने पाँच दिसम्बर को रस्सियों, कुदाल और फावड़े टीले पर मस्जिद गिराने का रिहर्सल किया.
इस तरह सीबीआई के मुताबिक़ बाबरी मस्जिद को गिराने का यह लम्बे समय से चला आ रहा
सुनियोजित षडयंत्र था ,जिसमें संघ परिवार के विभिन्न संगठनों के अलावा शिव सेना के बड़े नेता शामिल थे.
सीबीआई ने अपनी चार्जशीट 5 अक्टूबर 1993 को पेश कर दी.
अयोध्या प्रकरण के लिए गठित स्पेशल सेशंस कोर्ट के जज जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव ने 9 सितम्बर 1997 को अभियुक्तों के ख़िलाफ़ चार्ज फ़्रेम किए.
जज में अपने आदेश में रिकार्ड किया कि, “ पाँच दिसम्बर को श्री विनय कटियार के निवास पर गुप्त बैठक हुई, जिसमें श्री एल के आडवाणी, डा मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार और पवन पांडेय ने भाग लिया और उसमें विवादित ढाँचा को गिराने का निर्णय लिया गया. “
इसी आदेश के अनुसार , “195 कम्पनी केंद्रीय पैरामिलिटरी फ़ोर्स फ़ैज़ाबाद में केंद्रीय सरकार द्वारा राज्य सरकार के क़ानून व्यवस्था बनाए रखने हेतु मदद हेतु भेजी गयी लेकिन उनका भारतीय जनता पार्टी सरकार ने उपयोग नहीं किया. जबकि दिनांक 5 -12-92 को मुख्य सचिव गृह उ प्र सरकार ने केंद्रीय बाल के प्रयोग के लिए सुझाव दिया, लेकिन श्री कल्याण सिंह इससे सहमत नहीं हुए.”
अभियुक्तों ने आरोप तय करने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में क्रिमिनल रिवीज़न पेटिशन फ़ाइल की.
यहाँ यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि छह दिसम्बर को बाबरी मस्जिद ढहने के बाद अयोध्या में पुलिस ने दो मुक़दमे दर्ज किए थे.
एक लाखों अज्ञात कारसेवकों के ख़िलाफ़ मस्जिद तोड़ने के षड्यंत्र , बलवा, लूटपाट आदि अनेक अपराधों के लिए और दूसरा धार्मिक उन्माद और कारसेवकों को भड़काने वाले भाषण देने के लिए.
इसके अलावा 47 और मुक़दमे पत्रकारों पर हमले आदि के लिए.
सीबीआई ने इन सबकी एक संयुक्त चार्जशीट दाखिल की थी.
सीबीआई के मुताबिक़ 1 अक्टूबर 1990 को रथयात्रा के बाद सारी सभाएँ, भाषण और छह दिसम्बर को हुई समस्त घटनाएँ आपस में जुड़ी हैं और एक ही षड्यंत्र का हिस्सा हैं. स्पेशल कोर्ट ने इसी संयुक्त चार्जशीट के आधार पर आरोप निर्धारित किए थे.
भड़काऊ भाषण वाले मामले में आडवाणी समेत आठों अभियुक्त पहले ही गिरफ़्तार हो गए थे.
इन लोगों को ललितपुर के माताटीला बांध गेस्ट हाउस में रखा गया था.
ललितपुर में स्पेशल कोर्ट बनाकर मुक़दमा शुरू हुआ था. बाद में यह केस रायबरेली ट्रांसफ़र हो गया. सीबीआई ने कोर्ट से अनुमति लेकर इस केस को भी अन्य मामलों के साथ जोड़ लिया था.
राज्य सरकार ने हाई कोर्ट से परामर्श किए बिना लखनऊ की स्पेशल कोर्ट की अधिसूचना संशोधित कर इस मामले को भी अयोध्या प्रकरण वाली लखनऊ की स्पेशल कोर्ट को दे दिया था.
सभी बड़े नेता इस केस में अलग से नामज़द थे और क्रिमिनल रिवीज़न का यही मुख्य बिंदु था कि यह संशोधन ग़ैरक़ानूनी था.
जस्टिस जगदीश चंद्र भल्ला ने क़रीब चार साल बाद 12 फ़रवरी 2001 को अपने फ़ैसले में कहा कि
निचली अदालत ने संयुक्त चार्जशीट के आधार पर आरोप तय करने में कोई ग़ैरक़ानूनी काम नहीं किया, क्योंकि सभी आपराधिक घटनाएँ एक ही षड्यंत्र को पूरा करने के लिए की गयी थीं.
हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि पहली नज़र में एक षड्यंत्र और एक समान उद्देश्य के लिए ग़ैरक़ानूनी जमावड़ा का मामला बनता है.
चूँकि यह सब कथित अपराध एक ही कृत्य के सिलसिले में घटित थे इसलिए स्पेशल कोर्ट ने इनका संज्ञान लेकर सही किया.
लेकिन जस्टिस भल्ला ने कहा कि राज्य सरकार ने हाईकोर्ट से परामर्श किए बिना क्राइम नम्बर 198 अर्थात् भड़काऊ भाषण वाले मामले को भी लखनऊ की स्पेशल कोर्ट को भेजने जो अधिसूचना जारी की है वह त्रुटिपूर्ण है.
कोर्ट ने कहा कि यह त्रुटि दूर करने लायक़ है और राज्य सरकार चाहे तो ऐसा कर सकती है.
सीबीआई ने भारतीय जनता पार्टी की राजनाथ सिंह सरकार से त्रुटि दूर करने को लिखा , लेकिन वहाँ से नामंज़ूर हो गयी.
राजनाथ सिंह के बाद मुलायम सिंह और मायावती सरकारों ने भी त्रुटि दूर करने से मना कर दिया.
मोहम्मद असलम भूरे हाईकोर्ट के आदेश के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट गए, पर उनकी याचिका रद्द हो गयी.
लखनऊ स्पेशल कोर्ट के जज ने एक कदम आगे जाकर चार मई 2001 को भड़काऊ भाषण देने वाले केस के आठ बड़े अभियुक्तों के साथ- साथ कल्याण सिंह समेत तेरह अन्य प्रभावशाली अभियुक्तों के ख़िलाफ़ में मामला ड्रॉप कर दिया.
इसके बाद ही इस केस का ट्रायल डिरेल होकर लखनऊ और रायबरेली दो जगह चलने लगा.
आडवाणी वग़ैरह आठ बड़े लोगों के ख़िलाफ़ मामला रायबरेली में चल रहा था, लेकिन कल्याण सिंह समेत तेरह लोगों के ख़िलाफ़ कहीं नहीं.
रायबरेली कोर्ट ने अकेले आडवाणी को बरी या डिस्चार्ज भी कर दिया.
डा जोशी एवं अन्य बाक़ी लोगों की अपील पर हाईकोर्ट ने आडवाणी समेत आठों लोगों पर मुक़दमा चलाने को कहा.
इस तरह आडवाणी आदि पर मस्जिद तोड़ने के आपराधिक षड्यंत्र का मामला ड्रॉप हो गया और केवल भड़काऊ भाषण बचा.
जस्टिस भल्ला के आदेश के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में कोर्ट में अपील 29.11.2002 और 12 . 2 .2008 को ख़ारिज हो गयी.
उधर सीबीआई ने लखनऊ स्पेशल कोर्ट के जज द्वारा 4 मई 2001 को 21 अभियुक्तों के ख़िलाफ़ मामला ड्रॉप करने के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में रिवीज़न दाखिल किया.
दस साल बाद 22 मई 2001 को हाईकोर्ट ने इसे ख़ारिज कर दिया.
इस आदेश के ख़िलाफ़ सीबीआई सुप्रीम कोर्ट गयी. सात साल बाद 19 अप्रैल 2017 को जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष और जस्टिस आर एफ नरीमन की बेंच ने अपने जजमेंट में उल्लेख किया कि जस्टिस भल्ला ने संयुक्त चार्जशीट और ट्रायल को वैध ठहराया था जिसमें मस्जिद गिराने का षड्यंत्र शामिल था.
कोर्ट ने आगे आदेश दिया कि रायबरेली में चल रहा मुक़दमा लखनऊ की स्पेशल कोर्ट में ट्रांसफ़र हो जाएगा.
लखनऊ की स्पेशल सेशंस कोर्ट आडवाणी वग़ैरह के ख़िलाफ़ आई पी सी की धारा 120 बी के तहत अतिरिक्त चार्ज फ़्रेम करेगी.
इस तरह क़रीब 23 साल बाद लखनऊ में फिर संयुक्त ट्रायल शुरू हुआ.
यह सारी देरदार इसलिए हुई कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने रिवीज़न और अपील पर फ़ैसला देने में सालों लगा दिए.
1994 में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
इससे पहले डा एम इस्माइल फ़ारूक़ी ने अयोध्या में नरसिम्हा राव सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण को चुनौती दी थी. चीफ़ जस्टिस जे एस वर्मा की बेंच ने भूमि अधिग्रहण क़ानून को वैध ठहराते हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस को “राष्ट्रीय शर्म” करार दिया था.
कोर्ट ने कहा था, “ दोपहर के आसपास बीजेपी, वीएचपी आदि के नेता राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद इमारत के ऊपर चढ़ गए और गुम्बदों को क्षतिग्रस्त करना शुरू कर दिया. वास्तव में यह राष्ट्रीय शर्म का कृत्य था. जिसका विध्वंस हुआ वह केवल एक पुरानी इमारत नहीं थी , बल्कि बहुसंख्यक द्वारा न्याय और निष्पक्षता पर भरोसा ( टूटा) था.”
2019 में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
पिछले साल अयोध्या भूमि विवाद में विवादित ज़मीन हिन्दुओं के पक्ष में देते हुए भी सुप्रीम कोर्ट ने
मस्जिद तोड़ने पर कड़ी टिप्पणी की थी.
फ़ैसले के मुताबिक़ इस बात के सबूत मिले हैं कि मस्जिद की इमारत में शुक्रवार 16 दिसम्बर को आख़िरी नमाज़ पढ़ी गयी थी. २२/२३, १९४९ दिसम्बर की रात हिंदू मूर्तियाँ रखकर मस्जिद को अपवित्र कर उसका क़ब्ज़ा ले लिया गया और इस तरह मुसलमानों को इबादत और क़ब्ज़े से वंचित कर दिया गया.
उस समय वहाँ से मुसलमानों को किसी विधिक प्राधिकारी द्वारा बाहर नहीं किया गया, बल्कि यह उन्हें उनके इबादतगाह से वंचित करने का सुनियोजित कृत्य था.
इसके बाद इमारत को दंड प्रक्रिया संहित की धारा १४५ के तहत कुर्क करके रिसीवर नियुक्त किया गया और हिंदू मूर्तियों की पूजा की अनुमति दी गयी.
इतना रिकार्ड करने के बाद अदालत ने कहा, “ मुक़दमों के विचाराधीन रहते हुए सुनियोजित तरीक़े से एक इबादतगाह को नष्ट करने के लिए मस्जिद की पूरी इमारत ढहा दी गयी.’
सर्वोच्च अदालत ने कहा कि इस तरह मुसलमानों को साढ़े चार सौ साल पुरानी मस्जिद से ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से वंचित कर दिया गया.
कोर्ट ने कहा था कि मुस्लिम समुदाय का प्रार्थना स्थल ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से तोड़ा गया था.
कोर्ट ने कहा था कि मुस्लिम समुदाय को मस्जिद की इमारत से जिस तरह वंचित किया गया था वैसा तरीक़ा विधि के शासन से प्रतिबद्ध एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र में नहीं अपनाया जाना चाहिए था.
कोर्ट ने याद दिलाया था कि संविधान में सभी धर्मों को समान मानने की व्यवस्था है.
सहिष्णुता और सह अस्तित्व से हमारे राष्ट्र और इसके लोगों का पोषण होता है.
बहरहाल इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में अपने विशेष अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए न केवल पंद्रह सौ वर्ग गज विवादित भूखंड बल्कि सरकार द्वारा अग़ल – बग़ल की अधिग्रहीत सारी ज़मीन भी दे दी गयी. यद्यपि संसद ने क़ानून बनाकर व्यवस्था की थी कि हारे हुए पक्ष को भी उसी अधिग्रहीत कैम्पस में अपना पूजा स्थल बनाने के लिए ज़मीन दी जाएगी.//
लिब्रहान जाँच आयोग को षड्यंत्र के सबूत मिले
केंद्र सरकार ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए जस्टिस एम एस लिब्रहान की अध्यक्षता में एक न्यायिक जाँच आयोग बनाया था. इस आयोग ने 30 जून 2009 को अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बाबरी मस्जिद विध्वंस एक सुनियोजित घटना थी .
आयोग ने भारतीय जनता पार्टी की त्रिमूर्ति – अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी और डा मुरली मनोहर जोशी समेत ६८ लोगों को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया था.
इनमें आर एस एस, वीएचपी और बजरंग दल के नेता शामिल थे.
सैकड़ों घंटों के आडियो वीडियो टेप सुनने और गवाहों के बयान के बाद जस्टिस लिब्रहान की टिप्पणी थी, “ एक क्षण के लिए भी यह नहीं सोच सकते कि एल के आडवाणी, ए बी वाजपेयी और एम एम जोशी को संघ परिवार के इरादों की जानकारी नहीं थी.”
लेकिन आयोग ने सबसे ज़्यादा दोषी तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को बताया था.
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इस आंदोलन को चलाने के लिए संघ परिवार को अज्ञात स्रोतों से धन मिला और इन संगठनों के खातों से भी दसियों करोड़ रुपए निकालकर छह दिसम्बर की घटना को अंजाम देने के लिए खर्च किए गए.
इतने बड़े पैमाने पर धन खर्च करना इस बात का संकेत है कि आंदोलन के लिए जनमत बनाने और लोगों को मोबिलाइज करने से लेकर विध्वंस तक सब कुछ नियोजित था.
आयोग के कहा था कि आरएसएस संगठनमें सेना जैसा अनुशासन है और जिस तरह की व्यवस्था की गयी थी उससे नहीं लगता कि यह सब केवल सांकेतिक कारसेवा के लिए था.
आयोग ने कहा कि इन संगठनों के नेताओं का यह कहना सही नहीं कि कुछ उत्तेजित कारसेवकों ने यह सब अचानक किया.
जिस तरह कुछ थोड़े से लोगों ने अपनी पहचान छिपाकर इतनी कम जगह में इमारत पर धावा बोला, मूर्तियों और दान पात्र को हटाया और अस्थायी मंदिर बनाकर उन्हें फिर स्थापित किया, उनके पास इमारत तोड़ने और अस्थायी मंदिर बनाने के औज़ार और संसाधन उपलब्ध थे, उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि इसके लिए बड़ी मेहनत से तैयारी की गयी और योजना बनायी गयी.
आयोग का निष्कर्ष है कि जिस काम में इतनी बड़ी संख्या में कारसेवकों की हर काम के लिए स्थान स्थान पर ड्यूटी लगायी गयी, यह हो नहीं सकता कि मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को न पता हो जिनके पास सूचनाओं के अनेक स्रोत थे, या के एस सुदर्शन को न पता हो जो संघ के प्रमुख थे या विनय कटियार और अशोक सिंघल जैसे नेताओं को न पता हो.
आयोग ने कहा कि आर एस एस और वीएचपी का यह एक सूत्री एजेंडा था. कुछ मुट्ठी भर विचारकों और धार्मिक उपदेशकों ने आम जनता के दिलोदिमाग़ को एक ऐसी उपद्रवी भीड़ में बदल दिया जिसने हाल के समय में सबसे दुष्टता पूर्ण कार्य को अंजाम दिया.
कुछ मुट्ठी भर बुरी नियत वाले नेताओं ने बेशर्मी के साथ मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम का इस्तेमाल करके शांतिपूर्ण समुदायों को असहिष्णु झुंड में बदल दिया.
अत्यंत कठोर शब्दों का इस्तेमाल करते हुए जस्टिस लिब्रहान ने लिखा कि इस बात के पक्के सबूत मिले कि सत्ता और दौलत की लालच से बीजेपी, आरएसएस , वीएचपी, शिव सेना, बजरंग दल आदि में ऐसे नेता पैदा हुए न तो उनकी कोई विचारधारा न उन पर नैतिक मूल्यों का दबाव था. इन नेताओं ने अयोध्या मुद्दे को अपनी सफलता के हाइवे के रूप में देखा और वह इस मार्ग पर तीव्र गति से दौड़ पड़े, बिना यह परवाह किए कि इससे रास्ते में चारों तरफ़ कितने लोग मारे जाएँगे.
यह सब पढ़ने के बाद माँ में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब लिब्रहान जाँच आयोग के पास सुनियोजित षड्यंत्र के प्रमाण आ गए थे तो वही प्रमाण और गवाह लखनऊ की स्पेशल कोर्ट के सामने भी थे तो दोनों के निष्कर्ष इतने भिन्न क्यों? स्पेशल कोर्ट को मस्जिद विध्वंस का न कोई षड्यंत्र दिखा, न पूर्व योजना दिखी और न ही “बाबरी मस्जिद का कलंक” मिटाने का आंदोलन चलाने वाले किसी नेता का हाथ दिखा. उल्टे कोर्ट की निगाह में वे मसजिद को बचाने की कोशिश कर रहे थे.
क़ानून के विद्यार्थी के नाते मुझे स्पेशल कोर्ट के जज की नीयत, ईमानदारी या क्षमता पर शक करने की अनुमति नहीं है.
वास्तव में हर छोटी बड़ी कोर्ट अपने निर्णय के लिए स्वतंत्र रूप से काम करती है.
जाँच आयोग के निष्कर्ष उस पर बाध्यकारी नहीं.
तीसरे जब कोई जज क्रिमिनल ट्रायल में बैठता है तो चार्ज फ़्रेम करने में उसे पहली नज़र में मामला बनता है या नहीं देखना होता है. और दोष सिद्ध करने के लिए उसे सबूतों को इस कसौटी पर तौलना होता है कि किसी मुलज़िम का जुर्म असंदिग्ध रूप से प्रमाणित होता है या नहीं.
शक का लाभ हमेशा मुलज़िम को मिलता है
व्यंग्यात्मक लहजे में कुछ लोग यह भी कहने लगे हैं कि शायद मस्जिद ने अपना जीवनकाल समाप्त मानकर स्वयं ध्वस्त हो गयी और कुछ निर्दोष कारसेवक उसके नीचे दबकर मर गए.
ऐसे में बाबरी मस्जिद को एक लीगल पर्सन मानकर उसके ख़िलाफ़ हत्या का मुक़दमा भी चलाया जा सकता है.
सोशल मीडिया पर किसी का यह शेर भी खूब शेयर हो रहा है.
क़ातिल की यह दलील मुंसिफ़ ने माँ ली.
मकतूल ख़ुद गिरा था ख़ंजर की नोक पर.